ओझल होते रामलीला के मंच


महर्षि बाल्मिकी की मूल रामायण से लेकर कंबन की महान तमिल कृति और तुलसीदास के अमर काव्य रामचरितमानस तक संसार की लगभग सभी भाषाओं में रामकथा युगों-युगों से भारत भूमि में ही नहीं अपितु दक्षिण एशिया के अनेक देशों में मंचित की जाती रही है। श्रीराम के जन्म से लेकर विजयोल्लासित अयोध्या आगमन तक की  अत्यन्त मनमोहक कथा विश्व भर के असंख्य हिन्दुओं के मानस पटल पर अंकित है। रामायण और महाभारत के सन्दर्भ में 'भारत एक खोज' में नेहरू उद्धृत करते हैं-मैं इन ग्रन्थों के सिवाय कहीं भी किसी ग्रन्थ को नहीं जानता जिसने जनमानस पर इतना अविराम और व्यापक प्रभाव डाला हो।' मात्र श्रीराम ही नहीं बल्कि महासती सीता और आज्ञाकारी भाई लक्ष्मण और परमभक्त वीर हनुमान सहित रामायण कथा के कितने ही पात्र समय की वीथियों के आरपार जनसाधारण की चेतना में रचे-बसे हैं। हर वर्ष विजयादशमी उत्सव में रामकथा का अभिनय एवं प्रदर्शन हजारों-हजार रामलीलाओं के रूप में अपने चरमोत्कर्ष पर होता है। दक्षिण भारत की तुलना में उत्तर भारत में रामलीलाओं का प्रचलन अधिक रहा है। 
देहरादून जो पूर्व में एक छोटा सा नगर था उसमें भी रामलीला का मंचन कई समय से होता रहा है। आज भी वह स्थान रामलीला बाजार के नाम से जाना जाता है, जहां दून में आरम्भ से रामलीला का आयोजन होता रहा है। एक बार दून की इस रामलीला में सीता स्वयंम्बर के दिन धनुष यज्ञ के समय टिहरी महाराज के रूप में एक पात्र को मंच पर उतार कर उनका उपहास किया गया। उस दिन पं0 विश्वम्बर दत्त चंदोला, प्रखर स्वतंत्रता सेनानी तथा गढ़वाली के यशस्वी संपादक भी वहां मौजूद थे। उन्होंने इस पर वहां हंगामा खड़ा कर दिया, आयोजकों को क्षमा-याचना करनी पड़ी। देश की स्वतंत्रता के नवयुग में दून के गढ़वालियों में नवजागरण प्रस्फुटित होकर उन्हे संगठित होने के लिये प्रेरित करने लगा। इसी परिप्रेक्ष्य में फरवरी  सन् 1952 में गढ़वाल सभा देहरादून का गठन किया गया। सभा को जनाधार प्रदान किये जाने हेतु भगवान राम का ही सहारा लिया गया। उस समय 'अखिल गढ़वाल सभा देहरादून' के अध्यक्ष पद पर पं0 विश्वम्बर दत्त चंदोला तथा मंत्री पद पर पं0 उर्वीदत्त उपाध्याय विराजमान थे। पं0 चंदोला गढ़वाल सभा के तत्वावधान में रामलीला आयोजन के पक्षधर नहीं थे। वे इा संस्था को एक वैचारिक संस्था ही बनाये रखना चाहते थे। फलस्वरूप तय हुआ कि रामलीला के आयोजन हेतु पृथक संस्था का गठन किया जाये। इस निर्णय के अनुसार सन् 1955 में 'गढ़वाल रामलीला परिषद देहरादून' का गठन किया गया। इसके सर्वप्रथम अध्यक्ष श्री भोलादत्त सकलानी बनाये गये तथा श्री उर्वीदत्त उपाध्याय को ही इस परिषद के मंत्री का दायित्व दिया गया। परिषद की कार्यकारिणी में अधिकांशतः गढ़वाल सभा की कार्यकारिणी के सदस्य ही हुआ करते थे। परिषद ने थोड़े ही समय में दूनघाटी में रामलीला के संदर्भ में अत्यन्त प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। रामलीला