साहित्यिक गढ़वाली का राजपथ कैसे बने?

विदेशी शासन से अगस्त 1947 में मुक्ति के उपरांत और जनवरी 1950 में स्वीकृत भारत के नये संविधान के अनुसार समय-समय पर जन-आकांक्षाओं के अनुकूल देश में राज्यों का गठन होता रहा। इसी क्रम में लम्बे संघषपूर्ण आंदोलन के फलस्वरूप 28 अगस्त 2000 ई0 को राष्ट्रपति की स्वीकृति के उपरांत ''उत्तरांचल'' (अब उत्तराखण्ड) उत्तर प्रदेश से पृथक करके असितत्व  में आया। पहली अप्रैल 2001 से विशेश राज्य का दर्जा मिलने से यह देश का 11 वां ''विशेष पर्वतीय प्रदेश'' भी बन गया। पृथक राज्य निर्माण के पीछे विकास का स्वप्न दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन 10 सें अधिक वर्ष बीतने पर भी न तो र्भातिक विकास के लिए भटकते लोगों का पलायन रूका और न ही उनके सांस्कृतिक विकास के लिए कुछ ठोस हुआ। बल्कि उल्टे संस्कृति की रीढ़ रूपी उनकी मातृभाषा ही विखरकर विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है। किसी विद्वान का कथन कि--- लैंगुएज इज द बेस्ट प्रेजर्वेटिव ऑफ़ कल्चर ट्रेडिशन हिस्टरी आर्ट एंड थिंग्स दैट एक्सिस्ट टुडे और एक्सिस्टेड इन द पास्ट ----   बहुत सार गर्भित है। प्रत्येक समाज की संस्कृति हजारों हजार वर्षो का इतिहास महान उपलब्धियां श्रेष्ठ परम्परायें और खट्टे मीठे अनुभव उनके लोगों की स्मृति में किसी न किसी रूप में बोलीभाषा के 'शब्दों में समाए रहते हैं जो कि आगे चलकर उनकी भावी सभ्यता को ढालते हैं। अपनी बोली-भाषा के प्रति श्रद्धाभाव और लगाव तथा उसके संरक्षण संवर्धन और प्रचार-प्रसार के लिए इसीलिए दुनिया के सभी क्षेत्रों की तरह उत्तराखंड के विवेकशील बुद्धिजीवी लोग भी स्वाभ्ळााविक रूप से अत्यधिक चिंतित है। वे भी अपनी बोली को श्रेष्ठ साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित देखने के लिए लालायित और सक्रिय है। गढ़वाली और कुमाऊंनी लोक भाषाएं विकास के समान स्तर पर है इस कारण उनकी समस्याएं भी समान है। यहां गढ़वाली को ध्यान में रखकर इस समस्या का विवेचन किया जा रहा है।
बोली अथवा लोक-भाषा और साहित्य में मात्र उनके विकास के स्तर का मुख्य अंतर होता है ऐसा ही जैसे कि ''बालक'' और ''युवक'' में। इस द्दष्टांत के  परिक्षेय में हम बोली को मनुष्य के बालपन और साहित्य को उसका यौवन कह सकते हैं। इस द्दष्टि से हम वर्तमान स्थिति में गढ़वाली को बालपन से आगे और यौवन से पूर्व की स्थिति अर्थात् ''किशोरावस्था'' में कह सकते है जिसमें  मनुष्य की आशायें, अपेक्षाएं और उसमें आकाश में उछाल मारती हुई कुछ कर गुजरने के लिए बेताब रहती है। गढ़वाली समाज केि बुद्धिजीवी गढ़वाली को साहित्यिक भाषा के रूप में गढ़ने विपुल साहित्य का निर्माण करने और उसे वैधानिक दर्जा दिलाने आदि भाषायी समस्याओं के निराकरण के प्रति चिंतित अवश्य है लेकिन एक किशोर की जैसी अपिरक्व मानसिकता के कारण वह सही मार्गदर्शन और सुगम व सरल मार्ग की तलाश में अटकर हुआ है।
