कुलदीप रावत


ऐतिहासिक नाटक नाक कटी राणी, माघी मां, टिंचरी मांई, जब गंगा पहाड़ पर चढ़ी, नींव के पत्थर जैसी काल जयी रचनाओं के रचनाकार कुलदीप रावत जी नहीं रहे। अभी-अभी यह दुखद समाचार प्राप्त हुआ कि विगत 14 अगस्त 2018 को दिल्ली, जनकपुरी में आपने अंतिम सांस ली। अकस्मात सुने इस समाचार पर विश्वास नहीं हुआ। किंतु आश्चर्य इस बात पर हुआ कि तमाम संचार माध्यमों की आधुनिक तकनीक के बाद भी एक ख्यातिनाम रचनाकार की मृत्यु की सूचना मिलने में भी पांच माह से अधिक का समय लग गया। पहाड़ी रचनाधर्मियों की ऐसी उपेक्षा? चिंतनीय! इतना अवश्य ज्ञात था कि कुलदीप जी दिल्ली में ही कहीं रह रहे हैं। लेकिन विगत लम्बे समय से प्रयास के बावजूद भी आपसे कोई सम्पर्क नहीं हो पाया। कुछ दिन पूर्व व्योमेश जुगरान जी से सन्दभर््िात आलेख में भी मैंने इस बात का उल्लेख किया था कि ''भूले नहीं हैं हम कि दिल्ली की माटी ने हमें कई विद्वान मनीषी दिये हैं लेकिन इनमें से अभी तक कुछ ही याद किये गये हैं। अभी हाल तक चर्चित कईई महत्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक 'कुलदीप रावत' आज दिल्ली में भी दिल्ली के नहीं हैं। सोशल मीडिया में तैरते इस आलेख पर किसी सज्जन कीदृदृष्टि पड़ी होगी लेकिन इन पंक्तियों पर दिल्ली के रचनाकार बन्धुओं ने कोई ध्यान देना भी उचित नही समझा। और अंततः वही हुआ जिसका अंदेशा था। पुण्यात्मा इस अवहेलना के लिए हम कलमकार बन्धुओं को क्षमा करें!
20 जनवरी 1931 को पौड़ी के निकट मंजाकोट, विकास क्षेत्र-कोट में आपका जन्म हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा पौड़ी गढ़वाल और तत्पश्चात उच्च शिक्षा दिल्ली में हुई। दिल्ली में ही अध्यापन कार्य किया। सन् 1974 में 'आदर्श शिक्षक' के पुरस्कार से सम्मानित हुए। लेखकीय  दृष्टि सदैव पहाड़ पर केन्द्रित रही तथा शैक्षिक कर्तव्यों से निवृत्त होकर आप पूर्णतः पहाड़ के लिए समर्पित भाव से न केवल लेखनरत रहे बल्कि समय-समय पर उत्तराखण्ड की शैक्षणिक संस्थाओं में निशुल्क नैतिक शिक्षा का ज्ञान बांट रहे थे। किन्तु शिक्षा, साहित्य के प्रति आपकी आस्था, आपकी साधना और निष्ठा का संज्ञान न कभी किसी समाचार पत्र ने लिया और न किसी संस्था ने। अवकाश प्राप्ति के बाद हिमाचल प्रदेश तथा कुमाऊं -गढ़वाल क्षेत्र के अन्तस्थ एवं दर्शनीय स्थलों की लगभग 400 मील की पैदल यात्रायें की। जिनमें सन् 1955 में दिल्ली से बद्रीनाथ तक साइकिल यात्रा प्रमुख रही। लगभग एक वर्ष पूर्व आपसे अंतिम मुलाकात हुई थी। आपने उत्तराखण्ड से सम्बन्धित उक्त यात्रा संस्मरणों का संकलन 'भ्रमण और संस्मरण ' तथा एक अन्य आंचलिक उपन्यास 'विसर्जन और सत्यव्रत' को अंतिम रूप दिये जाये का उल्लेख किया था। उसके बाद आपसे सम्पर्क नहीं हो पाया। ज्ञात हुआ कि आपकी अंतिम इच्छा नेत्रदान और देहदान की थी। जिसे पारिवारिक जनों की देखरेख में स-सम्मान 'सक्षम' संस्था द्वारा पूरा किया गया। इस प्रकार आपने शिक्षा, साहित्य ही नहीं अपितु देहदान का योगदान देकर समाज में एक अलग आदर्श स्थापित किया है। जिसे युगों तक याद किया जाता रहेगा। आप जैसे )षि तुल्य, कर्मठ व्यक्ति का हमारे बीच से चला जाना अपूर्णीय क्षति है। आपका रचनाक्रम हमें सदैव पे्ररणा देता रहेगा। ईईश्वर आपकी आत्मा को शान्ति तथा शोकाकुल परिवार को धैर्य धारण करने की क्षमता प्रदान करे।