केदारघाटी में जल प्रलय

 हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर 
 बैठ शिला की शाीतल छाँव,
 एक पुरूष भीगे नयनों  से 
 देख रहा था प्रलय प्रवाह।
 निकल रही थी मर्म वेदना, 
 करूणा विकल कहानी सी                                  
 वहाॅं अकेली प्रकृति सुन रही 
 हॅंसती सी पहचानी सी।
 ओ चिंता की पहली रेखा 
 अरी विश्व वन की व्याली! 
 ज्वालामुखी विस्फोट के भीषण, 
 प्रथम कंप सी मतवाली। 
 हरी भरी सी दौड धूप,
 ओ जलमाया की चल रेखा।
 इस ग्रह कक्षा की हलचल! 
 री तरल गरल की लघु लहरी।
 जरा अमर जीवन की 
 और न कुछ सुनने वाली,
 मनन करावेगी तू कितना,
 उस निश्चिंत जाति का जीव।
 अमर मरेगा क्या ? 
 तू कितनी गहरी डाल रही नींव 
कविवर जयशंकर प्रसाद जी ने कामायनी में न जाने किस प्रलय दुर्घटना के परिप्रेक्ष्य में जलप्लावन की विभीषिका का संकेत करती हुई ये पंक्तियां लिखी होंगी जिसे मैंने आज से लगभग पैंतालिस वर्ष पूर्व हिंदी साहित्य का अध्ययन करते हुये जब पढ़ा था और उसके बाद कई बार इसका नाट्य रूपान्तर भी देखा और अब अपने जीवन में अपने प्रदेश के उत्तरकाशी चमोली रूद्रप्रयाग जिलों में अलकनंदा मंदाकिनी के  सैलाब में पलभर में अपनेों को खोने वालों की वेदना को देख, सुन, पढ़ उससे जुड़, जलप्लावन की विभाषिका कीे गंभीरता को महसूस कर पाई हूँ। सो प्रसंगवश उस अमर रचना के कुछ अंश से अपना लेख प्रारम्भ करना चाहा जिसे मैं उस समय इतना न समझ पाई थी अब जितनी उसकी गहराई महसूस कर पाई हूँ। अपने परिवार का कोई एक ही चला जाता है वही हमें बरसों रूलाता रहता है, जिनके समूचे परिवार इस जलप्रलय की गोद में समा गये, उसके दर्द को तो शब्दों में उकेरा भी नहीं जा सकता। अपना सब कुछ गंवाकर लाशों के बीच में रात गुजारना, बिन खाये, पिये कई दिन, कई रात जंगल की भयावह सायं-सायं में घायल अवस्था में संभालना, भूख-प्यास से तड़पते अपनों को अपने सामने विवश मरते हुये देखना, क्या किसी विभीषिका से कम है? वहां से जिंदा बचकर लौटना मानों दूसरा ही जन्म है। ऐसे में आस्थायें डोलती है, ईश्वर पर से विश्वास डगमगाने लगता है। ऐसी किसी आपदा की त्रासदी के बीच से होकर  गुजरते हुये जिंदगी के मायने ही बदल जाते हैं। अपने नहीं रहते तो एक दूसरे को बचाने की भावना से जन्मी मानवता ही सहारा बनती है। दर्द से भीगी आत्मा दूर बैठे भी उसकी भोगी वेदना को अपने भीतर महसूस करती है। मानों कोई उसका अपना ही जलप्रलय में फंस, जिंदगी से लड़ रहा है। आत्मा प्रिय को खोने वाले पीड़ित के दर्द की टीस से खुद को भीगता महसूसती है। कल तक कविता में कहा गया प्रलयप्रवाह, आज मेरी इंिन्द्रयों से होकर भी गुजरा तो उसकी भयावह सच्चाई की अनुगूंज ने मुझे भी आर्द्र कर दिया।     
