प्लॉट पुराण

उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी देहरादून में जमीन के प्लाट खरीदने वालों की असीम लालसा व अदम्य साहस को देखते हुए मेरा दिल भी स्वाभाविक रुप से एक अदद प्लाट खरीद लेने को मचल उठा। बस फिर क्या था,मैं दिन रात इसी उधेड़ बुन में खोया रहने लगा कि जैसे भी हो और जो भी जुगाड़ करना पड़े कम से कम  एक प्लाट चाहें छोटा सा ही क्यों न हो और नगर क्षेत्र से कितना ही दूर क्यों न हो मुझे भी लेना ही है और हर हाल में लेना है। हांलाकि राजधानी बनने के बाद से ही देहरादून व आसपास के इलाकों की जमीन के आसमान छूते रेट मेरा हौंसला पस्त किए जा रहे थे। इस वजह से जमीन के मामले में मेरी खुद की जमीनी हकीकत यह थी कि दून के इर्द गिर्द कहीं भी प्लाट खरीद पाना मेरी हैसियत और औकात से बाहर की बात हो गयी थी। लेकिन जब भी मेरी जानकारी में यह बात आती कि मेरे फंला रिश्तेदार, सगे      सम्बन्धी, मित्र अथवा परिचित ने हाल ही में दून में प्लाट खरीदा है तो लाजमी तौर पर मैं भी सोचने लगता कि जब मेरी जैसी सामाजिक-आर्थिक हैसियत वाला यह अगला भाई प्लाट ले सकता है तो मैं क्यों नहीं। और यही वजह थी कि मैं फिर से प्लाट खरीदने की उधेड़बुन में खो जाता। लेकिन जब किसी प्लाट की कीमत की बाबत पूछताछ करता और होश उड़ा देने वाले रेट सुनने को मिलते तो स्व0 जगजीत की गायी गजल गुनगुनाने लगता-आज फिर दिल में इक तमन्ना थी, आज फिर दिल  को हमने समझाया। लेकिन जनाब उस वक्त दिल को समझाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है जब कोई फितूर लगातार दिमाग में उथल पुथल मचाने पर आमादा हो। और फिलहाल  मैं भी इसी दौर से गुजर रहा था। फिर अपनी परेशानी को मुकम्मल तौर पर सुलझानेे का अचानक एक तरीका मुझे सुझायी दिया। मेरी अपनी जान पहिचान के एक जनाब जो कि दून के ही बाशिन्दे हैं तथा जमीन की खरीदो फरोख्त में अच्छा खासा दखल रखने के लिए मशहूर हैं का मुझे खयाल हो आया तो मैंने उसी वक्त उन्हें फोन लगाया। औपचारिक हलो हाय के बाद जब मैंने उसे असल मुद्दे से वाकिफ कराया तो उन्होंने दोस्ताना लहजे में मुझे समझाया,देखो भाई, शहर के अन्दर के इलाके में तो जमीन के भाव करोड़ों से ऊपर ही चल रहे हैं लेकिन यदि थोड़ा बाहर की ओर जैसे कि जोगीवाला, बाला वाला,मियांवाला,हर्रावाला,कुंआवाला, डोईवाला, भानियावाला, जीवनवाला वगैरह की तरफ भीतर की ओर  लेना चाहो तो मैं तुम्हें प्लाट दिखा देता हूं। उनके प्रोत्साहन रुपी लुभावने प्रस्ताव ने तत्काल मेरे मन में अनेक काल्पनिक प्लाटों के चित्र उभार कर रख दिए। अपने मन उठ रही जिज्ञासा को दबाने की असफल चेष्टा करते हुए मैंने उससे पूछा, अच्छा आजकल  इन इलाकों में क्या रेट चल रहा है? उन्होंने जवाब दिया, वैसे तो प्लाटों के कोई फिक्स रेट नहीं होते क्यांेकि जब जहां जैसा ग्राहक मिल जाय वैसा सेटलमेण्ट हो जाता है, लेकिन  आप अपने आदमी हैं इसलिए दस पन्द्रह लाख के हेर फेर में कोई बढ़िया प्लाट दिलवाने की पूरी कोशिश करुंगा। दस पन्द्रह लाख सुनते ही मुझे तो सांप सूंघ गया। मैंने मन ही मन हिसाब लगाया मुझ जैसे मध्यम वर्गीय को तो इतनी बड़ी रकम शायद रिटायरमेण्ट पर जाकर ही नसीब हो। थोड़ा सकुचाते हुए जब मैंने उन्हें अपनी हकीकत से वाकिफ कराया तो उन्होंने कहा, इससे कम में तो बहुत मुश्किल है फिर भी यदि मेरी जानकारी में आया तो बताऊंगा और ऐसा कहते ही उस तरफ से बिना देरी किए फोन काट दिया गया। इससे कम मे बहुुत मुश्किल है...