पारदर्शी हो नीति और नीयत


16-17 जून २०१३ को केदारनाथ में जो कुछ हुआ, उसने उत्तराखण्ड में चौदवीं सदी के रूपकुण्ड हादसे की याद ताजी कर दी है। रूपकुण्ड में भी कमोवेश केदारनाथ जैसी ही घटना हुई थी, जहां कन्नौज के तत्कालीन राजा यशधवल अपनी रानी, परिजन और सैकड़ों की संख्या में साथ चल रहे सैनिकों के साथ उच्च हिमालय की यात्रा पर आये थे जहां अचानक आये भूस्खलन की चपेट में आकर राजा   यशधवल के दल के सभी लोग मारे गए थे। त्रिसूल पर्वत के समीप सोलह हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित रहस्यमयी बर्फानी झील के यात्रापथ पर पाये जाने वाले नरकंकाल और उत्तराखण्ड के  गांव-गांव में गाए जाने वाले रानी बालम्पा और यशधवल की हिमालय यात्रा को लेकर बने दुःखद लोकगीत में रचित वर्णन हिमालय की सबसे बड़ी ़त्रासदी का एहसास कराता था लेकिन केदारनाथ जैसे भयावह हादसे के सामने यह तिनके के बराबर भी नहीं है।
केदारनाथ में जो हुआ वह रूपकुण्ड हादसे से बहुत ज्यादा भयावह था। रविवार की वह काली रात और विपदा भरी सोमवार की सुबह केदारनाथ में मन्दाकिनी ने दो बार रौद्र रूप दिखाया इससे सेकिण्डों में केदारनाथपुरी नष्ट हो गई। केदारनाथ में खड़ी अट्टालिकायें और बड़े-बड़े भवन प्रकृति के व्यवहार के आगे धाराशायी हो गये, तकरीबन सारी की सारी केदारनाथपुरी शवों से पट गई। मन्दिर के गर्भगृह में भी जान बचाने गए लोग मारे गए। श्री केदारनाथ मन्दिर और मन्दिर से लगा पुजारी निवास, भोगमण्डी शृगांरगृह व दो चार अन्य मकानों को छोड़ कर अधिकतर संरचनायें केदारनाथ से हट र्गइं। केदारनाथ का खौफनाक दृश्य चैदहवीं सदी के रूपकुण्ड त्रासदी से भी भयंकर था। केदारनाथ में इस त्रासदी के शिकार लोगों की अधिकारिक संख्या पांच हजार तक पहुंच चुकी है, लेकिन हादसे में बचकर आये तीर्थयात्रियों की माने तो संख्या पांच हजार से कई ज्यादा है। हादसे के समय केदारनाथ से पैदल लौट रहे उड़ीसा के 55 साल के अजय कुमार दास बताते हैं, '16 तारिख को तेज बारिस थी, बारिस के बाद भी केदारनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या कम नहीं थी, दूसरी ओर कई लोग केदारनाथ में इस लिए रूक गए थे कि बारिस थमेगी तभी लौटेंगे। रास्ते में ही दस से बारह हजार के बीच तीर्थयात्री मिले जिनमें से कुछ लौट रहे थे तो कुछ केदार बाबा के दर्शन के लिए चढ़ाई तय कर रहे थे।' रूद्रप्रयाग के जिला पंचायत अध्यक्ष श्री सी.