मैंने उनसे मुलाकात का वक्त मांगा था, ताज़्जुब की बात कि वक्त मिल गया, हरी झंडी मिलते ही कलम कागज़ लेकर हम नंगे पैर ही उनके घर की तरफ दौड़ पड़े़, एक ज़माना था, जब वे मुलाकात के लिए सारा दिन बैठे रहते थे, पर कोई सिरफिरा भी उनकी तरफ आँख उठाने को राज़ी न होता, पहला मौका था, जब कोई उनका इंटरव्यू लेने आना चाहता था। जिस वक्त हम उनके घर पहंुचे, माहौल खुशनुमा था, नौकर चाकर जांघिये पहने इधर से उधर दौड़-भाग कर रहे थे, घर की औरतें आने जाने वालों की तीमारदारी में जुटी थीं, खुद 'वे' फोन पर हंस-हंस कर बतिया रहे थे, लगता था जैसे उन्हें कोई गड़ा धन मिल गया है, जिसे न तो वे किसी से बांट सकते हैं और न बगैर बांटे रह सकते हैं, पल भर के लिए हमारी तरफ निहार कर उन्होंने हमें कृतार्थ किया, चश्मे को नाक पर ऊपर खिसकाते हुए हमें बैठने का इशारा किया, और फोन पर उसी तरह शब्दों की अविरल धारा बहाते रहे, हमारे पास भी बैठ जाने के अलावा कोई चारा न था, मन मसोस कर बैठे रहे, कोसते रहे उस बुरी घड़ी को जिसमें हमें इंटरव्यू लेने की सूझी। फोन के दूसरी तरफ जो शख्स था, उसका हाज़मा वाकई जबरदस्त रहा होगा, आम इंसान तो वह किसी भी हालत में नहीं हो सकता था, पिछले आधे घंटे से सुन कर तो मैं ही पक चुका था, फिर उस वीर शिरोमणि श्रोता का क्या हाल हुआ होगा-यह सोच कर ही दिल दहल जाता था, चुनाव से लेकर वोटिंग मशीनों की धांधली तक, बाबर से लेकर विक्टोरिया तक, ओबामा से लेकर ज़रदारी तक, शेयर सूचकांक से मुद्रास्फीति तक-भला किसकी बखिया नहीं उधेड़ी थी उन्होंने? सुनने वाले का धैर्य शायद चुक गया था, क्योंकि वे खेद के साथ चोगे को कान से हटा कर घूर रहे थे, हमें सामने पाकर उनके चेहरे पर हरियाली छा गई, उत्फुलित होकर बोले-
आइये चैबे जी, साॅरी काफी वेट करना पड़ा आपको./हमने पहला सवाल पूछा-आप इलेक्शन में खड़े क्यों हुए?
-हारने के लिए/....जीतने के लिए क्यों नहीं?/...जीतना इतना आसान है क्या?/...आसान तो नहीं है मगर हर कोई यही सोच कर उठता है कि एम पी वही बनेगा./...हार-जीत में वैसे ज़्यादा फर्क है भी कहां? जीतने पर मैं कहलाता एम.पी. हारने पर कहलाता हूँ-पूर्व पराजित एम.पी. /दोनों ही हालातों में मेरे लेटरपैड पर एमपी शब्द तो आया./....हारने के बाद आपका क्या एजेंडा है?/...वही जनता सेवा...हमारा तो एक ही एजेंडा रहता है जीत कर भी हार कर भी./....जनता सेवा में क्या करेंगे?/...पीडब्लुडी के ठेके लूंगा, पूर्व पराजित एमपी का लेटर हेड कब काम आयेगा? दूसरे करप्ट अफसरों को धमकाने में भी ये लेटर पैड मददगार साबित होगा./...वो कैसे?/...कई अफसर ढीठ होते हैं ऊपर की कमाई अकेले डकारने के चक्कर में रहते हैं, उनसे माल खींचने में ये पूर्व पराजित एमपी का लेटर पैड फायदेमंद होगा,/...और क्या जनसेवा करेंगे?/जिस जे0 ई0 ने चंदा नहीं दिया था-वे सब अब नपेंगे, एक एक के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी है, उनके तबादले कराने हैं, ऐसी जगह पटकवांऊगा कि बेटे पाई-पाई को तरस जाएंगे,
मगर, 'पूर्व पराजित एमपी' के लेटरपैड से डरेगा कौन?
