पूजो नव प्रगतिमान को
सत्ता ने है बिसात बिछाई,
चिढ़ा चिढ़ा महॅंगाई ले आई
मानवता जीने को तरसाई,
मरने में न हुई समाई ।
भूख प्यास वह सहती आई ,
मन का दुख कह न पाई।
रोते झींकते वह रोटी पाई
वह भी आधी अधूरी ही खाई।
खुद खायें या बच्चों को पोसें
क्या सौंपें हम सन्तान को।
निर्धन को जो देते आये ,
पूजो न निर्मम सत्तावान को।
नदियाॅं बेची जंगल बेचे,
बेच दिये खलिहान तो
क्या बोयेंगे क्या काटेगे,
हम सूखे खेत वीरान कोेे।
छुआछूत हो ऊँच नीच हो
पर न हो जीवन समरसता।
देश लूटते हो पालक बेेईमान
न रोपें उस जनद्वेषी मैदान को।
नदियाॅं बेची जंगल बेचे,
बेच दिये खलिहान तो
क्या बोयेंगे क्या काटेगे,
हम सूखे खेत वीरान कोेे।
प्यार पोसती जहाॅं न हो बातें
अरि सा जो अपनों को ताके।,
दिल में न हो देशप्रेम अनुरागे ,
बचे न वहाॅं जीवन में संस्कार ,
बम फोड़ती हो आतंकी पाॅंखे।
दुख देता आये वहाॅं अहंकार ।
कटे न चैन से जीवन रातें।
दुत्कारो झूठे बेईमान को।
नदियाॅं बेची जंगल बेचे,
बेच दिये खलिहान तो
क्या बोयेंगे क्या काटेगे,
हम सूखे खेत वीरान कोेे।
धर्म हो पर अपराध घटे न ,
पैसा हो पर भूख मिटे न।
रहे आत्मा संवेदना विहीन
संस्कार बिना क्या हो जीना।
छल कपट यदि राजनीति का रस्ता
सत्ता शह पर पलें जहाॅं दानवता।
दुख अपराध पाप रिसाये जीवन में,,
मिटा दो धूर्त सत्ताप्रतिष्ठान को।
नदियाॅं बेची जंगल बेचे,
बेच दिये खलिहान तो
क्या बोयेंगे क्या काटेगे,
हम सूखे खेत वीरान कोेे।
फले दारूण दुख जिनके आने से
हर सके न क्षुधा तृषा ,मानव की।
बेगारी लाये दुख बढाती आये ,
पालों न उस अधकचरे ज्ञान को ।
दिल मिलाये भाव खिलाये,
आशा ले आये विश्वास बढाये ,
गाये देश की धुन में प्रगति के ,
सपनें अंगडाई जिसके आने से
पूजो नव प्रगतिमान को ,
मानवता के प्रतिमान को ।।,
नदियाॅं बेची जंगल बेचे,
बेच दिये खलिहान तो
क्या बोयेंगे क्या काटेगे,
हम सूखे खेत वीरान कोेे।ः