पी. भट्ट ने आपदा में, गौरीकुण्ड में दास की बात को पुष्ट करते हुए कहा-'सोलह जून की रात गौरीकुण्ड में दो से चार सौ के बीच तीथयात्रियों के वाहन खड़े थे और इससे दुगने गौरीकुण्ड से पांच किलोमीटर आगे सोनप्रयाग में खड़े थे, इनमें बसों और हल्के वाहनों की संख्या भी अच्छी खासी थी। इसी तरह सीतापुर और सिरसी तक केदारनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों के वाहन खड़े थे, इससे जो मोटा अंदाजा लगता है कि आपदा की रात केदारनाथ और केदारनाथ मार्ग पर बीस से पच्चीस हजार तक तीर्थयात्री मौजूद होंगे जो सोनप्रयाग और गौरीकुण्ड में वाहन छोड़कर केदार दर्शन को गए होंगेे। अभी तक हेलिकाप्टर और पैदल रास्ते से बचकर निकले तीर्थयात्रियों और मजदूरों का आंकड़ा दस हजार के आसपास ही है और इससे अंदाजा लग सकता है इस इलाके में अभी भी कितने लोग मिस हैं।' दास, उस रात केदारनाथ के पैदल रास्ते पर गौरीकुण्ड से चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित जंगलचट्टी तक ही पहुंच पाये थे, बाढ़ आते ही वे वहां रह रहे अन्य यात्रियों की तरह जान बचाने के लिए जंगल में दौड़ पड़े...वे बताते हैं...'चार दिन तक जंगल में घास पकड़-पकड़ कर गौरीकुण्ड के समीप सेना के सिपाही मिले जहां से फिर पैदल चल कर आज (बीस जून) सोनप्रयाग पहुचा हूँ।' वे कहते हैं कि पूरे रास्ते में असहाय यात्री जहां-तहां पड़े थे, दास खुद आठ किलोमीटर के सामान्य रास्ते को जंगलचट्टी से चार दिन की भयावह जंगली यात्रा कर सोनप्रयाग पहुंचे। 20 जून को सोनप्रयाग में एन.डी.आर.एफ. द्वारा सोन नदी पर लगाये गए रोप के सहारे पार कर पाये। दास जैसे तीन हजार लोग केदारनाथ के पैदल रास्ते से किसी तरह बचते हुए सोनप्रयाग में नदी पर लट्ठों और रस्सों से वापस लौट सके। सोनप्रयाग में उन्होंने मीडियो को बताया...'पूरे पैदल रास्ते में असहाय तीर्थयात्री लेटे थे, जगह-जगह तीर्थयात्रियों के शव पड़े थे, कई जगह जिन्दगी की आस होने के बाद भी मृत परिजनों के शवों के पास तीर्थयात्री मदद की इंतजार में थे, भूख- प्यास से उनकी आवाज भी नहीं निकल रही थी वे अभी भी राहत की प्रतीक्षा में होंगें।''
यह पहला वाकया होगा जब जून के पहले पखवाड़े में ही उत्तराखण्ड बाढ़ और भूस्खलन की चपेट में आ गया। अमूमन उत्तराखण्ड की चारधाम यात्रा के लिए 15 मई से लेकर 15 जून का समय सबसे बेहतर माना जाता था और इसी के चलते पूरे उत्तराखण्ड में चार धाम यात्रा शबाव पर थी। श्री हेमकुण्ड साहिब समेत सभी तीर्थ और पर्यटक स्थल तीर्थयात्रियों की भीड़ से भरे थे। बारिस 15 जून सुबह लगी तो कई दिन तक थमी ही नहीं। तीन दिन और दो रात की इस तेज बारिस ने नदियों के उपरी जलग्रहण क्षेत्रों में पानी-पानी कर दिया। पिथौरागढ़ से लेकर उत्तरकाशी तथा देहरादून से लेकर नैनीताल तक हर जगह एक जैसी बारिस हुई लेकिन हिमालय के उपरी क्षेत्र में जहां बरसात में भी बहुत ही पतली बूंदों वाली बारिस होती है, जिसे बुग्याली बर्षा कहते हंै, न होकर मूसलाधार बारिस हुई। इस बारिस से पिथौरागढ़ में गौरीगंगा, बागेश्वर में सरयु और रामगंगा, चमोली में अलकनन्दा और उसकी बड़ी सहायक जलधारायें, रूद्रप्रयाग में मन्दाकिनी, टिहरी में भिलंगना और उत्तरकाशी में भागीरथी व यमुना उफान पर आ गई। नदियों