जाति का ठप्पा

भारत में आजादी के बाद देष का अपना संविधान लागू हुआ। संविधान में सभी धर्म, जाति तथा वर्ग को समानता का अवसर प्रदान करने की बात कही गई। साथ ही समाज में दलित, पिछड़ों को समाज की मुख्यधारा में सम्मलित करने के प्रयास किये गये। समाज में उन्हें समानता का अधिकार मिले, उनका जीवन स्तर में सुधार हो इसके लि, सिफारिश की गई और अन्ततः 10 वर्षों के लि, सरकारी सेवाओं में आरक्षण की व्यवस्था की गई, जो आजतक भी जारी है, साथ ही शैक्षिक स्तर में सुधार के लि, अवसर तथा प्रोत्साहन दिये जाने पर भी जोर दिया गया। लेकिन आजादी के इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी दलितों व पिछड़ों के सामाजिक स्तर में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। वैश्विक दौर में आर्थिक स्थिति में जरूर सुधार आया, कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी का सिस्टम पूर्व की भांति चल रहा है। समाज में अभी भी दलितों के प्रति भेदभाव का व्यवहार हो रहा है। जिसे एक अक्राोशित कानून के रूप में दलित मानते भी आ रहे हैं।
अभी हाल में केन्द्र सरकार ने पिछड़ों को आरक्षण देने के लि, 06 लाख वार्शिक आय के लोगों को क्रीमीलेयर में रखने की बात कही गई। इससे देश में इस मुद्दे पर बहस भी शुरू हो गई, कि आखिर आरक्षण किसके लिये, जाति के लिये या फिर गरीबों के लिये। लेकिन वर्तमान स्थिति पर विचार करें, तो आरक्षण व्यवस्था को महज राजनैतिक लाभ लेने के मकसद से जारी रखी गयी है। इसमें देश की गरीब खो गई है और गरीबी पर जाति हावी हो गई। यदि अब जातिवाद को समाप्त करने की वकालात करते हंै तो वो बेमानी होगी, क्योंकि जब तक जाति के आधार पर आरक्षण की बात कही जायेगी, तब तक जाति रहेगी और यह जाति का ठप्पा आरक्षण के साथ बरकरार रहेगा। जबकि होना यह चाहि, कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था हो, आरक्षण व्यवस्था लागू करने तथा पिछड़ों के सामाजिक स्तर में सुधार के लि, शुरू में ये तर्क दिये गये थे कि शिक्षा का स्तर बढ़ेगा तो गरीबी समाप्त हो जायेगी, लेकिन उसके विपरीत आंकड़ों की माने तो देश में शिक्षा के स्तर बढ़ने के साथ गरीबी का स्तर भी बढ़ा है। 
यहां पर विचारणीय प्रश्न यह है कि शिक्षा आदमी की योग्यता और उपलब्धि है जो कि मौलिक होती है, इस के आधार पर अवसर प्राप्त होते हैं, अब यदि उपलब्धि को दरकिनार कर जबरदस्ती बिना योग्यता और उपलब्धि के आगे धकेला जायेेगा तो उसका परिणाम क्या होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। जहां तक दलितों और पिछड़ों को शिक्षा में आरक्षण तथा अवसरों की उपलब्ध कराया जाना जायज है, लेकिन उसके बाद नौकरियों में जबरदस्ती बिना उपलब्धि के आगे धकेलना तर्कसंगत नहीं है, ये एक थोपी गई व्यवस्था होगी, जो स्वस्थ समाज की रचना के लिये उचित नहीं है। दूसरी बात, राजनीति लाभ-हानि के आधार पर आरक्षण व्यवस्था लागू करना देश के संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ है, आज इस विषय पर गम्भीरता से सोचने की आवश्यकता है कि आरक्षण व्यवस्था किस प्रकार लागू की जाये, क्या जाति के आधार पर लागू की जाये या गरीबी को आधार बनाकर, क्यांेकि जिन दलितों को आरक्षण का लाभ मिल चुका है वे आज आर्थिक रूप से अन्य वर्गों से भी प्रबल है, अब यदि इन्हें जाति के आधार पर अब भी आरक्षण दिया गया, तो ये अनुचित होगा। सरकार को आरक्षण की एक नई व्यवस्था लागू करनी होगी, जिससे समाज में सभी वर्गों का समान रूप से विकास हो सके।