बोली को साहित्य के रूप गढ़ने के लिए उसकी शब्द-सम्पदा की विज्ञानता शब्दों कि परिनिहित और न बदले जा सकने  वाले मर्यादित रूप और वाक्यों की रचना में निश्चत नियमों (व्याकरण) का पालन होना बहुत आवश्यक होता है जो कि रेल की पटरिओं की तरह भाषा को निश्चित मार्ग से गंतव्य पर ले जा सके। 'बोली' का प्रभाव-क्षेत्र सीमित होता है और हम इस कारण थोड़ी-थोड़ी दूरी पर उसमें विभिन्नता के अलावा शब्दों के रूप उच्चारण और उनका विधान (व्याकरण) भी बदल जाता है। यह भेदीकरण की स्थिति साहित्य के विकास के मार्ग में वड़ी कठिनाई पैदा करती है। यूं तो कुछ विद्वान भाषा के भेदीकरण को साहित्य की सम्पन्नता का लक्षण भी मानते हैं लेकिन गढ़वाली के संदर्भ में तो जैसे कि कहावत है ''सात कोस पर बदले पानी, कोस कोस पर वानी'', बोली उपबोलियों के अनेक रूपों के कारण इस भाषा के विकास का मार्ग तय नहीं हो पा रहा है। आर्ज गियर्सन ने इसके आठ भेद माने हैं, चक्रधर बहुगुणा ने छह ऐसे ही अन्य विद्वान और कुछ। मोटे तौर पर वर्तमान में तीन भेद सभी स्वीकार करते हैं- 1. श्रीनगरी-टिहरीयाली 2. सलाणी 3. जौनसारी रवाल्ुटी। मानक रूप निश्चित न होने के कारण लेखक दुविधा में होिते हैं ता पाठक भ्रम में जिसके कारण साहित्य के सर्जन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भाषा की स्वीकार्यता और विश्वसनीयता के लिए शब्दों के मानक रूप निश्चित और अपरिवर्तन होने परम आवश्यक है। गढ़वाली में मानकीकरण का प्रश्न तबसे चर्चा में है जबसे प्रिटिंग का काम शुरू होने से यहां गढ़वाली में लेखन के शुरूवाती प्रेमियों श्रीनगर की त्रिमूर्ति सर्वश्री हरिकृष्ण दुर्गावती पं0 लीलादत्त कोअनाला म0 हर्षपुरी गुसांई ने 1875 ई0 के आसपास से इस भाषा में लिखना शुरू किया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह समस्या सवा सौ से अधिक वर्षो से चल रही है। वैसे इसमें अधिक आश्चर्य की भी कोई बात एनहीं है क्योंकि सभी बोलियों को साहित्य बनने से पहले  इसी प्रकार के लम्बे सफर और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। हिन्दी भाषा का इतिहास प्रमाणस्वरूप हमारे सामने हैं।