के जलस्तर इस कदर उपर उठ गए कि अलकनन्दा ने बदरीनाथ से लेकर देवप्रयाग तक नदी किनारे बसी बस्तियों को उनकी हैसियत बता दी। नदी किनारे रेत के डेरों पर बने बड़े-बड़े सरकारी भवनों को भी नदी में गिरते सेकण्ड से भी कम समय लगा। यही हालात यमुना और भागीरथी के किनारे की बस्तियों की थी। इन इलाकों में लोग सतर्क थे इसलिए बड़ी जनहानि तो बच गई लेकिन मन्दाकिनी घाटी में मन्दाकिनी ने स्रोत से लेकर चैदह किलोमीटर के शुरूआती प्रवाह में भयावह तबाही मचाई। अकेले केदारनाथ घाटी में ही पांच हजार से ज्यादा लोग इस घटना की चपेट में आकर मारे गए हैं। इनमें ऐसे लोगों की संख्या भी कई सौ थी जो मन्दाकिनी की इस बाढ़ की चपेट में आने से तो बच गए लेकिन जंगलों से एक-एक हफ्ते तक रेस्क्यू न हो पाने के कारण भूख प्यास के कारण दम तोड़ दिया। प्रख्यात भूविज्ञानी एवं जवाहर लाल नेहरू उच्च        अध्ययन संस्थान के ईमिनंेट विज्ञानी डा. खड़क सिंह वाल्दिया कहते हंै...'केदारनाथ में जो कुछ हुआ वह नदी की अपनी प्राकृतिक क्रिया थी, हम अगर इसे समझे होते तो देश के कोने-कोने से आये इन हजारों तीर्थयात्रियों की जान बचायी जा सकती थी।'
जून की यह तबाही अधिकतर तीर्थयात्रा मार्गांे और तीर्थो में हुई हैं। श्री हेमकुण्ड साहिब से लेकर चारधाम के मुख्य तीर्थ बदरीनाथ, केदारनाथ और गंगोत्री व यमुनोत्री सभी नदियों के किनारे बसाये गए हैं। श्री हेमकुण्ड साहिब तो बर्फानी झील के पास बसा है। केदारनाथपुरी भी बर्फानी झीलों के मुहाने पर है जहां अति वृष्टि और भूस्खलन व भूक्षरण एवं भूकम्पों की अनवरत सिलसिले चलते रहते हंै। डा. वाल्दिया कहते हैं...'इन प्राकृतिक घटनाओं की वजह से जो हादसे हो रहे हैं यह हमारे गरूर, हमारी नासमझी व विकास की गलत नीतियों की वजह से हंै, हादसे रोके जा सकते थे यदि हमने यहां के चट्टानों की भाषा समझी होती, यहां की चोटियों की पीड़ा जानकर नदियों के प्रवाह के अनुभवों से सबक लिया होता। 'केदारनाथ में 16 और 17 जून की मन्दाकिनी की बाढ़ के आपदा बनने के बारे में डा. वाल्दिया कहते हंै...'काफी पहले केदारनाथ में मन्दाकिनी दो धाराओं में बहती थी। एक धारा पूरब से और दूसरी पश्चिम से, केदारनाथ में मन्दाकिनी का प्रवाह लम्बे समय से केदारनाथ मन्दिर के पूरब से बह रही जल धारा से ही हो रहा था। पश्चिम धारा सूख चुकी थी पश्चिम धारा नदी ने छोड दी है। इस धारा का रास्ता सूख गया है, केदारनाथ में  मन्दाकिनी की इसी पश्चिम के सूख जाने से मन्दाकिनी के इस जलप्रवाह के रास्ते में तेजी से होटल बने, रिजोर्ट बनाए गए कई मंजिले भवन खड़े किए गए, केदारनाथ में हमने मन्दाकिनी के इस स्वाभाविक पश्चिम पथ पर ऐसी रचनाएं खड़ी कर दी थीं जो मन्दाकिनी के स्वाभाविक नदी पथ पर     अवरोधक बने। हादसे के समय मन्दाकिनी अपनी दोनों जलधाराआंे के रास्ते से निकली जिससे इस तरह की त्रासदी होनी ही थी। 