का आयोजन शास्त्रीय राग-रागनियों के आधार पर होता था। जैसा कि गढ़वाल की अनेक रामलीलाओं का मंचन सरल-सरस तथा काव्यमय संवादों के साथ-साथ शास्त्रीय राग-रागनियों के आधार पर होता चला आ रहा है। रामलीला के पात्रों का चयन लम्बे रिहर्सल के आधार पर किया जाता था जो रक्षाबन्धन या जन्माष्टमी से प्रारम्भ कर दिया जाता था। देहरादून में सर्वे आॅफ इन्डिया, बिजली विभाग तथा पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ डिपार्टमेन्ट में बहुतायन से गढ़वाली कर्मचारी कार्यरत थे। फलस्वरूप 'गढ़वाल रामलीला परिषद' में इन्हीं विभागों के कर्मचारियों का वर्चस्व बना रहता था और यही लोग रामलीला के आयोजनमें सर्वाधिक योगदान भी करते थे।पोस्टआॅफिस में शिवानन्द बछेती, श्याम प्रसाद भट्ट, शंकरदत्त खंतवाल, सर्वे आॅफ इन्डिया में मनोहर धस्माणा, बैसाखीराम सेमवाल, इन्द्रमोहन शर्मा, बिजली विभाग से जयलाल सिंह चैहान,   शिवराम सिंह असवाल, तीरथ सिंह नेगी, सुन्दरलाल उनियाल, सुरेन्द्र लिंगवाल आदि का लम्बे समय तक परिषद को सक्रिय सहयोग मिलता रहा। गांधी स्कूल के हिन्दी प्रवक्ता दामोदर प्रसाद थपलियाल, तथा प्रबन्धक, एडवोकेट पीताम्बर दत्त शर्मा, रामलीला पषिद से जुड़े रहे। फलसवरूप गाांधी इण्टर काॅलेज परिषद की सभी बैठकों का आयोजन स्थल बना रहा। उस समय देहरादून नगर में शायद शायद ही कोई बड़ा नाम हो जो इस परिषद से न जुड़ा हो। परिषद के माध्यम से ही गढ़वाल सभा को भी व्यापक आर्थिक अनुदान मिलता रहा। रामलीला के आर्थिक सहयोग से ही सभा के लिये दो कक्षों का भवन नैशविला रोड पर निर्मित किया गया था जहां से कि गढ़वाल सभा संचालित होती थी। वर्तमान भवन के निर्माण के समय उन पुराने दो कमरों को ध्वस्त किया गया था। सितम्बर 1973 में यद्यपि गढ़ाल रामलीला परिषद देहरादून का पृथक रूप से पंजीकरण करवा लिया गया था, फिर भी दोनों संस्थायें भ्रातृ संगठन के रूप में कार्यरत रही हैं। अनेक व्यक्ति दोनों संस्थाओं की कार्यसमिति में सम्मिलित रहा करते थे। मैं स्वयं रामलीला परिषद में लम्बे समय तक मंत्री और    अध्यक्ष पद पर रहते हुये गढ़वाल सभा की कार्यकारिणी का सदस्य भी रहा हूँ। रामलीला परिषद के माध्यम से अर्जित ख्याति के बल पर ठा0 बीर सिंह गढ़वाल सभा के अध्यक्ष पद तक पहुंच पाने में सफल रहे थे।
देहरादून नगर में जब अखिल गढ़वाल सभा और गढ़वाल रामलीला परिषद की स्थापना की गई थीतब देहरादून का सामाजिक ढांचा आज की तरह नहीं था। अधिकांश गढ़वाली लोग छोटी-मोटी नौकरियों और कामधंधों में लगे थे। देहरादून जिला मेरठ कमिश्नरी में सम्मिलित था इसलिये प्रशासन में मैदानी लोगों का वर्चस्व था।  