हिन्दी साहित्य का इतिहास उसके भक्ति काल से प्रारम्भ माना जाता है जिसमें संत कबीर (1398-1518) का नाम सबसे पहले आता है। इनके बाद सूर दास ( 1498-1583), मीराबाई (1498-1546), तुलसीदास (1532-1623) आदि कवि हुए हैं। यद्यपि कबरीर से भी पहले भक्ति आंदोलन के उपदेशक संत रामानंद (1299-....) ऐसे पहले वैष्णव प्रचारक थे जिन्होंने दक्षिण से उत्तर भारत में आकर हिंदी में उपदेश/प्रवचन दिया। सभी भक्तसंत (कवि) देश के विभिन्न प्रांतों के वासी थे और विभिन्न भाषाओं में अपने प्रवचन (उपदेश, भजन आदि) करते थे। इनके प्रवचनों ने समाज पनर उनकी अपनी भाषा की छाप छोड़ी और विशाल शब्द संपदा का उपहार देकर हिंदी को एक सशक्त भाषा बनाने में अपनी भूमिका निभायी। हिंदी को संवारने व एक श्रेष्ठ सशक्त व्यावाहारिक और व्याकरण सम्मत साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित होने में चैदहवीं सदी के (कबीर आदि से लेकर उन्नीसवीं सदी-महावीर प्रसाद द्विवेदी, कि0 दा0 बाजपेयी, बाल मुकुंद गुप्त, कामता प्रसाद गुरू आदि) अनेक भाषा-परिष्कारी विद्वानों के जीवनकाल तक लगभग पांच सौ साल का मय लग। यदि खालिकबीर जिसे अमीर खुसरों (1253-1325) द्वारा रचित तथा हिन्दी को पहला कोश माना जाता है। और जो नस्तालीक लिपि के अलावा नागरीलिपि में भी है ये हिंदी का प्रारम्भ माने जोकि तर्कसंगत भी है तो विकास की यह अवधि सात सौ साल से ऊपर की बैठती है। इस हिसाब से क्रूा गढ़वाली के विकास कोभी ऐसा लम्बा समय लगना चाहिए? नहीं, क्योंकि प्रौद्योगिकी की तरक्की स तबसे जमाना बैलगाड़ी के युग स कम्प्युटर के युग में पहुंच चुक है, अतः अब इतने लम्बे समयस की दरकार नहीं रही फिर भी बहुत कुछ करने की जरूरत तो है ही। चन्द व्यक्तिगत प्रयासों के अतिरिक्त अभी गढ़वाली के ऐसे शब्द कोश अैर व्याकरण जिन्हें आधिकारिक कहा जा सके प्रकाशित नहीं हो पाए हैं। ऐसे में गढ़वाली के तीव्र विकास के लिए कौन सा सहज व निष्कंटक मार्गग् अपनाया जाय-यह विचारणीय प्रश्न है। भारत की अन्य विकसित भाषाओं जिनमें हिंदी भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से हमारी सबसे नजदीकी यंयाधर भाषा है, के द्वारा पूर्व में अपनाए गए मार्ग का अनुसरण करना हमारे लिए विवेकपूर्ण और सुगम रहेगा। यूं तो गढ़वाली भाषा पर अनेक प्राचीन भाषाओं यथा वैदिक, संस्कृत, पाली, प्राकृत एवं अपभ्रंश, दरद, पैशाची, खस, किन्नर, आदि तथा नव्य आर्य भाषाअणें-राजस्थानी, मराठी, गुजराती, ब्रज, अवधि, बंगला, पंजाबी, सिंधी आदि सभी का कुछ न कुछ प्रभाव मौजूद है फिर भी वर्तमान में वह अन्य के मुकाबिले हिंदी के सबसे निकट है। डा0 अचलानंद जखमोला अपने लेख गढ़वाली भाषा में लिखते हैं- '' यह सत्य है कि गढ़वालवासिओं द्वारा हिंदी को अपना लेने के फलस्वरूप गढ़वाली भाषा पर हिंदी, विशेष रूप से हिंदी शब्दावली का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है, परन्तु भाषा विज्ञान की द्दष्टि से गढ़वाली हिंदी से उतनी ही दूर और भिन्न है जितनी मराठी, पंजाबी, गुजराती या बंगाली। ''(कोश विधा-पृ. 