अपने शुरूआती विज्ञानी जीवन में  केदारनाथ का अध्ययन कर चुके डा. वाल्दिया ने उच्च हिमालयी नदियों के स्वभाव की जानकारी देते हुए बताया कि...'केदारनाथ में मन्दाकिनी ग्लेशियर वैली में बहती है। ग्लेशियर घाटी का अर्थ  है कि किसी जमाने में कई हजार साल पहले यह घाटी ग्लेशियरों की हलचलों से बनी होगी। ग्लेशियर घाटी दिखने में अंग्रेजी के यू अक्षर जैसी होती है, इनमें पाट काफी चैड़ा होता है। ग्लेशियर घाटी में बहने वाली नदियों के पाट हर जगह इसी तरह के होते हैं। इसे इन नदियों का स्वाभाविक रास्ता या प्राकृतिक पथ कहते हैं जिसे भूविज्ञान की भाषा में 'प्लान्ड वे' कहते हैं। इन नदियों की इन यू शेप वाली घाटियों में अतिवृष्टि से बाढ़ आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, इस तरह की घाटियों में बहने वाली नदियां जब अपने पूरे शबाव पर रहती हंै तो इसी चैड़े रास्ते को घेरकर बहती हंै। इस पूरे पाट को हम राजपथ की संज्ञा दे सकते हंै जिस तरह से मनमर्जी से हम राजपथों पर चलते हंै ठीक उसी तरह ये नदियां भी जिधर मन आया   उधर बहती हंै। कभी इधर, कभी उधर, कभी पूरे पाट को घेरकर चलती हंै। इन चैडे़ पाटों वाली घाटी में बहुत पहले ग्लेशियरों ने अपने साथ बड़े-बड़े वोल्डर, रेत, मिट्टी पत्थर और बालू छोड़ दिए थे।'
बरसात से पहले ही उत्तराखण्ड की सारी नदियों ने अपने पाटों में हुआ अनाधिकृत अतिक्रमण हटा दिया है। डा. वाल्दिया कहते हैं कि अधिकतर लोग नदियों के आसपास ही रहते थे लेकिन वे नदी के विज्ञान को समझ कर नदी किनारे के बजाय पहाड़ी ढालों पर बसे हुए थे। नदियों के किनारे कौन से स्थान सुरक्षित हंै, यह केदारनाथ में भी देखा जा सकता है। ग्लेशियर घाटी के यू शेप के कुछ पाटों के कई स्थानों पर बड़े ब्लाक भी प्राकृतिक क्रियाओं के चलतेे आये हुए हैं, हमारे पूर्वज इस बात को समझते थे। नदी पाट पर ब्लाक या बड़े-बड़े शिलाखण्ड वाले इलाके में निर्माण करने से नदी के स्वाभाविक प्रवाह से कुछ हद तक बचा जा सकता है। केदारनाथ मन्दिर नदी के प्राकृतिक पथ पर तो है लेकिन इस पथ के ठीक पीछे बड़े-बड़े ब्लाक  हंै, इन्हीं की वजह से भारी तबाही के बाद भी मन्दिर और मन्दिर परिसर में रखा नन्दी सलामत है। इस आपदा में उन्हीं ब्लाकों ने केदारनाथ मन्दिर के ठीक पीछे पहुंचकर नदी की इस बाढ में मन्दिर और नदी के बीच अवरोधक बन कर मन्दिर को कोई बड़ा नुकसान नहीं होने दिया।' इसी बात को वाडिया इन्स्ट्टियूट आफ हिमालयन जियोलोजी के ग्लेशियर विज्ञानी डा. डोभाल ने आपदा के बाद केदारनाथ हादसे पर बनी अपनी प्रारम्भिक रिपोर्ट में भी जिक्र किया है। करेन्ट साईंस में छपी इस संयुक्त रिपोर्ट में केदारनाथ पुरी से गौरीकुण्ड की तबाही के दो दिनों की भारी बारिस के कारण चोराबाड़ी ताल में क्षमता से अधिक पानी जमा हो जाने से मिट्टी पत्थर से बने इस ताल के फूटने की घटना और केदारनाथ में बेतरतीब निर्माण को हादसे की वजह बतायी है। 
