वक्रतुण्डोपनिषद


पुण्य सलिला गंगा / यमुना का मायका गिरिराज हिमालय का हृदय भारत का दिव्यभाल गढ़वाल हिमालय (गढ़वाल मण्डल) प्रकृति देवी के शिशु की क्रीड़ा भूमि सा धरा का अद्वितीय श्रृंगार है, अप्रतिम सौंदर्य का आगार है। इसकी अपनी अलग ही ऐतिहासिक परम्परा है और भौगोलिक विशिष्टता भी। जैसी इसकी ;गढ़वाल मण्डलद्ध एक पृथक सामाजिक पृष्ठभूमि है, वैसी ही सांस्कतिक सुष्ठता भी है। देवी-देवताओं का क्रीड़ास्थल होने के साथ-साथ गढ़वाल यक्ष, गंधर्व, किन्नर एवं अप्सराओं का अधिवास तथा ऋषि मुनियों के तप और अजस्र चिंतन एवं दर्शन का कल्पनालोक भी है। इसकी संस्कृति के विशिष्ट अंग है-देवी-देवताओं के सुमधुर आह्वान गीत, हृदयहारी बारहमासा व खुदेड़ गीत, भड़ों के जागर तथा पाण्डव वार्ता आदि। लोक में जब कभी एक परिवार पर या सम्पूर्ण समाज पर किसी भी प्रकार की संकट की स्थिति बनती है तो उससे निपटने के लिये उत्तराखण्डियों के पास एक ही विकल्प है-लोक वाद्यों ;ढोल-दमाऊं व डौंरू-थालीद्ध के माध्यम से औजियों ;ढोलसागर, दैंत संहार के ज्ञाता हमारे ढ़ेल वादकद्ध व जागरियों द्वारा देवी-देवताओं का स्तुतिगान कर उन्हें आहूत करना तथा धूप, दीप व नैवेद्य द्वारा उनकी पूजा अर्चना कर अपने दुख-दर्द के शमन का निवेदन करना।
गणेश जी यद्यपि प्रथम पूज्यनीय देव हैं परन्तु देखने में आया है कि लोक में न तो उनके जागर ;स्तुतिगानद्ध उपलब्ध हंै और न ही उन्हें किसी प्रकार के गायन- वादन पर आहूत किया जाता है। उनका अपना एक अलग ही ठाठ-बाट है। गण के देव हैं, अतःगणपति कहलाते हैं। गढ़वाल मण्डल ही नहीं समस्त भारत में सनातनी हिन्दुओं का शायद ही कोई ऐसा घर होगा, जिसके मुख्य द्वार पर गजानन चित्रित न हों। हिन्दू समाज में जब भी कोई मांगलिक कार्य होता है अथवा किसी महान व विशिष्ट कार्य का शुभारम्भ होता है तां सर्वप्रथम गौरी पुत्र गणेश को ही आमंत्रित कर, उन्हें सर्वश्शु( आसन पर बैठाकर धूपदीप आदि से उनकी पूजा-अर्चना की जाती है-
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। 
निर्विघ्नं कुरू में देवः सर्वकार्येशु सर्वदा।।  तथा
 विघ्नहरण मंगल करण श्री गणेश महाराज।
 प्रथम निमंत्रण आपको पूरण कीजै काज।।
गढ़वाली लोक साहित्य ;मांगल, गीत जागर आदिद्ध का प्रारम्भ भी श्री गणेश के आह्वान से ही हुआ मिलता है-
बीजो जावा बीजी हे, खाली का गणेश।
बीजी जावा बीजी हे, मोरी का नारेण।।  तथा
 प्रभात को पर्व जाग, गौ स्वरूप पृथ्वी जाग,
 धर्म रूपी आगास जाग, उदंकारी कांठा जाग।
 भानुपंखी गरूड़ जाग, सिरी सत लोक जाग।
 ब्रह्मा जी को वेदजाग, गौरी को गणेश जाग।।
कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखण्ड ही नहीं सम्पूर्ण भारत में होने वाले छोटे-बड़े सभी तरह के मांगलिक कार्यो का प्रारम्भ गौरी पुत्र गणेश की पूजा अर्चना से ही होता है। उन्हें पवित्र आसन पर बैठाया जाता है, धूप-दीप, नैवेद्य फूल-पुष्प आदि से उनकी पूजा अर्चना की जाती है। इस अवसर पर पुरोहित नारद पुराण में वर्णित उनकी स्तुति का सस्वर पाठ भी करते हैं-
प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्र विनायकम्
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु़ः कामार्थ सि(िये।।
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्। 
तृतीयं कृष्णपिगंलाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थवाम्।।
