पहले मीडियाकर्मी थे नारद

तीस मई पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है तो मैंने सोचा पत्रकारिता का प्राचीन इतिहास अगर कोई है तो पहले पत्रकार कौन रहे होंगे?  थोडा बहुत धर्मशास्त्रों के बारे में जो कुछ पढ़ा और सुना उससे तो यही लगता है कि पहले पत्रकार और 'मीडिया मैन' नारदमुनि जी ही रहे होंगे।  लेकिन वह आजकल के छुटभैय्या अखबार नवीसों की तरह आधी- अधूरी जानकारी के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में नहीं आये बल्कि बाकायदा पढ-लिख कर आये थे। उनकी  क्वालिफिकेशन की झलक विषेशरूप से नारद भक्तिसूत्र, नारदपुराण और श्रीमद भगवत महापुराण आदि में मिल जाती है। उनकी बुद्धि और वाक्पटुता का लोहा सभी मानते थे। उनके समकालीन महर्षि वेद व्यास जो सबसे बड़े लेखक और कवि थे और जिन्होंने अठारह पुराणों की रचना की थी, वे भी नारद जी से सलाह मशविरा करते थे और अपनी उलझनें उन्हीं से सुलझाते थे। भागवत की रचना करने से पूर्व वेदव्यास की भेंट जब नारद जी से हुई तो उन्होंने कहा-'नारद जी मेरा मन अशांत है, कहीं मन नहीं लगता' तो नारद जी ने कहा कैसे लगेगा भाई!  आपने अठारह पुराण लिख डाले लेकिन अपने से बड़ा किसी को नहीं माना। क्या आपने भगवान के गुणों का अनुवाद भी किया कभी? 
भवतानुदितंप्रायम यशो भगवतोमलम।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शन खिलम।। 
श्रीमदभागवद महापुराण की रचना भी वेदव्यासजी ने नारद जी की ही प्रेरणा से की थी। भागवत में वर्णन आया है कि ऋषी मुनियों के समागम पर जब नारदजी भी वहाँ पधारे तो लोगों ने उनका स्वागत कुछ इन शब्दों में किया-'सकल कुशल शास्त्रम ब्रह्मपुत्रो नतास्मी' इतना आदर था उनका विद्वतजनो में।  नारद जी स्पष्टवादी थे और अच्छे-अच्छों की खबर ले लेते थे। क्योंकि वे अपनी मेहनत से ऊपर उठे थे-श्रीमद भागवत में अपने बचपन के दिनों की याद करते हुए वह विनम्रता पूर्वक कहते हैं कि भाई मंै तो साधारण घर से आया हूँ-वेदवादी ब्राह्मणों की दासी की संतान हूँ। मेरी मां दासी थी आगे- पीछे कोई नहीं था, मैं विद्वानों की जूठन खा कर पला हूँ। 'अहम पुरातीतभवैभवं मुने, दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम' 
नारद जी क्योंकि सत्यवादी थे इसलिए उनका सभी विश्वास करते थे। वह निश्पक्ष थे इसीलिए देवताओं और असुरों के यहाँ आने-जाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। अच्छी बात पर वह असुरों की भी तारीफ करते थे और अगर उन्हें किसी राय की जरूरत हुई तो उन्हें सकेंत भी दे देते थे जैसे उन्होंने प्रह्लाद और कंस को दिया। किसी बात की सच्चाई अगर जाननी होती थी तो नारद जी से पूछा जाता था। देवताओं पर वे अक्सर चुटकी लेते थे-कहते थे कि देवताओं ने तो सब चीजों पर अपना कब्जा जमा रखा है। इसलिए वह देवताओं को 'सर्वसाधनसाधक' कहते थे। 
नारद जी के  साक्षत्कार खोजी पत्रकारिता के लिए आदर्श माने जा सकते हैं। श्रीमद भागवत में भक्ति के साथ हुई अपनी भेंट में आजकल के हालत पर चर्चा करते हुए जब उनसे पूछा गया की कहाँ से आ रहे हैं आप आज? और आजकल क्या चल रहा है? तब वह कहते 
हैं की भाई आजकल बहुत से तीर्थस्थलों का भ्रमण करके आ रहा हूँ, 
मन बड़ा दुखी है क्योंकि-
हरिक्षेत्रम कुरुक्षेत्रम श्रीरंगम सेतुबंधनम। 
एवमादिशु तीर्थेशु भ्रममाण इतस्ततः।। 
सत्यम नास्ति तपः शौचं दया दानम न विद्यते।
उदरम्भरिणों जीवा वराकाः कूट भाषिण।। 
पाखण्डनिरता रूसंतो विरक्ता रूसपरिग्रहाः  
-जो साधू संत कहे जाते हैं वे पूरे पाखंडी हो गए हैं, देखने में तो विरक्त हैं लेकिन स्त्री धन आदि सभी का परिग्रह करते हैं। सच्चाई कहीं रह नहीं गई है, त्याग और तपस्या का भी यही हाल है। 
अत्युग्रभूरि कर्माणि नास्तिका रौरवा जनाः। 
तैपि तिष्ठन्ति तीर्थेशु तीर्थ सारस्ततो गतः।। 
कामक्रोधमहालोभ तृष्णाव्याकुलचेतसः।
तैपि तिष्ठन्ति तपसि तपः सारस्ततो गतः।। 
(तीर्थों में नाना प्रकार के अत्यंत घोर कर्म करने वाले नास्तिक नारकी पुरुष भी रहने लगे, इसलिए तीर्थों का प्रभाव जाता रहा। जिनका चित निरंतर काम क्रोद्ध मोह लोभ और तृष्णा से तप्त रहता है वे भी तपस्य का ढोंग करने लगे हैं इसलिए ताप का भी सार जाता रहा। लेकिन क्या करें यह तो युग का स्वभाव ही है इसमें किसी का कोई दोष नहीं)