फिजिकल रिसर्च लैबरोटरी अहमदाबाद और गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूर्गभ विज्ञानियों ने भी हादसे के बाद मन्दाकिनी और अलकनन्दा घाटियों का सर्वेक्षण कर चैंकाने वाले नतीजे पाये हैं। इन विज्ञानियों के अनुसार जून की यह बाढ़ पिछले छह सौ सालों के बाढ़ के रिकार्ड तोड़ चुकी है। फिजिकल रिसर्च सेन्टर के डा0 नवीन जुयाल का कहना था अभी हमने प्रारम्भिक रिकार्ड लिए हैं उनसे जो नतीजे निकले हैं वे चैंकाने वाले हैं। श्रीनगर गढ़वाल में 17 जून को बाढ़ का पानी, 1970 के मलबे के निशान से छह मीटर से अधिक उपर तक पहुंच गया था। 
हादसे सबक  होते हैं लेकिन सबक लेने की किसी में चाह भी होनी चाहिए। बारिस के बंद होते ही हम फिर से उसी तरह के निर्माण में जुट जाते हैं। उत्तरकाशी में इस साल यह देखा जा सकता है, पिछले साल जो होटल नदी के किनारे बहने से रह गया था, इस बार होटल स्वामी ने उससे और बेहतर होटल तैयार कर भागीरथी के प्रवाह के पांच मीटर और बाहर कर दिया, नतीजतन इस बार 17 जून को सबसे पहले उत्तरकाशी से मनेरी के बीच इस तरह नये बने कई होटल और मकान फिर से नदी में बह गए। सीख की यह बात न केवल स्थानीय व्यवसायियों पर लागू होती है अपितु सरकारी निर्माण में तो इससे भी गयी गुजरी हालत है। अलकनन्दा और मन्दाकिनी की बाढ़ में सरकार के भवनों और अन्य सम्पतियों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ, वजह, ये सभी नदियों की टेरस पर जो नदियों ने बाढ से लायी सिल्ट थी, उसमें बने थे। प्रख्यात पर्यावरणविद् श्री चण्डीप्रसाद भट्ट कहते हैं...'हमारे लोग नदियों के किनारे रहने की विद्या जानते थे इसलिए श्रीनगर गढ़वाल की बस्ती को छोड़कर अधिकतर इलाके हर बार बड़ी-बड़ी त्रासदी में भी बचे रहे। अलकनन्दा घाटी में श्रीनगर बस्ती को छोड़ दंे तो बदरीनाथ से लेकर देवप्रयाग की पुरानी बस्तियां कहीं भी नदी किनारे नहीं थी, चाहे जोशीमठ हो, चाहे चमोली का कस्बा हो, चाहे कर्णप्रयाग हो या पुराना रूद्रप्रयाग, 'सबके सब नदी से कई सौ मीटर उपर पहाड़ी ढलान पर बसे थे। नदियों के किनारे से जब मोटर सड़क बदरी तक पहुंची तो हमारी बस्तियां भी नदी के पाटों के आसपास बसी और हर साल हादसों का शिकार हो रही हंै।'
उत्तराखण्ड में 1998 में मानसरोवर मार्ग पर मालपा और केदारनाथ के समीप ही मधुगंगा में जबरदस्त भूस्खलन हुआ था। मालपा में मानसरोवर यात्रा के तीर्थयात्रियों के मारे जाने के कारण भूस्खलन जैसी कम जानी जाने वाली आपदा पर भारत सरकार का  ध्यान गया। तत्कालीन कैबिनेट सचिव प्रभात कुमार के निर्देश पर उत्तराखण्ड व हिमांचल के तीर्थयात्रा मार्गांे और पर्यटक स्थलों के प्रमुख पड़ावों के आसपास के इलाके में भूस्खलन के