नगर की सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में गढ़वालियों की कोई पूछ नहीं थी। अतः अपने अस्तित्व को बचाये रखने तथा उसकी अभिव्यक्ति के लिये गढ़वाल सभा और रामलीला परिशद जैसे संगठनों की नितान्त आवश्यकता थी। रामलीला के मंच पर रामलीला के साथ-साथ गढ़वाली-कुमाऊंनी लोकगीत भी प्रस्तुत किये जाते थे। गढ़वाली गीतों के पितामह जीतसिंह नेगी परिषद से जुड़े रहे और लगातार मंचों पर अपनी प्रस्तुतियां देते रहे। इस प्रकार जहां पहले सार्वजनिक रूप से गढ़वाली बोलने में लोग हिचक महसूस करते थे वहां रामलीला के मंच पर सार्वजनिक ढं़ग से गढ़वाली गीतों की प्रस्तुतियों के कारण लोगों के अन्दर भी अपनी भाषा के प्रति आग्रह बढ़ने लगा।यह बात मन को कचोटती रहती थी कि 26 जनवरी और 15 अगस्त के राष्ट्रीय दिवसों में जहां पंजाबी मुशायरा के लिये दरबार सजता था, लेकिन गढ़वालर कविताओं के लिये कोई कवि सम्मेलन नहीं होते थे। शायद यही पीड़ा हमें रामलीला परिषद से जोड़ कर रखती थी। परिषद 1955 से लेकर सन् 1991 तक देहरादून में खूब धूमधाम से संचालित होती रही।दरअसल सन् 1984 में रामलीला के आयोजन हेतु श्री गुरूनानक इण्टर काॅलेज चुक्खूवाला का मैदान न मिलने के कारण डोभालवाला में रामलीला स्थानान्तरित करने तथा टीवी पर धारावाहिक रामायाण के प्रसारण के बाद रामलीला के लिये दश्रकों को जुटा पाना कठिन होने लगा। अतः कहा जा सकता है कि 1984 तक ही परिषद का चरमोत्कर्ष काल था फिर भी रामलीला के आयोजन को निरन्तर बनाये रखने के पूरे प्रयास करने के बावजूद दर्शकों की घटती संख्या के कारण रामलीला का आयोजन बन्द करना पड़ा। उल्लेखनीय है कि 1955 में रामलीला का आयोजन उस स्थान से प्रारम्भ किया गया जहां पर आज चुक्खूवाला में पी.एण्ड टी. काॅलोनी स्थित है। उसके पश्चात रामलीला, श्री गुरू नानक इण्टर काॅलेज चुक्खूवाला के खेल मैदान में आयोजित होती थी और उसे देखने के लिये रोजाना तीन-चार हजार दर्शक वहां उपस्थित होते थे। रामलीला लगभग नौ बजे आरम्भ होकर दो-तीन बजे तक चलती थी। भण्डारी बाग, धरमपुर, अजबपुर, बललुपूर, हाथीबड़कला, करणपुर आदि मुहल्लों के स्त्री-पुरूष, बच्चे-बूढ़े रामलीला देखने आते थे। उस समय देहरादून का वातावरण ही ऐसा था कि लोगों को रात्रि के अन्तिम प्रहर में भी कोई भय नहीं होता था, उस समय जैसे कि देहरादून में सचमुच रामराज्य ही था।
कई वर्षों तक सत्यप्रकाश ओझा जी रामलीला के निदेशक रहे, उन्हें रिहर्सल आरम्भ होने से लेकर दशहरे तक अपना घर छोड़कर चुक्खूवाला में ही रात्रि विश्राम करना पड़ता था। वे अजबपुर खुर्द के रहने वाले थे जो तब नितान्त एक गांव था। उनके स्वग्रवास के बाद रामलीलर का निर्देशन शिवप्रसाद तैलवाल, बच्ची डोबरियाल और रमेश डोबरियाल द्वारा किया गया। रामलीला परिषद ने कई कलाकारों को जन्म दिया, कई कलाकारों को मांजा। रंगमंच के नामी गिरामी कलाकार उर्मिल थपलियाल, दुर्गा कुकरेती, रमेश डोबरियाल, दिगम्बर भण्डारी, रमेन्द्र कोटनाला इसी परिषद की देन हैं। रावण की दमदार भूमिका के लिये शालिगराम ममगाईं, राघवानन्द जुयाल, अनसुया प्रसाद काला, हरिसिंह लिंगवाल और प्रदीप कुमार तोमर याद किये जायेंगे। रामकिशन काला, तोताराम