नंदा देवी राजजात यात्रा :एक संस्मरण


अब लौटने वाले यात्रियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। कइयों ने पूछने पर बताया कि पूजा समाप्त हो चुकी है। वहां कुछ भी नहीं है। कोहरा इतना घना हुआ है कि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मौसम का मिजाज भी बिगड़ता जा रहा था। पर हमने निश्चय किया कि थोड़ा आगे और चलते हैं। अभी हम कुछ ही दूर गये होंगे कि देखा लोग एक जगह पर पूजा कर रहे हैं। हम सबने पूजा करने की जिम्मेदारी पाण्डे जी पर डाल दी। पाण्डे जी ने जूते-मोजे उतारकर हाथ पैर का पृच्छालन कर पूजा की थाली निकाली। हम सभी पिट्ठुओं से पूजा का सामान व प्रसाद निकालकर लाना नहीं भूले थे। सभी थैलियां पाण्डे जी को दे दी गयी। तकरीबन दो घण्टे बाद हम लोग तप्पड़ में पहुँच पाये। वहां कुछ औश्र लोग भी बैठे थे तथा कुछ चलने की तैयारी कर रहे थे। चारों ओर घना कोहरा छाया था। कुछ पता नही चल रहा था कि सुबह हम किधर से आये थे वे किस दिशा की ओर बढ़े थे तथा अब किधर जाना हैै। जो लोग चलने की तैयारी में थे उन्होंने बताया कि यहां से नाक की सीध में नीचे उतरना है तथा कुछ लोग उतरकर चले भी गये हैं। बीच में जब कोहरा हल्का ा छंटा तो हमें नीचे घाटी की ओर कुछ लोग उतरते दिखाई दिये। हालांकि कोहरे ने फिर जल्दी ही घाटी को पूरी तरह ढक दिया। अब पहले की तरह कुछ भी नहीं दिखायी दे रहा था। जो लोग चलने को तैयार थे, वे बोले आप लोग भी सामान उठाइये, साथ-साथ उतरते हैं। हमने कहा आप लोग चलें हम अपने दो साथियों का इन्तजार कर रहे हैं, उनके आने पर ही हम सब साथ-साथ निकलेंगे। अब उस स्थान पर हम सात लोगों के अलावा आठ-दस आदमी और रह गये हैं। वे लोग बैठे हुये नमकीन बिस्कुट खा रहे थे बिल्कुल बेफिक्र। लगभग पन्देह-बीस मिनट गुजरने के बाद राजेश जैन व अजय शेखर बहुगुणा ने पहुँचकर हमार इन्जार की घड़ियों पर विराम लगाया। वे आते ही बोले क्या देशपाल व प्रवीण नहीं पहुँचे? हमने बताया कि हम उन्हें एडवान्स पार्टी के रूप में आगे भेज चुके हैं। फिर हम सबने पिट्ठू कसे व चलने को तैयार हो गये। जैसे ही हम चलने को हुये उसी  समय चार अन्य युवक वहां आ गये। उनकी ओर देखकर पूछा क्या आप लोग भी इस रास्ते चन्दानिया घाट चल रहे हैं, उनमें से एक न उत्तर दिया हां, हम लोग होमकुण्ड जाते समय अपना सामान यहीं छोड़ गये थे इसलिये यहां तक वापस आना पड़ा। फिर वे एक ओर रखा अपना सामान उठाकर ले आये। अब हमारा यह ग्यारह आदमियों का दल नीचे ढलान की ओर उतरने लगा। हमसे पहले नीचे उतरे हुये लोगों के पैरों से दबी हुयी घास से हमें रास्ते का अनुमान लग रहा था। लेकिन जैसे-जैसे हम नीचे उतरते गये, दबी हुयी घास कई मित्र दिशाओं की ओर जाने वाले रास्ते का संकेत कर रही थी। शायद घने कोहरे के कारण आगे गये हुये उतरने का प्रयास कर रहे थे। बीच-बीच में हम साथ वालों को हिदायत भी दे रहे थे कि सब एक दूसरे का हाथ पकड़ कर साथ-साथ चलें क्योंकि कोहरा बहुत घना था। यदि धोखे से भी कोई एक आंखों से ओझल हो गया था तो उसको ढूंढ पाना आसान था। बीच-बीच में कभी कोहरा छंेटता तो बहुत नीचे तक हरी घास से युक्त घाटी दिखाई देती, लेकिन हमसे आगे गये हुये यात्रियों में से एक भी नहीं दिखाई दिया। हम सीधे नीचे उतरते ही जा रहे थे। थोड़ी देर बाद घनी घास वाला रास्ता समाप्त हो गया अब यह लगाना मुश्किल था कि किधर को चलना है। हम अनुमान के आधार पर आगे चलते रहे।