शब्द बार बार मुझे दिल में चोट करते महसूस हो रहे थे। फिर मैं एक एक कर अपने उन परिचितों के बारे में सोचने लगा जिन्हांेने हाल ही में देहरादून में जमीन खरीदी थी बल्कि कुछ एक ने तो आलीशान मकान तक बनवा लिए थे।  गजब बात यह थी कि सभी की सामाजिक आर्थिक स्थिति लगभग मेरे जैसी ही थी। सोचते सोचते मैं खयालों में ही दूसरों के खर्चाें का हिसाब किताब लगाने में मशगूल हो गया। उसे लगभग इतनी तनख्वाह मिलती होगी...इतना बच्चों की फीस, पढ़ाई का खर्च...,दूध...,अखबार...,टेलीफोन...,गैस, राशनपानी...,मकान का किराया...आखिर जमीन के लिए अगले ने इतनी बड़ी रकम कंहा से जुटायी होगी? तभी मुझे अपने चचेरे भाईसाहब का मामला याद हो आया...वे नौकरी के शुरुआती दौर में एक बार ट्रान्सफर होकर उत्तरकाशी क्या गये कि वहीं के होकर रह गये। उत्तरकाशी जैसी शान्त व धार्मिक नगरी  में जिन्दगी का अहम हिस्सा गुजारने वाले भाई साहब पर लोगों की देखा देखी देहरादून जाकर बसने की न जाने क्या सनक सवार हुयी कि उन्होंने पहले तो जी0 पी0 एफ0 से लोन लिया,फिर बैंक से, फिर भी पूरी बात न बनी तो दोस्तों रिश्तेदारों से कर्ज मांगा यहां तक कि दुकानदारों से उधार तक किया...लेकिन येन केन प्रकारेण दून में एक प्लाट ले ही लिया तथा फिर कर्ज पर कर्ज चढ़ाकर किसी प्रकार मकान भी बना लिया। हांलाकि दीगर बात यह है कि इस प्लाट प्रकरण से लेकर मकान बनाने तक की प्रक्रिया में उनकी जो हालत खराब होनी थी सो तो हुयी ही लेकिन इसके बाद के हालात तो बद से भी बदतर हो गये। उनकी निजी जिन्दगी की गाड़ी इस कदर ऊबड़खाबड़ मार्ग से होकर गुजरी कि वे तौबा कर उठे। मकान बनने के बाद वे इस जुगाड़ में लग गये कि किसी तरह उनका ट्रान्सफर देहरादून हो जाय। निदेशालय से लेकर सचिवालय और सचिवालय से लेकर मन्त्रालय तक के अनगिनत चक्कर लगा चुके भाई साहब डेढ़ दो लाख रुपये फंसाने के बावजूद  आज तक  ट्रान्सफर आर्डर न हांसिल कर पाये हैं। ठीक यही हाल मेरे एक और मित्र का है। पति पत्नी दोनों ही शिक्षक हैं। जिनकी जिन्दगी का अधिकांश हिस्सा चमोली जनपद में और वह भी एक ही स्थान में एक साथ नौकरी करते हुए बडे़ सुख चैन से गुजर रहा था पर भी जब अचानक देहरादूनी नशा परवान चढ़ा तो कल तक मस्त गुजर रही उनकी जिन्दगी तमाम तनावों से घिर गयी। पहले तो उन्होंने प्लाट लेने के लिए देहरादून के  अनेक चक्कर लगाए, फिर अनेक एजेण्टों के साथ कई मोलभाव किए, कहीं लोकेशन गड़बड़ तो कहीं रेट सीमा से अधिक, कहीं पास पड़ोस अनफिट, तो कहीं रास्ते का लफड़ा, खैर काफी हील हुज्जत के बाद एक दूरस्थ इलाके में प्लाट का सौदा तय हुआ। वे अभी अभी इस झमेले से उबरे ही थे कि फिर मकान बनाने की सनक चढ़ गयी। आनन फानन में  मकान बनाने का ठेका किसी अनजान ठेकेदार को दे डाला। मकान का काम देखने के लिए अपने आप चमोली  से बार बार देहरादून आना संभव  नहीं हुआ, ठेकेदार ने अपना मुनाफा निकालने के लिए जितना दोयम दर्जे का माल लगाना था खूब लगाया, कितना सीमेण्ट कितना रेत लगा वो ही जाने या कि ऊपर वाला। इस्टीमेट भी अनुमान से बहुत ज्यादा खिंच गया खैर जैसे तैसे मकान बना तो फिर ट्रान्सफर की समस्या उठ खड़ी हुयी। नेताओं, मन्त्रियों तक की सिफारिश लगायी, क्या क्या पापड़ नहीं बेले आखिरकार पत्नी का ट्रान्सफर हो ही गया। हांलाकि मेरा यह स्थानान्तरण  केवल कहने भर को ही देहरादून में था। नियुक्ति