136) आचार्य किशोरी दास वाजपेयी ने हिंदी भाषा संघ की मौलिक कल्पना की थी। अवधी राजस्थानी ब्रजभाषा भोजपुरी मैथिली आदि स्वतंत्र भाषाओं का एक संघ बन गया था। न जाने कब। इसको हम हिंदी संघ कहते हैं....उनका कोमनवेल्थ बहुत पुराना है। इस हिंदी संघ के निर्माण में स्थिति विशेष कारण है और नागरी लिपि ने इसे एक सूत्रता प्रदान की है। (कि0दा0वा0ले0वि0द0राकेश-53)। बाजपेयी जी द्वारा कल्पित उक्त संघ की सभी भाषाओं के अनेकानेक शब्द गढ़वाली घुले मिले हैं और गढ़वाली ने भी देवनागरी लिपि अपना रखी है। इस द्दष्टि में गढ़वाली भी इस हिंदी संघ की स्वाभाविक और अनुकरणीय होना चाहिए। अतः हिंदी की विकास यात्रा का राजपथ गढ़वाली के लिए स्वाभाविक और अनुकरणीय होना चाहिए। एक सूत्रता का एक अन्य महत्वपूर्ण सूत्र इन दोनों भाषाओं को संस्कृत से पैतृक सम्बंध होना भी है। उक्त धारण का महत्व इस तथ्य की स्वीकार्यता के विरोध में नहीं है कि गढ़वाली एक स्वतंत्र भाषा है बल्कि इस बात मंें हैं कि हमें इस अविकसित भाषा के विकास के लिए सही दिशा और सुगम मार्ग की आवश्यकता है। निःसंदेह इसके लिए हित चिंतक भी हो सकते हैं जो हिंदी के वर्चस्व को गढ़वाली के विकास में बाधा के रूप में देखते हैं। हिंदी की विकास यात्रा का सक्षिप्त परिचय इस जानकारी से उपयोगी होगा कि उसके परिष्कार का गम्भीर प्रयास विकास के उस स्तर पर हुआ जब उसमें पर्याप्त और लिखित साहित्य तथा शोध-साहित्य के रूप में विशाल भंडार एकत्र हो चुका था, साहित्य की सभी विधाओं में विद्वानों ने हिंदी की समर्थता सिद्ध कर ली थी, विचारों के क्षेत्र से आगे राष्ट्रीयता और फिर गम्भीर अंतर्राष्ट्रीय विषयों व चिंताओं पर अपना द्दष्टिकरेण लेखों के द्वारा में स्पष्ट कर सकने की क्षमता सिद्ध करके विश्व साहित्य में भी स्थान बनाने एलगा था। मेरा आशय हिंदी के इतिहास के उस काल से है जब भारत के साहित्यकाल में ज्वाज्वल्यमान नात्रस्वरूप रामचंद वर्मा, डा0 भोला नाथ तिवारी, डा0 देवेंद्र वर्मा, डा0 हरदेव बाहरी, माता प्रसाद गुरू, डा0 धीरेन्द्र वर्मा, डा0 श्यामसुंदर दास, डा0 नगेद्र, डा0 राम कुमार वर्मा, राम चंद्र शुक्ल, महावीर द्विवेदी, बाल मुकुंद गुप्त, और किशोरी दा बाजवपेयी प्रभुति अनेक विद्वान समय-समय पर हिंदी की प्रकृति को ध्यान में रखकर भाषा-शास्त्र और उससे जुड़े विभिन्न विषयों एवं शाखा-प्रशाखाओं केक क्षेत्र में गहन अध्ययन चिंतन और शोध पर आधारित ग्रंथों की रचना के द्वारा हिंदी के विकास का मार्ग आलोकित कर रहे हैं। स्वतंत्र भाषा के रूप में हिंदी की प्रकृति और प्रवृति के महत्व की पहचान करके उसके अपने व्याकरण और वाक्य गठन में शब्दों के व्यवहार को लिपिबद्ध कर रहे थे। यही नहीं, ऐसा करते समय वे अपनी मान्यताओं की स्वीकृति और पुष्टि के लिए विरोधियों की अप्रसन्नता की चिंता