निबंधना (पुस्तक समीक्षा )


डाॅ॰ मृदुल जोशी द्वारा लिखे गये शोधपरक लेखो का संग्रह 'निबंधना' शोध-पत्रों और निबन्धों की शैली का समन्वित रूप है। ये निबन्ध विचारात्मक निबन्ध है। डाॅ॰ जोशी ने सर्वत्र विषय का प्रतिपादन एवं विवेचन सैद्धान्तिक व व्यावहारिक दोनों ही दृष्टियों से किया है परन्तु वे अपने विवेचन में तटस्थ भी रही है। उनके विषय वैदुषिक ढंग के है, पर शैली में निबन्ध लेखन का लालित्य है या यों कहिए कि उनके निबन्धों में साहित्यकार जोशी एवं अध्यापिका जोशी के व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप दिखायी देती है।
गद्य को कवियों की कसौटी कहा गया है, प्राचीन काल में गद्य द्वारा ही कवियों की प्रतिभा की परख होती थी , संस्कृत में कहा गया है ''गद्य कवीनां निकषं वदन्ति'' आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ''यदि गद्य कवियों की कसौटी है तो निबन्ध को हम गद्य की कसौटी मान सकते हैं'' निबन्ध हम उस गद्य रचना को कह सकते हैं जिसमें लगभग एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का प्रतिपाद कर सकें, इसमें स्वछन्दता, सौष्ठव, सजीवता तथा निजीपन के साथ-साथ आवश्यक संगति होनी चाहिए, गद्यकार की भाषा की व्याकरणिक छानबीन का स्वरूप कवि की भाषा के व्याकरणिक एवं भाषा वैज्ञानिक स्वरूप एवं विश्लेषण से पर्याप्त भिन्न हुआ करता है। गद्यकार की भाषा की परख पूर्व निर्दिष्ट व्याकरण की कसौटी पर ही समीचीन एवं संगत रूपेण कर सकते हैं-
डाॅ॰ मृदुल जोशी एक तेजस्वी लेखिका हैं, भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार है, उनकी शब्द चयन की विलक्षणता अद्वितीय है तथा भाषा सुगठित परिमार्जित एवं सशक्त है। उसमें भाव प्रकाशन की शक्ति एवं बोधगम्यता दोनों गुण हैं। वाक्य संगठन, अनुच्छेद विभाजन, विराम चिन्हों की वे पक्षपाती हैं, भाषा मधुर है, ओजस्विनी एवं भावानुकूल है तथा उसमें सर्वत्र प्रवाह और रूचि है। विदेशी शब्दों या नामों का प्रयोग कम हुआ है। यद्यपि प्रत्येक लेखक या कवि की रचनाओं पर उसके व्यक्तित्व, सहृदयता, भावुकता, बहुज्ञता, समकालीन परिस्थितियों का स्पष्ट प्रभाव मिलता है परन्तु डाॅ॰ जोशी के लेखों में यह प्रभाव अधिक  दृष्टिगोचर होता है, शैली का अर्थ पद्धति कौशल या वाक्य रचना का ढंग है। जिसके द्वारा किसी वस्तु का शील, स्वभाव प्रकट होता है, डाॅ मृदुल जोशी ने अपने निबन्धों में कुशल शब्द शिल्पी भाषा-शैली के मर्मज्ञ के रूप में निबन्धों में भाव प्रकाशन के प्रस्तुतीकरण के रूप में शैली के विविधरूपों का प्रयोग किया है-
शोधपरक लेखों में गवेषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है, इस शैली में सर्वत्र उनकी अनुसंधान की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। ''संतों का व्यक्तित्व सच्चे अर्थों में संवेदनशील था। उनका मानस स्वच्छ और उदार था। इसलिए उनका साहित्य जन-भावनाओं की सहज प्रवृत्तियों, परिस्थियों, विकृतियों और विडम्बनाओं का विशाल शब्द चित्र है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने तत्कालीन समाज को यथार्थ रूप में अंकित किया है। संत काव्य आत्मविश्वास आशावाद, और आस्था की भावना स्थापित करने में सहायक साहित्य है। यह जीवन शक्ति का अजस्र स्रोत है। इस काव्य का प्रमुख प्रयोजन हैं-त्रस्त संतप्त, उपेक्षित, उत्पीड़न मानव को परिज्ञान प्रदान करना।'' (सामाजिक न्याय और संघर्ष का काव्यः संत काव्य पृ॰ सं॰ 64)