थोड़ी देर बाद कोहरे ने छंटना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे आस-पास फिर आमने-सामने का विशाल क्षेत्र दिखने लगा। थोड़ी ही देर में कोहरा बिल्कुल छंट चुका था। हमारे ठीक नीचे लगभग एक कि.मी. की दूरी पर नन्दाकिनी नदी प्रवाहित हो रही थी। नदी के उस पार तकरीबन हमारी ही ऊंचाई पर बने समान्तर रास्ते पर यात्रियों की भीड़ चली आ रही थी। हम शिला समुद्र ग्लेशियर के दायीं ओर की पहाड़ी पर लगभग आधा कि.मी. दूरी पर खड़े थे। नीचे नदी के इस ओर ही लगभग 25-30 आदमियों का झुण्ड दिख रहा था। शायद ये वो लोग थे जो हमसे पहले नीचे उतर कर आये थे। इनमें ही हमारे साथी देशपाल व प्रवीण जोशी भी होंगे, ऐसा हमारा अनुमान था। बहुत सारे लोगों के हाथ में भोज पत्र की छंतोंलियों के टुकड़े थे। रिंगाल की दंतोलियां तो वहीं चढ़ा दी जाती है। केवल भोजपत्र ही वापस लायी जाती है।
हमारे दल के साथी राजेश व अजय शेखर कर रहे थे कि सब लोग अपने-अपने अंगोछे बांध कर लम्बा रस्सा सा बना लेते हैं। व इस रस्से को एक दूसरे की कमर में बांधकर नदी पार करने का प्रयास करते हैं। तब तक चमोली जी बोल पड़े,क्यों पागलों वाली बात करते हो? नन्दाकिनी का तेज प्रवाह व चैड़ाई को देखो इसे तरह किसी भी हालत में पार नहीं किया जा सकता। और यह सच भी प्रतीत होता था, क्योंकि दूर-दूर तक नदी की उफनती लहरोें का वेग कम नहीं दिख रहा था। इस बीच भीड़ से दो-तीन व्यक्ति एक साथ बोले, भाईसाहब हम नदी के किनारे-किनारे आधा कि.मी. आगे व इतना ही पीछे तक देखकर आ गये हैं, नदी कहीं से भी पार नहीं हो सकती। तब तक कोई बोला जो भी निनर्णय लेना है। जल्दी लो, पिछले 24 घण्टे से ऊपर पहाड़ी पर लगातार वर्षा हो रही है। भय से मेरे दिल की धड़कन तेज हो गयी थी। मैं डर से कांपते हुये एक-एक कदम बढ़ रहा था। लगता था कि अगला कदम रखते ही चट्टान हमें लेकर ग्लेशियर में समा जायेगी। मुझे हर पल मौत नजर आ रही थी। लगभग आधा कि. मी. चैड़ाई वाला यह ग्लेशियर बहुत चैड़ा प्रतीत हो रहा था। पक्की जमीन का किनारा नजदीक आने के बजाय दूर जाता लग रहा था। मैं मन ही मन देवी नन्दा का स्मरण कर रहा था, माँ आज मुझे व मेरे साथियों को बचा ले, मैं तेरा ये उपकार जिन्दगी भर न भूलंूगा। हमारे आगे-आगे चल रहे दिनेश व संजय ने सबसे ग्लेशियर पार किया वे सकुशल दूसरी तरफ पहुँच चुके थे। चमोली जी भी लगभग किनारे ही थे। किन्तु राजेश अजय शुखर व मुझे अभी बीच पच्चीस मीटर की दूरी तय करनी थी। डरते-डरते हम आगे बढ़ते रहे। अब लग रहा था कि दूरी घट रही है। फिर जैसे-तैसे एक-एक कर हम लोगों ने भी वह खतरनाक ग्लेशियर पार किया। उस पार पहंुचते ही मैने राहत की सांस ली व अपने को संयत किया। 