काला, दाताराम डोभाल, नरेश शर्मा, अमरदेव डोबरियाल, रमेश बहुगुणा, नितेश मुंडेपी, कैलाश पाण्डे आदि द्वारा रामलीला के मंच पर विभिन्न पात्रों का अभिनय आज भी लागों के स्मृति पटल पर जीवित हैं। यदि लोगों की सबसे अधिक चाहत किसी कलाकार ने बटोरी तो वे थे हास्य कलाकार नारायण दत्त पाण्डे। एक प्रकार से वे रामलीला मंच केे अभिन्न हिस्सा बन गये थे। रामलीला में दर्शकों के लिये कुर्सियां तो दूर दरियों की व्यवस्था भी नहीं रहती थी। आसपास के लोग स्थान आरक्षित करने के लिये शाम से ही अपनी टाट-पट्टी बिछा दिया करते थे।इस पूरी व्यवस्था में पुलिस की कोई भूमिका नहीं होती थी। परिषद के स्वयंसेवक पूरी व्यवस्था संभालते थे। प्रतिदिन तीन-चार हजार लोग शान्तिपूर्वक रामलीला का आनंद लेते थे। उन दिनों परिषद का मंत्री या अघ्यक्ष होना बड़े गर्व की बात होती थी।राजनेताओं में रामलीला के मच पर मुख्य अतिथि के रूप में आना बड़ी बात मानी जाती थी।मेरे मंत्री/अध्यक्ष रहते हुये श्री देवेन्द्र शास्त्री, श्री चन्द्रमोहन सिंह नेगी, श्री हीरासिंह बिष्ट, श्री हरबंस कपूर, श्री दीनानाथ सलूजा जैसे नेता मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित हुये थे। वैसे पूर्व में डा0 शिवानन्द नौटियाल, तथा नरेन्द्र भंडारी भी इस रामलीला में आमंत्रित हुय थे। रामलीला के मंच निर्माण के लिये टिम्बर मर्चेंट बीरेन्द्र बिष्ट, भोपालसिंह नेगी तथा सुलतान सिंह रावत द्वारा निःशुल्क स्लीपर-बल्ली आदि उपलब्ध कराई जाती रही।रूप सज्जाकार के रूप में बिक्रमसिंह राणा, कुलदीप मधवाल, जगदीश बहुगुणा की सेवायें अविस्मरणीय थीं। गढ़वाल रामलीला तथा गढ़वाल सभा के संस्थापक मंत्री स्व0 उर्वीदत्त उपाध्याय ने एक बातचीत में बताया था कि एक जमाने में देेहरादून के गढ़वालियों को एकत्र करने के और उनमें अपनी अस्मिता, संस्कृति और भाषा के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के लिये उन सहित कुछ लोग रात्रि में आढ़त बाजार से लेकरघंटाघर तक डौंर-थाली लेकर गढ़वाली गीत और जागर गाते हुये जत्था बनाकर निकलते थे। यह तथ्य गढ़वाल सभा की समारिका में अंकित है। निसंदेह कुछ लोगों का यह प्रयास व्यर्थ नहीं गया।धीरे-धीरे गढ़वाली समाज में सामाजिक जागृति के साथ-साथ राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी जागृत होती चली गई। सन् 1969 में मास्टर रामस्वरूप, 1974 में भोलादत्त सकलानी, जो कि इस परिषद के प्रथम   अध्यक्ष भी थे, 1977 में श्री देवेन्द्र शास्त्री, और 1985 री हीरासिंह बिष्ट पर्वतीय मूल के लोगों को देहरादून नगर से विधायक निर्वाचित कर  उ0प्र0 विधान सभा में भेजा गया था। 1975 में देहरादून मेरठ मण्डल से हटकर गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित होकर पर्वतीय नगर के रूप में बदलता चला गया। जिसे आज पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड की राजधानी होने का गौरव मिला है।