उत्तराखण्ड की अलकनंदा, मंदाकिनी नदी में आई सोलह-सत्रह जून की बाढ़ किसी सुनामी से कम भयंकर सिद्ध नहीं हुई। जल प्रलय रूपी महाकाल के इस तांडव ने जो उत्पात मचाया उसमें जनधन का कितना विनाश हुआ, सरकार के लिये इसका आकलन करना आसान नहीं होगा। हम जानते हैं कि इस धरती पर बिना कारण कुछ नहीं होता, फिर भी होनी सबसे बलवान कहके हम इस प्रकार की अनहोनी घट जाने पर अपने मन को किसी प्रकार समझा-बुझा बची जिंदगी को जिलाने की कोशिश कर जाने वाले से उत्पन्न हुये शून्य को भरते हंै। धीरे-धीरे जिंदगी पुनः पटरी पर आने लगती है। ऐसी स्थिति आखिर आई क्यों? इस पर विचार नहीं करते, न पुरानी भूलों से सबक लेना चाहते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसी आपदायें फिर आ कर जिंदगी को हानि पहुंचाती हैं। प्राकृतिक आपदा से हमें मुक्ति नहीं मिलती, अतः आदमी ऐसी दुर्घटनाओं के दण्ड भोगने के लिये अभिशप्त हो जाता है। केदारनाथ की तबाही उसी इंसानी भूल का प्रतिफल है। इंसानी फितरत ही ऐसी है कि वह आसानी से अपनी भूल स्वीकार नहीं करता, दोष पर पर्दा डालने की हरसंभव कोशिश करता है। जिससेे भूल सुधार की प्रक्रिया निरन्तर मंद पड़ती जाती है। और बाद में लगभग बंद हो जाती है। कई बार तो दूसरों पर आरोप मढ़ अपनी गलती का दण्ड दूसरे को दिलवाने से भी बाज नहीं आते। आदमी की  प्रकृति से भी यूं ही लड़ाई चलती रहती है। किंतु प्रकृति अपने साथ हुई ज्यादतियों का इंसान को कितना बडा दण्ड दे सकती हैं, सोलह जून की महाप्रलय की रात में हममें से बहुतों ने न केवल देखा बल्कि उसका दर्द महसूस भी किया। साथ में इंसान को सावधान और सतर्क रहने की सीख भी दी।  
प्रदेश का स्वरूप मिले उत्तराखण्ड को एक दशक से भी अधिक का समय बीत गया। पहाड़ की सत्ता पहाड़ के लोगों के हाथ में आ गई, किंतु इसके नियंताओं ने मैदान की समृद्धि से अभिभूत हो खुद पहाड़ का होते हुये नदी-पहाड़ के स्वभाव को न समझ, वरदान के रूप में मिली इसके सौन्दर्य की प्रतीक नैसर्गिकता को स्वयं सर्वाधिक चोट पहुंचाई। यह सही है कि आदमी की जिंदगी को विकसित करने के लिये आवागमन के साधन विकसित किये जायें, उन्हें भी आधुनिकता की हवा में बहने का अवसर दिया जाये। उस से परिचित कराया जाये। किंतु मैदान की तर्ज पर यहां कभी विकास की राह नहीं बुनी जा सकती। पहाड़ में काम करने के लिये पहाड़ के स्वभाव को समझना अनिवार्य है। पहाड़ की प्राकृतिक छटा को बारूद के विस्फोट से उजाड कर इसके संरक्षक वृक्षों को अंधाधुंध काटकर इसकी मौलिकता में पलीता लगा इंसान ने, साधना की तपोभूमि में मौज मस्ती के साधन जुटाये भी, तो क्या पाया? पहाड़ का असली श्रृंगार तो इसका प्राकृतिक सौन्दर्य, सांस्कृतिक छटा, हमारी आस्था के तीर्थ हंै। हमारी असली पूंजी यही है, वही हमने मिटा दी तो पहाड के पास क्या बचा। जो था वह भी हमने खो दिया। विकास के नाम पर्यटन को बढावा देने के लिये पहाड़ से की जा रही छेड़छाड़ लाभ के स्थान पर हानिकारक        अधिक सिद्ध हुई। सोलह-सत्रह जून की बारिश ने इस सत्य को उद्घाटित कर दिया है। सावन का महीना चल रहा है, मुझे अनायास ध्यान आया जिस मौसम में       सर्वाधिक बारिश होती है उसमें ही शिव का शृंगार क्यों ? आखिर इस सच पर के पीछे के सच को जानने की भी तो हमें कोशिश करनी चाहिये। शिव में शिला रूपी भोले के स्नान और पूजा का विधान युगों से चलता आ रहा है। आखिर क्यों हमने कभी इस बात को जानने की कोशिश क्यों नहीं की। थोड़ा सा मस्तिष्क पर जोर डालें तो समझना मुश्किल न होगा। भारत प्रारम्भ से प्रकृति पूजक रहा है। हम जिन्हें देवता मानकर पूजते हैं