किए बिना अपने पक्ष में निर्णय लेने के लिए दबाव बनाने का साहस दिखा सकते थे। प्रसंगवश की शालिगराम  शास्त्री की श्री कि0 दा0 वाजपेयी जी के सम्बन्ध में यह टिप्पणी अवलोक्य है  ''श्रीयुत वाजपेयी जी ने अपनी लेखमाला में खिल्ली उड़ाई है और ठहर-ठहर कर बड़े गर्जन तर्जन के साथ हमारी भर्तसना की है और यह सब किया किसके बल पर? इसी साहित्य ज्ञान के बल पर जिसका आप नमूना देख रहे हैं।''   ( लेख माधुरी व0 7.2/सं01)  भारतीय साहित्य के निर्माता किशोरीदास वाजपेयी शीर्षक गं्रथ में लेखक विवष्णुदत्त राकेश ने ऐसे अनेक प्रसंगों का उल्लेख किया है जिनमें हिंदी के स्थापित सम्मानित व धुरंदर विद्वानों की धारणा के विरूद्ध वाजपेयी जी ने अपना मत उनसे मनवाकर विमति का संशोधन स्वीकार कराया था। उदाहरणार्थ कुछ शब्दों की प्रचलित वर्तनी से अलग यथा देहिक दोपहरी दैविक और भूतिक शब्दों के स्थान पर हिंदी की प्रकृति के अनुकूल क्रमशः दैहिक दुपहरी दैनिक और भौतिक शब्द उपयुक्त बताकर सही शब्दों के लिए अपने स्तर पर भरसक प्रयत्न किया जो अब स्वाभाविक रूप से चलन में है। इसी प्रकार राष्ट्रीय अन्तराष्टीªय के स्थान पर राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय और संसद सदस्य सही प्रयोग घोषित किए गए हैं और आज यही रूप मान्य हैं। जाये नयी और चाहिये के स्थान पर (इन शब्दों में य बजाय ए/ई) अर्थात् क्रमशः जाए नई और चाहिए रूप स्वीकार कराने के एलिए उन्हें बहुत तर्क-वितर्क औश्र वादविवाद में उलझाना पड़ा। सर्वप्रथम वाजपेयी जी ने बताया कि हिंदी में हलंत व विसर्गात और व्यजनांत जैसी स्थिति नहीं है। हिंदी में उन्होंनंे हलिंत के प्रयोग को अनावश्यक बताया। हिंदी शब्दानुशान हिंदी की वर्तनी और शब्द निश्लोषण अच्छी हिंदी तथा राष्ट्र भाषा का प्रथम व्याकरण आदि 13 पुस्तकें और अनेकों लेख लिखकर हिंदी के साहित्यिक व परिमार्जित स्वरूप को निखारने का निरंतर प्रयास किया। डा0 अमर नाथ झा ने उनकी पुस्तक राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण की भूमिका में लिखा है- द्विवेदी जी के एकलव्य के रूप में इन्होंने अपने आरम्भ का साहित्यिक जीवन व्यतीत यिका। मुझे विश्वास है कि इसको पढ़कर कम से कमि गुजरात महाराष्ट्र और बंगाल के निवासी हिंदी व्याकरण के मूल निवासी से परिचित हो जाएंगे और पुस्तक से हिंदी के प्रचार में सहायता मिलेगी।'' कहने का आशय यह है कि किसी भी भाषा के परिष्कार के लिए जितने गहरे औश्र सुक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण और भाषायी ज्ञान की आवश्यकता होती है वैस्ी सूक्ष्मता में जाकर और वैसे ही प्रयास गढ़वाली के सम्बन्ध में भी होने चाहिए। क्या वह हो रहे हैं, वह देखता इस समय सबसे महत्वपूर्ण कार्य और इस लेख