मुक्तक

प्याज फिर कोढ़ पर खाज़
प्याज फिर तीतर पर बाज़
आंख नहीं दिल रोता है,
प्याज फिर टुंडों के सिर ताज़।


कुछ न कहो बस सहते रहो
कुछ न कहो बस जलते रहो
अग्निपथ पर जीवन के,
कुछ न कहो बस चलते रहो।


आंधियों में आम जैसे
मंडियों में दाम जैसे
जिन्दगी ऐसे ही गुजरी,
केदार में शाम जैसे


वार्तायें चलती रहें क्या हर्ज है
गोलियां दगती रहें क्या हर्ज है
अमन की थालियों में बारूद की,
रोटियां पकती रहें क्या हर्ज है।


अब रोशनी कहां प्यार में
तम ही तम व्यवहार में
गरेबां चाक हो गया
स्वार्थ के मायाबाजार में।


सोच पर ताले पड़े हैं, क्या करें
जेहन में जाले पड़े हें क्या करें
हमने तो मांगा था उजाला या रब
सूरज सब काले पड़े हैं क्या करें।


कबके पककर पीला आम हो गये तुम
कबके गिरकर टूटा जाम हो गये तुम
बरछी बन चुभती है, ख्वाबों की किरचें
कबके ढ़लकर ढ़लती शाम हो गये तुम