स्थल चकराता त्यूणी के अति दुर्गम क्षेत्र में था। अब आलम यह है कि अवयस्क बच्चे देहरादून में बिना गार्जेन के उतने बड़े मकान में अकेले रहकर पढ़ाई कर रहे हैं, पत्नी शटल काक की तरह शनिवार इतवार को देहरादून व दूरस्थ विद्यालय के बीच उछलती रहती है, आप जनाब चमोली में अकेले जोगियों जैसा जीवन काट रहे हैं। मुलाकात होने पर जब उनसे पूछो और सुनाइये भाई साहब जीवन कैसा कट रहा है तो उनके चेहरे पर तैरती दुश्वारियां उनका दर्द अपने आप बयां करने लगती हैं। ऐसे ही मेरी जान पहिचान के न जाने कितने सारे लोग हैं जिनकी जिन्दगी का बस एक ही मकसद है किसी भी तरह दून में एक प्लाट का मालिक बनना। पौड़ी से लेकर पिथौरागढ़ तक,उत्तरकाशी से मुनस्यारी तक,जिसे भी देखो दून में बसने का सपना पाले हुए है। इसका एक कारण तो पहाड़ियों की प्रसिद्व भेड़ चाल ही है तथा दूसरे दून में प्लाट या मकान होना अब स्टेटस सिम्बल के रुप में भी माना जाने लगा है। जिसका दून में एक अदद मकान नहीं या जो कम से कम एक वहां  प्लाट का मालिक नहीं तो जान लीजिए कि उसके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं। यूं समझ लीजिए दून में मकान या प्लाट का होना समाज मंे आपकी एक अलग हैसियत निर्धारित करता है। इस मर्ज के मारे मेरे  एक और परिचित हैं जिन्होंने हाल ही में  अपना अच्छा खासा बना बनाया बड़ा मकान बेचकर दून के किसी दुर्गम इलाके में छोटा सा प्लाट लिया है। जब मैंने उनसे पूछा, भाई साहब मकान का काम कब शुरु कर रहे हैं तो वे बोले, अरे भाई, किसके मकान का काम, आज तक की जमा पून्जी से जो मकान बनाया था उसे बेचकर जितना पैसा मिला उतने में तो एक छोटा सा प्लाट ही ले पाया हूं। पहले रहने के लिये कम से कम अपना मकान तो था अब तो किराए के मकान का खर्च अलग से और बढ़ गया है।  न जाने मेरी अक्ल पर क्यों ताला पड़ा और मैं देहरादून के प्लाट के चक्कर में आ गया। मैं तो हर किसी को यही सलाह दूंगा, भइया देहरादून के चक्कर में न पड़ना नहीं तो बाद में  मेरी तरह पछताओगे। मैंने कहा, वाह भाई साहब,यह भी खूब रही, अपने आप तो दून में प्लाट ले लिया और अब देर सबेर मकान भी बनाएंगे ही। पर उपदेश कुशल बहुतेरे...। वे खिसयाई हंसी के साथ बोले,किसके मकान का काम यार...? वो प्लाट तो गड़बड़झाले में पड़ गया। सुनने में आया है कि जिसने रजिस्ट्री की थी उसके नाम तो वहां जमीन है ही नहीं। एक साल से ऊपर हो गया आज तक दाखिल खारिज नहीं हुआ। पहले रहने के लिये कम से कम अपना मकान तो था ना..ना.ना.ना..बिल्कुल ना...देहरादून में मकान कतई नहीं। प्लाट लेने की गल्ती कर बैठा सो कर बैठा। मकान तो अब पहाड़ में ही बनेगा। मैंने फिर कुरेदा,ऐसा भी देहरादून से क्या मोह भंग हो गया? वे बोले,यार जो बात अपने पहाड़ में है वो भला देहारदून में कंहा। आए दिन सुनने को मिलता रहता है कि देहरादून के फलाने इलाके में सड़क चलती महिला के गले से बदमाशों ने सरे आम चेन छीनी, किसी का पर्स लूट लिया,घर में रह रहे वृद्व दम्पति की गला रेतकर हत्या की, लाखों की नगदी व जेवरों की लूट, राहजनी, अपहरण, फिरौती, बलात्कार, अन्धाधुन्ध सड़क हादसे, भय असुरक्षा और ऊपर से बढ़ता प्रदूषण....ना भई ना! एक बार नहीं सौ बार भी पूछोगे तो मैं ना ही कहूंगा। भाई साहब के मजबूत इरादों से मुझे भी ताकत मिली और मैंने भी मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि देहरादून में प्लाट तौबा...तौबा!