का उद्देश्य है। स्वयं गढ़वाली शब्द के प्रथम अक्षर 'ग' को छोड़कर शेष तीन के रूप अलग-अलग ढंग से लिखे जा रहे हैं जैसे ढ, ढ./ य, या/ लि, ली/ ळि, ळी को परस्पर भिन्न ढंग से मिलाकर लिखना। इस प्रकार यजह एक शब्द ही कम से कम दस से अधिक तरह से भिन्न वर्तनी/उच्चारण में लिखा व बोला जा रहा है जबकि यह संज्ञा (नाम) शब्द है जिसमें ऐसे अराजक परिवर्तन नहीं होने चाहिए। इस सदंर्भो में उस विद्वत वर्ग की इस धारणा की ओर भी संकेत करना उचित प्रतीत होता है जो ठेठ आचंलिक शब्दों के प्रयोग को गढ़वाली भाषा का आत्मा मानते हैं भले ही वे अब चलन में नहीं रहे हों। गढ़वाली भाषा से इतर देश में अन्य पूर्व प्रचलित भाषाओं यथा उर्दू और फारसी आदि के शब्दों को उनके वास्तविक व मूल प्रचलित रूप से भिन्न तरह से विकृत करके, संक्षिप्त करके या उसका कुछ अंश विलुप्त व भ्रष्ट करके लिखने/बोलने को वे इस आधार पर उचित और आवश्यक बताते हैं कि ऐसा करके ही ये विदेशी शब्द गढ़वाली (बोली) में खप सकते हैं। बोली तक तो माना ठीक है लेकिन क्या साहित्यिक गढ़वाली में शब्दों के नितांत भ्रष्ट रूप को रखना उचित होगा क्योंकि ऐसे ग्राम्य प्रयोग वास्तव में अल्प शिक्षित या अशिक्षित लोगों द्वारा और उन भाषाओं की सही जानकारी न होने के कारण किए जाते है जैसे वर्ज (वजह) जादा (ज्यादा), नजीक (नजदीक), ज्युंदा (जिंदा) सै (सही) आदि। क्या साहित्यिक गढ़वाली में ऐसे अज्ञान जनित शब्दों को महत्व देना ठीक होगा? गढ़वाली के कुछ अति उत्साही लेखकों के द्वारा ग्राम्य शब्दों के प्रति मोह के वशीभूत समाज में बहुत पहले कभी प्रचलन में रहे अपशब्दों (गालियों) के प्रयोग को भी बड़े अपनत्व और श्रद्धाभाव के साथ प्रयोग किया जाता है जिससे साहित्य की मर्यादा का अतिक्रमण होता है। जहां गढ़वाली में साहित्यपयोगी शब्द मौजूद है वहां भी उन्हें छोड़कर ग्राम्यशब्द प्रयुक्त करना क्या केवल इसीलिए जरूरी है कि ऐसा न करने से ठेठ गढ़वाली का ठाठ बिगड़ जायेगा जैसे पुस्तक के लिए पोथी लेखक के लिए लिख्वार गीतकार के लिए गित्वार और विशेषज्ञ के लिए जणगूर। आखिर साहित्यकार के लिए क्या कहें? यदि हम साहित्यकार शब्द का ही प्रयोग कर दें तो क्या अनर्थ हो जाएगा? क्या पोथी और लिख्वार शब्द क्रमशः अति साधारण पुस्तक और लिखने का साधारण काम करने वाले मुंशी या क्लर्क के लिए रूढ़ नहीं हो चुके हैं। क्या महान ग्रंथों के रचियता महर्षि व्यास महाकवि कालिदास तुलसीदास आदि महान साहित्यकारों को लिख्वार और उनकी विश्व विख्यात कृतियों को पोथी कहना उनका अवमूल्यन करना नही है? लोभाषा (बोली) साहित्य की प्रारम्भिक औश्र अराजक रूप होती है जिसे संवारकर व परिमार्जित कर साहित्य के अनुकूल बनाना आवश्यक होता है। लोकभाषा के शब्द अनगढ़ पत्थरों की तरह होते हैं जोकि साहित्य के भव्य भवन की बुनियाद के लिये भले ही उपयोगी होते हों, नींव के ऊपर ऊंचे प्रासाद के निर्माण में अच्छे व तराशे गए पत्थरों का ही उपयोग उचित होता है। जैसे हम अपने स्वप्नों के भवन के लिए अति दूर राजस्थान का श्रेष्ठ संगमरमर का प्रयोग करना आवश्यक समझते हैं, उसी प्रकार गढ़वाली को आकर्षक साहित्यिक सम्पन्न भाषा बनाने के लिए हमें बाहरी भाषाओं के शब्द लेने पडेंगे वह हिंदी हो या कोई अन्य भाषा। इसलिए हिंदी के प्रति भेदभाव या दुर्भावना  उचित नहीं है। ऐसी मानसिकता हमारे संकुचित द्दष्टिकोण का परिचायक है। महत्वपूर्ण बात यह है कि बोल और भाषा में बड़ा अंतर है। स्वभावतः हम बोली (लोेकभाषा) में बात करते हैं साहित्यिक भाषा में नहीं। बोली के लिए लिखित व्याकरण की आवश्यकता नहीं होती लेकिन साहित्य वह तभी बन पाता है जब शब्दों के रूप सर्वस्वीकृत व मानकीकृत हों और भाषा व्याकरण सम्मत हो। मूल बोलियों की अधिकता की स्थिति में मानकीकरण और भी अधिक और भी आवश्यक होता है। साहित्य लोक-साहित्य (बोली) का अनुयागी या अनुचर नहीं हो सकता। हिंदी भाषा के विकास के क्रम में बीसवीं सदी में देश के विद्वानों के द्वारा जो चिंतन-मंथन और अंततः निर्णय हुए उनमें से अनेक गढ़वाली की अपनी प्रकृति के अनुकूल ढालकर अपनाना गढ़वाली के व्याकरण के अनुसार विदेशी शब्दों के लिंग वचन निश्चित करना (स्कूल-स्कूलों, स्टूल-स्टूलों) अधिक संधि समास व क्लिश्टता से दूरी बनाना व्यंजनात और विसंगत शब्दों की अमान्यता आदि। वर्तमान में गढ़वाली भाषा के परिष्कार और संवर्धन के लिए डा0 जखमोला विशेष रूप से प्रयत्नशील है और वे गढ़वाली कोश निर्माण के साथ-साथ अपने लेखों के द्वारा निरंतर गढ़वाल के लेखकों को दिशा निर्देश देते रहते हैं लेकिन उनके लेखों पवर अन्य विद्वानों की प्रतिक्रिया नहींे आती जो कि बहुत आवश्यक है। अपने लेख- (गढ़जागर दि0 14 अप्रैल 11) में उन्होंने आवश्यकता है गढ़वाली भाषा सर्वेक्षण की के द्वारा इस भाषा की मानक सम्बन्धी समस्याओं के निदान के निर्मित सर्वेक्षण कराने का महत्व प्रतिपादित किया है जो कि हमारी तात्कालिक व सामाजिक आवश्यकता है।
हिंदी भाषा के सुचिंतित मानक व आधिकारिक व्याकरणों जिनमें श्याम जी गोकुल वर्मा डा0 कमल सत्यार्थी डा0 रवि प्रकाश दीप्ति प्रकाश और हिंदी के प्रथ्म व्याकरण्एा निर्माता स्व0 पं0 कामता प्रसाद गुरू द्वारा रचित व्याकरण पुस्तकों को ध्यान में रखकर गढ़वाली भाषा का सर्वागीण व्याकरण बनाने का स्तुल्य कार्य विदुषी महिला श्रीमती रजनी कुकरेती द्वारा अपनी अंतः प्रेरणा से किया गया है जिसमें इस भाषा के सभी अंग-उपांगों का विवेचन और विश्लेषण पर्यापत सूक्ष्मता के साथ किया गया है। वाक्यों के गठन में