नन्दाकिनी नदी पर बने लकड़ी के पुल से होते हुये यात्री उस तरफ से इधर आ रहे थे। इस बीच बादल भी घिर आये व बून्दा-बान्दी शुरू हो गयी। अलबत्ता एक बड़ी सी तिरछी चट्टान के नीचे कुछ लोग बैठे थे इस बीच मैने चट्टान के नीचे बैठे लोगों से पूछा कि क्या यही चन्दाकिया घाट है। उन्होंने बताया कि चन्दानिया घाट तो दूसरी तरफ है जिधर से यात्री आ रहे थे। फिर हमने उस तरफ से आने वाले यात्रियों से पूछ ताछ की। हमें बताया कि चन्दानिया घाट में केवल तीन टैण्ट लगे हैं। एक पड़ाव अधिकार का एक कोई मि0 अरूण कपूर हैं श्रीनगर के तथा दूसरा फाॅरेस्ट वालों का तथा एक और टैण्ट लगा है। इस जानकारी से हमें बहुत हैरानी हुयी क्योंकि प्रशासन द्वारा वितरित यात्रा चार्ट में यात्रा का सालहवां पड़ाव चन्दानिया घाट दर्शाया गया था। हमे लोग अनिश्चय की स्थिति में थे कि क्या करें? हमारे पोर्टरों का कहीं अता-पता न था और न ही देशपाल व प्रवीण का। हम लोग अनिश्चय की स्थिति में थे कि क्या करें? हमारे पोर्टरों का कहीं अता-पता न था और न ही देशपाल व प्रवीण का। इस बीच बारिश बहुत तेज हो चुकी थी। यात्री लोग तेज कदमों से आगे बढ़ रहे थे। कोई कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं था। आखिर कोई बताता भी क्या, सभी जल्द से जल्द अगले पड़ाव में पहंुच जाना चाहते थे। पर किसी को ये पता नहीं था कि अगला पड़ाव यहां से कितनी दूर है।
इसी बीच मेरे एक परिचित दुर्गेश नौटियाल उधर से आते दिखाई दिये। वे बारिश से पूरी तरह भीगे हुये थे तथा एक बड़ा स पिट्ठू लादे चले आ रहे थे। मैंने उन्हें रोककर पूछा कि क्या उन्होंने चन्दानिया घाट में हमारे साथियों को भी देखा था? या वहां केवल तीन टैण्ट ही क्यों लगे हैं जबकि आज का पड़ाव तो वहीं निर्धारित था। उन्होंने बताया कि चन्दानिया घाट में और टैण्ट लगाने की जगह नहीं है वह एक छोटा सा तप्पड़ है। रही आपके साथियों की बात तो मैने उन्हें नहीं देखा, मैं खुद अपने साथियों को ढंूढ रहा हूं। हमारा एक साथ चोट लगने से घायल हो गया है। मैं उसका भी पिट्ठू लादकर आ रहा हूं। अब पीछे उस तक सहायता पहंुचानी है। यहां प्रशासन या मेडिकल की कोई टीम है या नहीं मैं इस वक्त का पता करने आगे जा रहा हूं चूंकि समय भी तेजी से खिसकता जा रहा है इसलिये मैं बहुत  चिन्तित हूँ।
हम लोग चलते-चलते बात कर रहे थे, शाम भी होने वाली थी इसलिये हम चाहते थे कि उजाला रहते-रहते अधिक से अधिक दूरी तय कर ली जाय। थोड़ी देर बाद रास्ते के किनारे की जगह पर तीन चार टैन्ट लगे दिखाई दिये। एक टैन्ट के अन्दर चाय पकौड़ी बन रही थी। पहले तो हम लोगों ने बाकी टैन्टों में जाकर पता किया कि कहीं वहां हमारे साथी तो नहीं टिके हैं, हमें निराशा ही हाथ लगी। फिर सोचा कि पकोड़ी खा लेते हैं, भूख भी बहुत तेज लग रही थी पूछने पर दुकानदार ने 15 रूपए की जरा सी पकोड़ियां बतायी। पर क्या करते मजबूरी थी गनीमत थी कि उस जंगल में खाने को कुछ मिल भी रहा था। खैर 90 रूपए की छः कटोरियां ले ली गयी जों कि एक झटके में खत्म हो गयीं। इस बीच हमने दुकानदार से पूछा तो उसने बताया कि चार पांच कि.मी. आगे पहाड़ है वहां रहने को मिल सकता है। हम लोग फिर रास्ते लग लिये। बारिश थम गयी थी पर आसमान में अब भी बादल छाये हुये थे। 
