शहर की ओर

इतना है क्यों तू सकुचाती
कहने मे है क्यों शरमाती
लब से चाहे कह न पाये
पर पलकें हैं सब कह जाती।


मैंने छुप-छुपकर देखा है
तुझको जंगल जाते हुये
काटने घास, लकड़ी के बहाने
पेड़ों पर ऊँचे चढ़ते हुये।


ऊँचे शाख पर बैठकर तू
निहारती है किस ओर
सच बता ए घसियारिन तू
देखती नहीं क्या शहर की ओर?


ऊँचे बादलों के संग उड़ना
तू भी मन में चाहती है
पंख लगा पंछी की तरह
आसमा को छूना चाहती है।


तारों के संग सजा के सपने
देखती है तू कब होगी भोर
होगा साकार जब सुंदर सपना
जाऊँगी तब शहर की ओर।


पहाड़ों से तू बातें करती
झरने नौलों से दिल बहलाती
थड़्या, चैंफला झूम के नाचती
गीत सुरीले कंठ से गाती


पर आंखें तेरी क्यों शरमाती
देख रही है किस छोर
बात पहाड़ों की तू करती
नज़र लगाती शहर की ओर


ऊँचे शाख पर बैठकर तू
निहारती है किस ओर
सच बता ऐ धसियारिन तू
देखती नहीं क्या शहर की ओर?