वे सब हमारी प्रकृति के अंग हंै। मुश्किल यह है कि हमने जिनको भी मूर्ति मान पूजना प्रारम्भ कर दिया उसके पीछे के सत को हमने भुला दिया। इस बार सोलह- सत्रह जून की त्रासदी ने बहुत कुछ याद दिलाया है। पहाड की शिलायें हों या नदी    धारायें, उन्हें भी इस धरती पर जीने का हक है, अपने हिसाब से बहने, उठने का हक है जिसे बिसरा हम उनके अधिकार क्षेत्र में घुस उनकी तकलीफ बढ़ाते आ रहे हैं। इन सबका सम्मान बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने इनके पूजाविधान की परम्परा प्रारम्भ की होगी। किंतु आदमी का स्वभाव है कि वह जिसे मूर्ति रूप में पूजने लग जाता है उसका सत बिसरा देता है। आज यही हो रहा है। यह तात्कालिक स्मृति भर रह जाती है। मनुष्य रूप में जन्म लेने वाली विभूतियों को मूर्तियों में ढालने के बाद उनके आदशों की पोटली अपनी सम्पत्ति मानकर जीने वाले ही उनके आदर्शाें की धज्जियाँ उड़ाते पाये जाते हंै। हम शिव का जल से अभिषेक कर उनके शिवत्व पर कभी विचार नहीं करते पाये गये। सब कुछ परम्परागत रूप से चला आ रहा है। चर्चा आज उनके शिवत्व स्वरुप को समझने की अधिक है। सोचने का विषय है, शिव का शिवत्व रुप क्या हो सकता है? नदी पहाड़ को समझना। उनके सौन्दर्य में खो जीवन का जीवनतत्व गृहण करना। हमने प्रदूषण रहित पहाड़, नदी क्षेत्र को भी शहर जैसा विकसित करने की जो योजनायें बना रखी हैं, उससे उसका विचलित होना निश्चित था ही। हमने उनके जीवन तत्व को बिसरा उन्हें जो चोट पहुंचाई, उसका ही दण्ड हमें त्रासदी झेलने के रूप में मिला है, इस सच को हमें स्वीकारना होगा।  अन्यथा इस धरती पर   विधाता ने तो हर वस्तु एक दूसरे की जरूरत पूरी करने के लिये एक दूसरे के हित के लिये बनाई है। पर हर एक की सीमा है। और प्रकृति के जीने का भी एक ढंग है उसे हम उसके ढंग से जीने देंगे तो वह हमारे ही   अधिक काम आयेगी, उसके जीने के जीवन में जितना दखल बढ़ायेंगे वह हमारे लिये तकलीफदेह हो जायेगी। बिल्कुल मानवीय प्रकृति और स्वभाव की तरह आखिर उसका जन्म तो इस प्रकृति की रचना रुप में हुआ है। कथायें तो हर धर्म में गढ़ी ही जाती हैं पर शिव की आराधना के पीछे उत्तर में मुझे लगता है इन शिलाओं का अभिषेक कर उन्हें मनाने की ही रही होगी।
भारत का उत्तर का अधिकांश क्षेत्र शिवभूमि कहलाता है। वह इसलिये नहीं कि ये शिव हमारे कोई एक आकार में है। पहाड़ की पूजा को शिवाकार हमने दिया है जिससे उसके महत्व को समझंे। शिवतांडव की कथाओं के माध्यम से नदी, पहाड़ के क्रोध आक्रोश को समझ उनके प्रति सहज जीव सा व्यवहार रखंे। यही सच्ची शिव आराधना है, यही शिवपूजा है। सरकारी कदम कुछ समय के लिये तात्कालिक लाभ की संभावनायें अवश्य लेकर आ सकते हैं किंतु दीर्घकाल में इसके सुखदायी परिणाम की आशा नहीं। इन प्रयासों ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार के ये कदम कितने बौने साबित हुये न केवल इनसे जन धन की हानि हुई, उत्तराखण्ड बाढ़, भूकम्प, बाढ जैसी आपदाओं को न्योतकर अपना इतना कुछ खो चुका है कि उसकी भरपाई आसान नहीं है। मंदाकिनी की बाढ़ से केदारनाथ में उठे जलीय तूफान में न जाने कितनो ने पलभर में जल समाधि ले