अब धीरे-धीरे अन्धेरा भी छाता जा रहा था और बस्ती के चिह्नन दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे थे। रूकी हुयी बून्दा-बान्दी फिर से शुरू हो चुकी थी जो कि धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी। बदन तो पहले से ही पूरा भीग चुका था पिट्ठू भी गीले होने के कारण बहुत वजनी हो गये थे जिससे दोनों कन्धे बुरी तरह से दर्द करने लगे। अन्धेरा बढ़ जाने पर हम लोगों ने टार्च निकाल ली। किन्तु टार्चो से इतनी रोशनी नहीं मिल रही थी कि रास्ते के गढ्ढे या पत्थर स्पष्ट दिखाई दे। जंगल भी बहुत घना था। हम लोग संभल-संभल कर कदम बढ़ा रहे थे। तभी पीछे से एक तेज रोशनी का उजाला आता दिखा। हम लोगों ने रूक कर उजाला नजदीक आ जाने का इन्तजार किया। एक आदमी हाथ में बड़ी गैस लाइट लेकर चल रहा था जिसके पीछे-पीछे दस बारह आदमियों का जत्थ्ज्ञा आ रहा था। पूछने पर पता चला कि डी.एम. साहब खुद कीचड़ से लथ-पथ बने किसी तरह आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे। कुछ देर पहले हम लोग आपस में बात कर रहे थे कि यदि पड़ाव अधिकारी से भेंट हो जाय तो उनकी ढंग से क्लास ली जाय परन्तु उनकी खराब हालत हमें उन पर तरस आने लगा। पर अब हमारी कोशिश यही थी कि हम भी गैस के पर्याप्त उजाले के साथ-साथ आगे चलते रहे। तकरीबन 2-3 कि.मी. की दूरी तय करने के बाद एक जगह पर कुछ दिखा। रास्ते के एक ओर दो-टैन्ट लगे थे। हमने वहां रूक कर अपने साथियों के विषय में पूछा। परन्तु उत्तर फिर नकारात्मक मिला। कुछ समय बाद हम जामुन डाली पहंुच गये थे। यहां पर बीस पच्चीस टैन्ट लगे हुये थे। पर धुप्प अन्धेरे में अपना टैन्ट तलाशना आसान काम न था। हम प्रत्येक टैन्ट के पास जाकर देख रहे थे देशपाल प्रवीण कटक बहादुर मन बहादुर पद्म बहादुर टीका बहादुर परन्तु हमें कहीं से भी अशाजनक उत्तर न मिला। 
6 सितम्बर 2000, सुबह उजाला होने से पहले ही जो जैसा था वैसा ही हालत में आगे कि लिये चल दिया। चलो यहां पर रात तो गुजर गयी। उजाले से थोड़ी ताकत मिली। हम लोग 2-3 कि.मी. चल कर लाटा खोपड़ी पहंुचे यहां एक छोटे मैदान में 7-8 टैन्ट लगे दिखाई दिये। अचानक मेरी नजर देशपाल व प्रवीण पर पड़ी। वे दोनों भी जोर से चिल्लाये भा आ इ ई सा अ ह..... ब फिर सभी एक दूसरे के गले मिले। दोस्तो के सकुशल मिल जाने पर हम रात की सारी वेदना सारा कष्ट भूल गये। उन्होंने बताया कि रात उन्हें एक टैन्ट में रहने को मिल गया था। लेकिन हमारे पोर्टरों का दूर-दूर तक कुछ पता नहीं था शायद वे भी कहीं न कहीं सकुशल होंगे ऐसा सोचकर हमने दिल को तसल्ली दी। तभी पता लगा कि पास में एक टैन्टनुमा दुकान में चाय मिल रही है। फिर हम चाय पीने वहां चले