केदार त्रासदी


हमारे ढ़ीले जबड़े देख
'धार' में चादर लपेटे, वह
बूढ़ा बादल फट पड़ा
पहाड़ ने गुस्से से कांपकर
झुरझुरी ली
झर के गिर पड़े
मकान/ दुकान सब
पहाड़ की दाढ़ में 
'घुन' की तरह पिस गया
यहां का भोला जीवन
पहाड़ को नहीं पसंद
कि उसकी आंते निकालकर
कोई बना दे 
उसके पेट पर बांध
उसके व्याममेय केशों पर
उस्तरा चलाकर
उसे बना दे
'माई' सा कुरूप
पहाड़ कोई वेश्या नहीं
कि उसके शरीर पर 
होते रहें विस्फोट
कि उसे चाटते रहें 
लालची लोग
सड़के, सुरंगें खोदकर
उसकी आंखों से चुराकर ले जायें
जड़ी-बूटियां और
अनछुई कुवांरी सुगंध
पहाड़ गुस्से में है
तीर्थों के पट खुलते थे
पहाड़ के अंतस में झांकने का
आनंद लेते थे यात्री लोग 
अपना संचित पुण्य
मन की शुचिता
रख आते थे 
पहाड़ के पैरों पर
और अब?
पहाड़ की पसलियों पर
'जूं' की तरह रेंगते हैं
नव धनाड्यों के वाहन
रैपरों की उच्छिष्ठ चमक
गढ़ती है, ऋषि आंखों में
धर्मशालाओं /होटलों में ठहरती हैं
मैली-कुचैली वासनायें
पहाड़ गुस्से में है....
उसका अपना जवान बेटा
लूलों की तरह 
परी कथा में डूबा है आंख तक
बूढ़े बाप जैसे पहाड़ को
वीरान घरों में छोड़कर 
वह घड़ियाल बेटा
बाप के पैबन्द पर 
धुन बनाता है
कविता, गीत बेचता है शहरों में
पहाड़ चीखता है/ उबलता है
पानी-पत्थर, मकान-जंगल
सब उलट-पुलट करता है
कि ये कुंभकर्ण
उठें! लौटें, लड़ें...
अरे एक शब्द तो कहें!
कहे दे रहा हूँ
पहाड़ गुस्से में है
वह फिर कांपेगा
शायद...