ली। हिसाब लगाना सरल नहीं है कि कितने घर, दुकान, मकान, गांव, बस्ती, यह प्रलय अपने साथ बहा ले गई। इस सदी की शायद विनाश की सबसे बड़ी त्रासदी हो। इसके घाव भरने में अब कई दशक लग जायेंगे, पहाड़ के रहनुमा समझ भी न पायेंगे। वे प्राकृतिक सौन्दर्य और शुद्ध पर्यावरण से युक्त पहाड़ ही इस प्रदेश की निधि है, इसकी प्रगति उनकी रक्षा करके ही की जा सकती हैं। अतः विकास की नींव धरने वालों से निवेदन है कि वे, इसका रोडमैप बनाते समय सबसे पहले पहाड़ का भूगोल पढें, इसकी प्रकृति, स्वभाव और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रश्न की गहराई को समझंे। हम यदि पहाड़ का सौन्दर्य बचा पाये, इसकी हवा पानी शुद्ध रख पाये, उसके स्वास्थ्य की रक्षा पर ध्यान दे पाये तो पहाड़ धीरे-धीरे स्वतः विकास के पहिये नाप लेगा। किंतु यदि स्वार्थ के वशीभूत हो हम वृक्ष काट-काट पहाड़ के जंगल मिटायंे, उसके स्वभाव के विपरीत चट्टानों में बारूद के विस्फोट कर उसका हिय छलनी कर उसे दरकायंे, नदी का अतिक्रमण कर अपने घर- बार बसायें, निज के सुख की खातिर विद्युत परियोजनाओं के नाम, नदियों को बांध जल धारा की अनवरतता को रोक उसके अस्तित्व को संकट में लाये, तो प्रकृति रूष्ट हो कभी न कभी तो अपने ऊपर हुये अत्याचार का बदला लेती है, सो उसने ले लिया। पहाड़ के लिये योजनाओं को बनाते, क्रियान्वित करते समय वहां के वातावरण को मस्तिष्क में पहले पायदान पर रखना होगा। पिछले कुछ वर्ष में पहाड़ों में हो रहे अनवरत बाढ-भू स्खलन से हुई तबाही इस बात की गवाही दे रही हैं कि कहीं न कहीं हम पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर पहाड़ पर अवैध निर्माण कर निरन्तर उससे अनावश्यक छेड़छाड़ कर अपने ऊपर आफत बुला रहे हैं। इससे प्रकृति की संस्कृति और मानवजीवन में संतुलन गड़बड़ा गया है। परिणाम स्वरूप केदारनाथ का बहुत बड़ा हिस्सा बाढ़ की चपेट में आ गया।
मानो पहाड़ी क्षेत्र में अलकनंदा, मंदाकिनी ने बाढ़ का रौद्र रूप धर इंसान से उसके किये अतिक्रमण का इंसान से बदला लिया है। अभी तो बरसात ढंग से शुरू भी नहीं हुई और नदियों के प्रवाह का यह बेपरवाह हाल। आसमान ने थोड़े ही समय में धरती पर इतना जल बरसा दिया कि पिछले अस्सी साल के रिकार्ड टूट गये। जलसैलाब महाप्रलय का इतना भयंकरतम रूप धर लाया कि न केवल जिंदा इंसान ने इसके प्रवाह में जलसमाधि ली, इसने ऐसा नाच नचाया कि कुछ ही समय में उत्तराखंड का हर हिस्सा पांचो धाम तहस-नहस हो गये। सैंकडों पुल रास्ते सड़कें सब टूट गये। सैंकडों गांव बह गये, आश्रम, घर, दुकान, मकान कई मंजिला होटल भवन इस बाढ़ के सैलाब की चपेट में आकर बह गये। बरसात के माह में पिछले कुछ वर्ष से पहाड़ों पर अधिक बारिश के साथ बाढ़ भी आ रही हैं। भूस्खलन की घटनायें भी अप्रत्याशित रूप से बढी हैं, जिस पर सरकार का ध्यान नहीं है। ये घटनायें भविष्य में आने वाली बाढ़ भूकम्प की चेतावनी है किंतु नेता नौकरशाह प्रशासन अब तक सोया पड़ा रहा। बाढ़ के बाद की स्थितियों से निबटने में भी प्रशासन की लचर नीति की खामियां उभर कर सबके सामर्ने आइं जो इस बात की गवाह है कि उसका आपदा प्रबंधन कितना कमजोर है।