डाॅ॰ जोशी ने कुछ गम्भीर विषयों को स्पष्ट करने के लिये आलोचनात्मक शैली को भी अपनाया है, इसमें संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है। ''साम, दान, दण्ड और भेद-राजनीति के ये चार प्रमुख अंग हैं। तुलसी काव्य में न्यूनाधिक सबके दर्शन होते हैं। कुशल राजनीतिज्ञ राम समयानुसार दण्डित करते हुए तो दृष्टिगोचर होते ही हैं, उचित अवसर पर भेद-नीति का प्रयोग करने से भी नहीं चूकते। वे तो इतने चैकस हैं कि विभीषण से अपनी सेना के समक्ष भी मुखर रूप से मन्त्रणा प्राप्त नहीं करते। इसके लिए भी नितान्त गुप्त मन्त्रणा करते हैं। अंगद की स्पष्ट स्वीकारोक्ति है कि 'साम दान उरू दण्ड विभेदा, नृप-उर बसहिं नाथ कह बेदा।'' (तुलसी के काव्य में धर्म और राजनीति पृ॰ सं॰ 86)
डाॅ॰ जोशी ने अपने शोध लेखों में कई स्थानों पर तर्क एवं आत्म विश्वास के द्वारा किसी विषय की पुष्टि करने के लिए व्याख्यात्मक शैली को अपनाया है। ''अज्ञान का प्रकटीकरण तीन प्रकार से होता बताया गया है- 1. मन के विक्षोभ के रूप में (आलय विज्ञान) अविद्या कर्म (अज्ञानात्मक कर्म) द्वारा दुखजनक स्थिति 2. अहम् की सृष्टि अथवा द्रष्टा के द्वारा, 3. बाह्य जगत की सृष्टि द्वारा जिसका द्रष्टा से परे अपने आप में कोई अस्तित्व नहीं है। असत् बाह्य जगत के कारण छः प्रकार की स्थितियाँ एक-एक करके पैदा होती हैं- 1. बुद्धि (सम्वेद), बाह्य जगत के प्रभाव से बुद्धि में अनुकूल और प्रतिकूल का भेद ज्ञात होने लगता है, 2. अनुक्रम, बुद्धि की अनुगामिनी होकर स्मृति अनुकूल और प्रतिकूल संवेदनाओं  को विषयगत स्थितियों के एक अनुक्रम में धारण करती है। 3. संश्लेषण, अनुकूल और प्रतिकूल संवेदनाओं के धारण और अनुक्रम द्वारा संश्लेषण (चिपकने) की इच्छा उद्भूत होती है। 4. अभिधानों और संज्ञाओं से सम्बद्ध होना । इसमें मन विभिन्न संज्ञाओं का पदार्थीकरण करता है। 5. कर्मो का आचरण। संज्ञाओं से सम्बद्ध होना। इसमें मन विभिन्न संज्ञाओं का पदार्थीकरण करता है। 5. कर्मो का आचरण। संज्ञाओं से सम्बद्ध होने के कारण विभिन्न प्रकार के कर्माे का उद्भव होता है। 6. कर्मो के बंधन के कारण वेदना, जिसके कारण मन अपने आप को बंधन में पाता है और उसकी स्वतंत्रता जकड़ जाती है। इस प्रकार ये सभी स्थितियाँ अविद्या से जन्मी है।'' (बौद्ध दर्शन एवं अज्ञेय की असाध्य वीणा पृ॰ सं॰ 98)
डाॅ॰ जोशी ने अपने गहन अध्ययन के प्रतिपादन हेतु तथा तथ्यों के अधिक स्पष्टीकरण के लिए पर्याप्त उदाहरण अपने लेखों में दिये है। विषय की गंभीरता एवं तथ्य की पुष्टि हेतु संस्कृत, अंग्रेजी तथा हिन्दी के विद्वानों के उद्धरण भी अपने लेखों में दिये हैं। ये उद्धख उनकी अध्ययन शीलता को प्रकट करते हैं।
अध्ययनशील एवं मननशील अध्यापिका की भांति डाॅ जोशी का विषय प्रतिपादन गहन गम्भीर अध्ययन पर आधारित होता है वे विषय को पूर्णतः समझ कर उसे स्पष्टतः समझाने का पूरा प्रयत्न करती है।
उनके विवेचन का ढंग अथवा शैली सर्वथा अध्यापकोचित है।
निबन्धना में निबन्धित सभी बारह निबन्ध अध्येताओं और शोधर्थियों के लिए बहु उपयोगी है। त


पुस्तक - निबंधना
लेखिका - डाॅ मृदुल जोशी
मूल्य - 300 रू0 (पृष्ठ 182)
प्रकाशक - सत्यम पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली
समीक्षा - डाॅ सविता मोहन