गये। चाय पीते-पीते हम लोगों ने कल रात की आपबीती एक दूसरे को सुनायी। चाय पीकर हम लोगों ने फिर आगे चलने की तैयारी कर दी। थोड़ी ही देर बाद हम लोग रिंगाल (बाँस की पहाड़ी प्रजाति) के जंगल के बीच से होकर गुजर रहे थे। रास्ता ढलान का व फिसलनदार कीचड़ से भरा हुआ था। रास्ते मंें लगभग सभी लोग फिसल रहे थे। थोड़ी ही देर में सारे कपड़े व शरीर कीचड़-मिट्टी से लथ-पथ हो गये। रिंगाल का यह जंगल काफी लम्बा प्रतीत होता था। लगभग 2-3 कि.मी. तक हम सारे रास्ते भर गिरते फिसलते रहे तब कह जाकर चढ़ाई का रास्ता आया। यहां गनीमत थी कि फिसलनदार मिट्टी न थी। लगातार चढ़ाई का रास्ता था। थोड़ी ही देर में हम सभी हांफने लगे। एक-एक कदम उठाना मुश्किल लग रहा था। कीचड़ से जूते भी भारी हो रहे थे। हर कोई यहीं पूछ रहा था कि अभी कितना औश्र चलना है। इस बीच किसी ने बताया 6-7 कि.मी. आगे तातड़ गांव आता है। वहां दुकान में खाने पीने को कुछ न कुछ जरूर मिल जायेगा। परन्तु 6-7 कि.मी. और चलना ऐसा लग रहा था कि जैसे 60-70 कि.मी. चलना हो। परन्तु और क्या किया जा सकता था, आगे चलते रहने के अलावा और कोई विकल्प भी न था। अतः हम जैसे-तैसे आगे बढ़ते रहे। एक बजे के करीब हम लोग तातड़ पहंुचे। लेकिन वहां पानी की केवल दो छोटी दुकानें थी उनका भी खाने-पीने का सारा सामान बिक चुका था। चाय के लिये दूध भी समाप्त हो चुका था। परन्तु तसल्ली थी कि पांचवे दिन गांव मकान व आबादी देखने को मिल रही थी। थोड़ा मनौवैज्ञानिक बल मिला है कि अब हम आबादी के बीच में हैं। हालांकि सितोल अभी यहां से 2 कि.मी. दूर था। हम लोगों ने सितोल चलने का फैसला किया जहां इतना कष्ट सहा वहां थोड़ा और सही। तातड़ गांव की सीमा समाप्त होते ही देवदार के घने वृक्षों के बीच में थी। सिंह का मन्दिर है। यहां के पुजारी आने वाले यात्रियों का तिलक लगाकर स्वागत कर रहे थे। यहां से सितोल के दायीं ओर से होकर गुजरता है। फिर हल्की सी चढ़ाई के बाद हम सितोल पहंुच गये। अगली सुबह 8 सितम्बर 2000 को हम लोग आराम से सोकर उठे। दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर सारा सामान पैक कर लिया गया। फिर एक दुकान में जाकर पूड़ी छोले का नाश्ता व चाय ली गयी। उसके बाद यात्रा के अठारहवें पड़ाव घाट के लिये चल पड़े। सितोल से घाट 25 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। सितोल से कुछ दूरी तक तो चढ़ाई का रास्ता है फिर गंगोरी तक ढलान है।
हम लोग 4 बजे के लगभग थके हारे घाट पहँुचे। आज सातवें दिन जाकर पुनः हमारा सड़क सम्यता से साक्षात्कार हुआ थां आज घाट में व्यापार महासंघ व श्री राधाकृष्ण भट्टजी के सौजन्य से यात्रियों को निशुल्क भोजन कराया जा सकता था। हम लोगों ने भी निशुल्क कैम्प में तृप्त होकर भेाजन किया। भरपेट भोजन व थोड़ी देर आराम कर लेने से हम लोग बड़ी राहत महसूस कर रहे थे। फिर घाट से उसी शाम को को हम बस पकड़ कर श्रीनगर वापसी के लिये रवाना हो गये। घाट से हमें रूद्रप्रयाग तक के लिये ही मिली। हम लोग रात 8 