स्थानीय निवासियों के दुख-दर्द को अनसुना करने के साथ पर्यावरणविदों की आवाज भी उसने अपने स्वार्थ हेतु व्याापारिक हितों तले दबा दी है। फिर मूक जंगल, पहाड़, नदी की कौन सुने। सच न जाने क्या है सुनने में तो यही आया कि बादल फटने की घटना के साथ ही गांधी सरोवर टूटा और उस सरोवर के टूटते ही जलसैलाब जिस तूफानी वेग से बहता हुआ मंदाकिनी की ओर बढ़ा, रास्ते में आई इंसान, पत्थर, मकान सबको अपने साथ बहा ले चला। हजारों जिंदगी इस मलबे भरी जलप्रलय का शिकार हो मौत की आगोश में समुद्र की तेज लहरों में डूबे हुये की भांति समा गई। केदारनाथ गये तीर्थयात्रियों पर सोलह जून की रात महाकाल के ताण्डव की रात ऐसी भारी पड़ी कि केदारनाथ से रामबाड़ा, गौरीकुण्ड तक कई हजार जिंदगियों को अपने साथ बहाती ले चली जिसकी तबाही का असर, श्रीनगर तक भी देखने में आया। मंदाकिनी ने केदारनाथ को जन-धन हानि का जितना बड़ा दंश दिया, बद्रीनाथ उससे उस समय तो बचा रहा किंतु बाद की बरसात ने उसको भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। उत्तरकाशी की अलकनन्दा में आई बाढ़ ने कम मुश्किलंे नहीं बर्ढ़ाइं, सैंकडों पुल टूट कर गिर गये। सड़कंे टूट गईं। हेमकुण्ड साहिब के गोविन्दघाट में भी पानी के सैलाब ने इंसानियत पर बहुत जुल्म ढाया। जलप्रलय की विनाशलीला के दृश्य कल्पना से भी परे इतने भयानक थे कि मजबूत से मजबूत दिलवाला लाशों के ढ़ेर को देखकर विचलित हो जाये। बचे हुये लोगों को लाशों के ऊपर चलकर आना पड़ा। उनके पास सोना पड़ा खाना पडा, जीना पड़ा। कैसी पहाड़ सी विकट स्थिति में जिया आदमी। इतनी भयानक विनाशलीला देखने में आई जो पहले कभी न देखी न सुनी गई होगी। मानों आज मंदाकिनी ने इंसान से लड़ने के लिये विकराल लहरों का रूप धर उसे मिटाने के लिये बह रही हो। या वह ऐसा कोई तूफान जिसकी लहरें सुनामी की लहरों से भी तीव्र गति से बही हो। जिंदगी के हर निशान को अपने साथ बहाती ले गई। जिसमें इतना कुछ बह गया कि अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। बाढ़ के सैलाब में परिवार के परिवार बह गये। आँखों के सामने खिलौनों की तरह सुख-समृद्धि के सामान कार मोटर साइकिल, ट्रक तक बह गये। बड़ी-बड़ी इमारतंे तिनके की तरह ढ़ह गई। गिनती तो सरकार इस विनाश लीला में मरने वालों की भी न बता सकी। रह गई जलप्रलय में मरने और मर-मरकर जीवन जीत लेने वालों की। जिंदगी की दर्दभरी दास्तानों की जो गिरते-पड़ते जंगल के वीरान में भटकते किसी प्रकार कई दिन तक भूखे रह कर अपनी जान बचाने में सफल रहे। बाढ़ की आंधी इतनी क्रूरता से सबको बहा ले गई कि धारा की चपेट में आने वाले को बचाने वाला भी बह गया। मंदाकिनी की चपेट में केदारनाथ घाटी पूरी तरह ध्वस्त हो गई। आदमी तो आदमी, विनाशलीला दिखाती इस जलप्रलय की चपेट में आने वाले अनेक गांव, शहर एक दूसरे से कट गये। महाकाल की यह जलप्रलय अपने पीछे छोड़ गई अपने रौद्र रूप के भयानक निशान। स्वयं को बचाने की भगदड़ में रात के अंधेरे में सब खो गये। जिंदा बचे रोते कलपते रह गये, अपनों को ढूंढते बच्चे बूढे-जवान, जिंदा इंसान जिनके अपनो को, मौत बन आई बाढ़ कुछ ही पल में हजारों को अपने आगोश में समा ले गई।