क्षणिकायें


यहाँ की नहीं वह, बाहर से आई है,
अपनाया अपनों सा, अतिथि सी सुहाई है,
किंतु उपकार की दे सजा
लूट ली देह उसने
आत्मा हमारी पराई है
बेहतर से बेहतर की
खोज में जुटे सब,
लगायें सुख सुविधा के अम्बार,
देह चलती नहीं, दौड़ता है मन,
बुने स्वप्न, अशांति और द्वन्द्व
में उलझा समाज हो रहा बीमार।
दूर जहाँ तक दृष्टि गई
दुःख दर्द की हवायें मिली।
समृ(ि के असीम सिंधु में भी
बहती पीड़ा और आहें मिली।
पंचतत्व से बनी यह काया,
पंचतत्व धर्म है भूमि
मैली नदियाँ, मैला अम्बर,
मैली हुयीं प्राण हवायें
हिंसक रूप धरा समृ(ि ने,
उड़ती देखी पाप की धूलि। ु