 लम्बोदरं पंचम च षष्टं विकटमेव च।
 सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्ण तथाष्टमम्।
 नवमं भालचन्द्र च दशमं तु विनायकम्।
 एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्।। आदि।
इन्हीं गणपति को आराध्य मानकर भाषा संस्कृति तथा दार्शनिक सोच के     मूर्धन्य लेखक एवं कवि श्री शाक्त ध्यानी ने भाषा, संस्कृति, )तुचक्र, पर्यावरण -प्रदूषण, प्रकृति, संस्कृति, सामाजिकता, राजनीति, जीवन चक्र तथा पुरूषार्थ-चतुष्टय को वक्रतुण्डोपनिषद नामक इस महाकाव्य की विषय वस्तु बनाकर उपनिषदों की लम्बी फेहरिस्त में एक नाम और जोड़ दिया। मुण्डकोपनिषद का एक वाक्य है 'आध्यात्म साधना से सफल मनोरथ होने के लिए उपनिषद महान अस्त्र है। इसका अध्ययन मनन करन से अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है। सम्भवतः इसी को ब्रह्मवाक्य मानकर ध्यानी जी ने दो काम किये-एक वक्रतुण्डोपनिषद महाकाव्य की रचना की दूसरे अपनी मासिक पत्रिका हलन्त के मुखपृष्ठ पर-अक्षर ब्रह्म है, बह्मास्त्र भी...जैसी आदर्श विज्ञप्ति को स्थान दिया। वक्रतुण्डोपनिषद रूपी महाकाव्य का अध्ययन मनन करने में इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि ध्यानी जी अपने पूर्व जन्म में महान मनीषी एवं )षि रहे होंगे।
महाकाव्य रूपी इस कृति वितृष्णा तक, नौ सर्ग हैं तथा सर्गों से प्रारम्भ से पूर्व कवि ने गणपति का आह्वान किया। सर्ग से पूर्व ईशस्तव और कुछ पंक्तियों में सर्ग विशेष के वैशिष्ट्य का सारगर्भित परिचय है। ये सर्ग अपने आप में इतने पारदर्शी हैं कि कोई भी विवकेशील पाठक इनकी गहराइयों में आसानी से उतर सकता है तथा भाषा के शब्दों के सूक्ष्मतिसूक्ष्म अर्थांे तक पहुंच सकता है। इस महाकाव्य की एक और बड़ी खूबी यह है कि प्रत्येक सर्ग में गणपति महाराज अपने किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं।
यथार्थ में कवि का काव्य चिंतन जीवनानुभवों से जुड़ा हुआ लगता है। साथ ही उसमें आध्यात्मिकता और दार्शनिकता का पुट भी समाहित है। जीवनानुभवों से जुड़ी अधिकांश पंक्तियां सहज ही महाकाव्य की संचित पूंजी बन गई हैं। महाकाव्य का अभिव्यक्ति पक्ष भी कवि की अनुभूति पक्ष के समान ही अर्थ   प्रधान है। सामाजिक क्रांति को प्रखर बनाने के लिए कवि ने प्रतीक और बिम्बों का सहारा लिया है, जो स्वयं में स्वतः स्फूर्त हैं। सामाजिक विषमताओं के साथ-साथ नारी जीवन की विषमताओं को कविवर शाक्तध्यानी ने विशेष रूप से उभारा है। अध्यात्म और प्रकृति प्रेमी होने के नाते उन्होंने महाकाव्य में अनेक शब्द चित्रों को गड़ा है तथा अधिकांश प्रतीक प्रकृति से ही लिए हैं, और उन्हीं के माध्यम से अमूर्त भावों को मूर्त रूप प्रदान कर रहे हैं। भाषा और शैली भावों की अनुगामिनी बनकर महाकाव्य को रोचकता प्रदान कर रही है। नारी, पर्यावरण, और पुरूषार्थ चतुष्टय जैसे विषयों से निकटता उसके संपूर्ण परिवेश के प्रति प्रेम और गहरी रूचि कविवर ध्यानी की दार्शनिकता को झलकाती हैं। मैंने सर्गो की क्रमवार व्याख्या एवं विवेचना को सूक्ष्म रूप में करने का भरसक प्रयत्न किया है। इस पर भी मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं हो रहा है कि महाकवि / चिंतक शाक्त ध्यानी जिस गहराई तक उतरे हैं उस गहराई को नाप पाना मेरी सामथ्र्य से बाहर है। कुछ प्रयत्न अवश्य किया है, सफल कितना हुआ हूं।कृकृ;जारीद्ध