आप देखते रहिये, एमपी शब्द से तो अच्छे-अच्छे हिल जाते हैं, पूर्व पराजित शब्द छोटा व एमपी शब्द बोल्ड में लिखने से ऐसा लगेगा जैसे मैं एमपी ही हूँ, अनपढ़ इलाके में ज़्यादा ध्यान देता ही कौन है? फिर लोग पूर्व पराजित शब्द को बोलना छोड़ सीधे मुझे एमपी साब बोलेंगे,/...और कोई काम, जो आप इलेक्शन हारने के बाद करना चाहते हैं,
देखिये, हमारे देश में आबादी बड़ी तेज़ रफ्तार से बढ़ रही है मकानों, प्लाटों की ज़रूरत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है, प्राॅपर्टी डीलिंग शुरू करूंगा, प्लाॅट बेचूंगा बैठ कर/...मगर उसके लिए ज़मीन कहां से आएगी? बाप के अकेले आप तो होंगे नहीं, और भी बच्चे होंगे, वे कहां जाएंगे?/मुझे किसी से क्या लेना, सीधे-सीधे नहीं देगा बाप तो, उँगली टेढ़ी करूंगा. पचासेक बीघा बेच कर करोड़ों मिल जाएंगे...चैन से जिंदगी कटेगी,
वैसे आप किस पार्टी के ज़्यादा करीब है?/...जो भी पार्टी टिकट दे देती है, उसी के ज़्यादा करीब हो जाते हैं, वैसे परमानेंट निष्ठा जैसी बीमारी अपने को कभी नहीं थी
आपके शौक क्या क्या है?
सबसे पहला शौक तो मुफ्त का माल उड़ाना है, फिर झूठ बोलने में भी मुझे काफी आनन्द आता है, शराब गांजे का विशेष सेवन करता हूँ, जुआ भी मुझे इसलिए प्रिय है कि इसे महाराज युधिष्ठिर ने भी खेला था, मैं कृष्ण जी का भी फैन हूं, क्योंकि उनकी सोलह हजार रानियां थीं, मुझे तिलचट्टे पालने का भी शौक है, क्योंकि ये प्राणी उजाले से दूर ही रहता है, मुझे भी अँधेरा पसंद है,
मैंने सुना है कि आप आजकल एक नया कारोबार शुरू करने जा रहे हैं, उस पर कुछ प्रकाश डालेंगे?
वह भेद भरी मुस्कराहट होंठों पर बिखरेते हुए बोले-आप भी पहंुचे हुए फकीर मालूम पड़ते हैं, आखिर सूंघ ही गए हमारी भावी योजना, दरअसल हमारे चुनाव क्षेत्र में पुराने ज़माने के कई मंदिर हैं, तकरीबन सभी मंदिरों में पुरानी बेशकीमती मूर्तियां पड़ी-पड़ी सड़ रही हैं। हमने इन्हें विश्व बाज़ार में उतारने की सोची है,/...मगर फायदा क्या होगा?
फायदे तो कई हैं जैसे इन्हें बेच कर अच्छी खासी विदेशी मुद्रा हाथ लगेगी, दूसरे लोग भी इन्हें पूज-पूज कर थक गए हैं, उन्हें आराम मिलेगा, मंैने दो चार मूर्तियां बंबई पहंुचा भी दी हैं,
पता नहीं गर्व से झुका या शर्म से-मगर हमारा माथा ऐसे महान पूर्व पराजित एम पी के आगे झुक गया, हमने उनके उज्जवल भविष्य की कामना की और इस समाचार पत्र के दफ्तर की राह ली।
पराजित एम पी से बातचीत (व्यंग्य )