खतरे को चिह्नित करने तथा उनकी रोकथाम के लिए देश के 13 से    अधिक शीर्षस्थ वैज्ञानिक संस्थानों ने तीन साल की एक्सरसाईज के बाद मानसरोवर मार्ग, ऋषिकेश से बदरीनाथ तक, रूद्रप्रयाग से केदारनाथ तक, ऋषिकेश से गंगोत्री एवं यमुनोत्री मार्गों की बस्तियां तथा इन प्रमुख तीर्थों के लिए 'लैण्डस्लाईड हैजर्ड जोनेशन मैप' तैयार किए थे। भारत के अंतरिक्ष विभाग की नेशनल रिमोट सेंसिंग ऐजेन्सी ने यह एटलस तैयार किया और 2002 में इसे उत्तराखण्ड के सभी जिलाधिकारियों, निर्माण ऐजेन्सियों व शासन के संबंधित विभागों को न केवल उपलब्ध कराई अपितु देहरादून में इस के उपयोग को लेकर एन.आर.एस.ए. ने राज्य के प्रमुख सचिव, सभी जिलों के जिलाधिकारी व आपदाप्रबंधन से जुड़े अधिकारियों के लिए वर्कशाप भी किया। श्री चण्डी प्रसाद भट्ट जिनके अनुरोध पर तत्कालिन कैबिनेट सचिव श्री प्रभात कुमार ने भूस्खलन के खतरों के चिह्नांकन की इस महत्वपूर्ण परियोजना शुरू करने के निर्देश दिए थे। कहते हैं...'केदारनाथ में मन्दाकिनी के स्रोत से लेकर सोनगंगा के मिलन स्थल तक तीर्थयात्रा मार्ग पर किस तरह के खतरे हैं, यह इस मैप ने बारह साल पहले जाहिर कर दिए थे तथा इन खतरों को कैसे कम किया जा सकता है, इसके लिए अलग-अलग स्थान के लिए अलग ट्रीटमेंट और प्रबंधन के बारे में इसमें बड़े ही साधारण ढंग से विज्ञानियों ने समझाया था। केदारनाथ के बारे में आपदा प्रबंधन के सुझाव इस एटलस में दिए गए थे, उनके दस फीसदी पर भी अमल होता तो केदारनाथ में हादसे का स्वरूप कम दुखद होता।' 
केदारनाथ हादसे ने हमारी विकास की नीतियों पर करारा प्रहार किया है। हमंे अब अपनी वर्तमान निर्माण नीतियों, जिनमें सड़कों से लेकर भवन निर्माण के मानकों को फिर से समीक्षा करने की जरूरत है। पर्यटन और तीर्थस्थलों के बारे में तो वैज्ञानिक ढंग से चिन्तन कर कार्यक्रम बनाये जाने चाहिए जिसमें स्थानीय आर्थिकी, लोक परम्परायें और धार्मिक विश्वासों के साथ तालमेल बैठाते हुए ऐसी योजनाएं बनायी जायें जिससे इन इलाकों में इस तरह की प्राकृतिक घटनाओं के बाद भी लोगों की जान व माल की सुरक्षा सुनिश्चित रहे। भवन निर्माण में भारी सामग्री के बजाय हल्के, टिकाउ मकानों के निर्माण पर जोर दिया जाना चाहिए। 
इसके लिए इस्पात से बने प्री-फैबरिकेटेड तकनीकी की व्यवहारिकता की समीक्षा करते हुए सरकारी और गैर सरकारी निर्माण में इसे प्राथमिकता देनी चाहिए। खासतौर पर सरकारी स्कूलों में भारी निर्माण को रोक कर इनके स्थान पर प्री-फेबरिकेटेड इस्पात आधारित भवनों के निर्माण को प्राथमिकता देनी चाहिए। पहाड़ों में हल्के मकानों के निर्माण के लिए प्रोत्साहित करने के लिए यहां हर नगर में वन निगम की ओर से ईमारती लकड़ी के बिक्रय केन्द्र खोले जाने चाहिए। ताकि सभी लोग आसानी से ईमारती लकड़ी भवनों के निर्माण में उपयोग कर सके।