बजे रूद्रप्रयाग पहंुचे। यहां नन्दा देवी राजजात से वापस लौटे यात्रियों का जमावड़ा लगा हुआ था तथा सभी आगे के लिये बस या टैक्सी का पता कर रहे थे। अन्ततः एक बस वाला श्रीनगर जाने को तैयार हो गया। पलक झपकते ही बस यात्रियों से ठसाठस भर गयी। फिर नन्दा देवी की जय के साथ हमारी बस श्रीनगर के लिये चल पड़ी। हम लोग मन ही मन नन्दा को प्रणाम कर धन्यवाद ज्ञापित  कर रहे थे कि खतरनाक स्थितियों भयंकर जोखिम व विषम परिस्थितियों की त्रासदी झेलकर भी हम सभी सुरक्षित थे व थोड़ी ही देर में सकुशल अपने-अपने घरों को पहंुचने वाले थे।
लेकिन हमारी यात्रा की और दुश्वारियां अभी हमारा आगे भी इन्तजार रह रही थी। रूद्रप्रयाग से मात्र 16 कि.मी. की दूरी पर स्थित खांकरा नामक स्थान पर पहंुचने पर पता चला कि लगातार बारिश के कारण भयंकर भूस्खलन हुआ है। फलतः यहां सड़क बहुत देर से बन्द है। यूं तो रात के अन्धेरे में कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा था लेकिन दूर-दूर तक फैले यात्रियों के झुण्ड देखकर एहसास हो गया कि आगे वाहनों की लम्बी कतार लगी होगी। फिर पूछताछ करने पर पता चला कि खांकरा गधेरे के पुल पार ऊपर पहाड़ी से लगातार मलबा आ रहा है। दोनों तरफ अनेक वाहन फंसे हुए हैं। खांकरा जैसी छोटी जगह में इतने ढेर सारे लोगों के रहने व खाने की व्यवस्था हो पाना नितान्त असंभव था। लोग इधर-उधर भटकते पूछताछ कर रहे थे। किसी की भी समझ में न आ रहा था कि अब इस रात के अन्धेरे में क्या किया जाय। तभी किसी ने सुझाव दिया कि बस वाले को रूद्रप्रयाग से यहां तक का किराया भुगतान को, अपने-अपने पिट्टू कन्धे पर कसो व पैदल रास्ता पार कर उस तरफ खड़ेक किसी वाहन से श्रीनगर तक चलने का जुगाड़ किया जाय। तभी किसी ने बताया कि आप उस पार पैदल पहीं जा सकते। ऊपर पहाड़ी से मलबा व चट्टानें लगातार खिसक कर नीचे आ रही है। ऐसे में पार जाने की कोशिश करना जान जोखिम में डालना है। किन्तु तभी एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया कि मैं आपको नीचे गधेरे में ले जाकर फिर शार्ट कट से उस पार सड़क तक पहंुचा दूंगा, आप लोग मेरे साथ आए। अतः हम लोग उस अंधेरे में ढलान के रास्ते पर उतरकर व पुनः फिर चढ़ाई चढ़कर दूसरी ओर आ गए। रात का भयानक अन्धेरा गधेरे के बढ़े हुए पानी की तेज आवाज व बीच-बीच में ऊपर पहाड़ी से लुढ़कते पत्थरों की गड़गबड़ाहट ने हमारी यात्रा के अन्तिम चरण को भी रोमांचकारी बना देने में कोई कसर न छोड़ी। खैर, किसी तरह इस तरफ सड़क पर आकर हमें वाहनों की लम्बी कतार खड़ी मिली। फिर एक ट्रक वाला काफी मान मनोबल के बाद श्रीनगर चलने को तैयार हुआ। रात लगभग 12 बजे के पुष्प अंधेरे में हम लोग श्रीनगर पहंुचे।
आज भी रोमान्चकारी यात्रा की सिहरन उत्पन्न करने वाली उन जोखिमपूर्ण घटनाओं के भयानक दृश्यों के समरण मात्र से ही मन में कम्पन्न होने लगता है। साथ ही कौतूहलपूर्ण जिज्ञासा भी उत्पन्न होती है कि अगली नन्दा देवी राज जात में पुनः भाग लेने का अवसर कब नजदीक आयेगा।