विचलन या विसंगति को परम्परागत अभ्यास तथा स्थानीय बोली की प्रवृति और प्रकृति के आधार पर स्पष्ट किया गया है और जहां भी सम्भव हुआ उसे नियम के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। उन्होंने गढ़वाली भाषा का व्याकरण शीर्षक इस पुस्तक में जहां एक ओर इस भाषा के व्यकारण के वांछित व परम्परागत विश्लेषण की पद्धति का अनुसरण करते हुए वाग् विभागों का सम्यक अनुशीलन किया है वहीं दूसरी ओर इस बोली की उन विशिष्ट प्रवृतियां का अद्ध्यन कर ऐसे शब्दों की पर्यापत लम्बी सूचियां देकर पुस्तक के महत्व और उपयोगिता को बढ़ा दिया है जैसे कुछ गढ़वाली क्रियाएं अनुकरणीय शब्द सम्पदा विभिन्न ध्वनियां तरह के व्यवहार भोजन के विभिन्न गुण एवं स्वाद और आघात के लिए प्रयुक्त विभिन्न शब्द क्योंकि जैसे कि हमारा प्रत्यक्ष अनुभव है कि अनेक लोग गढ़वाली के इन विलक्षण अर्थद्योतक शब्दों की उपस्थिति तथा अन्य भाषाओं में विरलता के कारण ही इस भाषा के प्रति आकर्षित होते हैं। इसके अतिरिक्त श्रीमती कुकरेती के इस भाषा के सूक्ष्म अद्ध्यन के उपरांत गढ़वाली के शब्दों को उनमें निहित ध्वनि के अनुसार देवनागरी लिपि में लिखने में आड़े आती व्यावाहारिक कठिनाई को चिन्हित करके और लिपि में कुछ और ध्वनि संकेतों की आवश्यकता की ओर न केवल विद्वत वर्ग का ध्यान ही आकर्षित किया है बल्कि गहरे मंथन के उपरांत आवश्यक चार नये ध्वनि चिन्ह ाभी प्रस्तावित कर दिए हैं। वर्तमान में गढ़वाली भाषा और संस्कृति विषय पर बहुत गवेषणात्मक शोध और साहित्य रचना हो रही है, लेकिन वह हिंदी में अधिक लिखा जा रहा है स्वयं गढ़वाली में अति न्यून। उपरोक्त के अतिरिक्त संक्षेप में इसकी विकास यात्रा में अवराध के अन्य कारण है 1. भाषा का आजीविका से असम्बंधित होना 2. राज्य से संरक्षण का अभाव 3. पलायन की अपिहार्यता 4. परिवारों का विघटन 5. गढ़वाली में छपने वाली पत्र-पत्रिकाओं  का अभाव आदि। साथ ही गढ़वाली में जो कुछ छप रहा है वह कहां तक उपयुक्त है, इसे कोई देखने वाला नहीं है। नित्य प्रति कोइ न कोई नयी पुस्तक समारोह बिंदुओं पर कोई चर्चा नहीं होती। नयी पुस्तक के अवतरित होने की खुशी में इन जरूरी बातों का उल्लेख करन के प्रति विमोचन कर्ता और समीक्षक विद्वान भी किसी विवाद से दूर रहना पसंद करते हैं। ऐसे में भाषा का परिष्कार और मानक का साहित्य कैसे बनेगा? कंटकस्वरूप इन समस्त परिस्थितियों के प्रति गम्भीर चिंतन और मंथन के पश्चात ही सही रास्ता पकड़ने पर गढ़वाली भाषा के विकास का सुगम राजपथ प्रसस्त हो पायेगा। इस सम्बंध में यह तो सर्व विदित ही है कि राजपथ का निर्माण सदा ही राज्य का उत्तरादायित्व रहा है, अतः भाषा का राजपथ भी तभी बन पायेगा जब इसे राज्य सारकार का वरद हस्त प्राप्त हो।