नए सवाल

हमे अपने देश की भौगोलिक-सांस्कृतिक वातावरण को भी दृष्टि में रखना होगा। भारत एक विशाल जनसंख्या वाला उष्ण कटबंधीय देश है जिसमें शारीरिक प्राढ़ता के चिह्नकुछ जल्दी ही दिखाई देने लगते हैं। परिवार में बच्चों की संख्या कम होने से खानपान में भी बहुत पहले से बहुत अधिक सुधार आया है। टी.वी. ने भी रहन-सहन के बारे में सजग रहने का वातावरण बुना है। मोबाईलफोन, कम्प्यूटर, टी.वी. इंटरनेट बच्चों के सामने उस संसार को भी सहज बना दिया जिनसे कि पहले समय में परिवार बचचों के मन में उभरते वासना के प्रश्नों को नियंत्रित करने मे हर समय ध्यान रखता था। आज माता पिता दोनों कमाने निकल पड़े हैं। बच्चे खाली समय में क्या सोच रहे हैं, क्या कर रहे हैं, उन्हें कुछ पता नहीं चलता। उनके पास जब तक खबर पहुंचती है, तब तक सब कुछ हाथ से निकल चुका होता है। घर-परिवार में बच्चों की जिज्ञासा शांत करने वाले बड़े बूढ़े भी उनसे दूर हो गये हैं, जो उनमें अच्दे संसकार की नींव रख उनहें अच्छा नागरिक बना सकते हैं। अपनी आजादी में बाधक मान पिता को बचचों के माता-पिता कभी भी अपने से पृथक रहने को मजबूर कर चुके हैं। कौन है इन बच्चों के मन में उभर रहे संसार के विस्तार को समझने वाला। मनोमस्तिष्क को उलझाती कुंठाओं-गुत्थियों से निजात दिलाने वाला?
यौनिकता रोग नहीं है, यह इंसान के स्वाभाविक विकास की सीढ़ी है। इससे संम्बधित कोई भी प्रश्न करते या समाधान ढूंढ़ते हुये हमें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिये। बलात्कार, अनाचार या व्यभिचार, इसे कुछ भी नाम दो, यौनिकता को कुचलना नहीं है, बचचों को उसके बारे में सही दिशानिर्देश दे उनकी राह को सही रचनात्मक दिशा में मोड़ने की जरूरत है। हमें अपनी दृष्टि परिवर्तित करनी होगी, स्त्री को उत्पाद न मानकर उसके प्रति जीवत्व भाव रख मानस की नई संरचना करने की आज महती आवश्यकता है। 
सृष्टि की रचना ही विधाता ने ऐसी की है कि उसमें विपरीत सैक्स के प्रति आकषर्रण बना रहे, यह एक सार्वभोम सच्चाई है। अतः समाज में उपजी बलात्कार या व्यभिचार की समस्या नई नहीं है। पहले कभी इसका रूप हतना हिंसक व विकृत नहीं हुआ था जैसा कि आज देखने को मिल रहा है। समय के साथ समाज के मनो -विज्ञान मे आये असर का भी यह परिणाम हो सकता है अतः इसका ईलाज भी हम समाज के मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी ढंूढ़े तो बेहतर समाधान मिलने की संभावना हो सकती है। अन्यथा एक के बाद एक दुर्घटना हमे सचेत करती रहेगी, और हम नारी नारी जगत के सम्मान का खिलवाड़ होने से बचा नहीं पायेंगे, परिणाम स्वरूप वह दिन दूर नहीं होगा जब स्त्री-पुरूष में आई दूरियां समाज के लिये अभिशाप बन हमें दिखाई देंगी। इस विषय पर की जा रही चर्चाओं मेंसतही सोच उभर कर आनाहमारे शैक्षिक और नैतिक अधोपतनका आईना खोल कर रख दे रहा है। कई बार ऐसा लगता है कि नारी के साथ दास जैसाबर्ताव करके अपने अन्यायी स्वरूप को दिखा पुरानी को त्याग किन्हीं नई बेड़ियों में जकड़ने की दिशा की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं हम। बेहतर हो कि हम स्त्री-पुरूष को समान धरातल पर रख अपने चिंतन को धार दे, इसके उचित न्यायिक समाधान खोजें। पुरूष के मानवीय स्वरूप की भांति स्त्री के मानवीय पक्ष को सहज स्वीकार कर उसके सम्मान, सुख, सुरक्षा, तथा स्वावलम्भी एवं प्रगतिशील जीवन जीने के अधिकार दिये जाने की वकालत में सहभागी बनें।
आकर्षण को आकर्षण तक ही सीमित रख जब हम ऐसे नियम बनाने में सफल हो जायेंगे कि कोई इस भाव का न बेजा इस्तेमाल कर पाये और न ही उसका दमन कर सकें समाज को व्यवस्थित बनाये रखने के लिये सोच को नई दिशा देने की आवश्यकता है, नारी जाति के संरक्षण हेतु मूल्यपरक नियमन व संयमन के लिये पारिवारिक व शैक्षिक पाठ्यक्रम में बदलाव लाने की आवश्यकता है। साथ ही यह भी जरूरी है कि परिवार को सामाजिकता के घेरे में लरने के लिये कुछ ऐसी अनिवार्य संरचनायें दें कि अपने आसपास के प्रति मन में वही पुराना अपनत्व का  भाव जगे। पड़ोस से रिश्ता ऐसा पावनता लिये हुये हो कि हर परिवार को अकेलेपन में जीते हुये भी अपनेपन की कमी महसूस न हो। आज माता-पिता धनार्जन की जिस दौड़ में लगे हैं उसने उन्हें अत्यन्त स्वार्थी बना रखा है। कोई देसरे के बारे में जब सोचता ही नहीं तो कुछ करना तो दूर की बात है। फिर दूसरा भी उनका ध्यान क्योंकर रखेगा?हमारे समाज में पाये जाने वाली सामाजिकता का ह्रास रोकने के लिये हम जिस दिन कामयाब हो गये उस दिन मानवीय चरित्र उठता हुआ दिखाई देने लगेगा। जीवन में उसके चिह्न खुशहाली के रूप में नजर आयेंगे।