शंकर में शंकर

 शंकरं शंकराचार्यम केशवं वादरायणम 
 सूत्रभाष्य कृतौ वन्दे, भगवन्तौ पुनःपुनः 
जैसे महर्षि वेदव्यास साक्षात कृष्ण-केशव कहे जा सकते हैं उसी तरह आद्य शंकराचार्य भी साक्षात शंकर के अवतार कहे जा सकते हैं। इसलिए केदारनाथ को शंकर-तीर्थ कहकर हम शंकर और शंकरा -चार्य दोनों का स्मरण करते हैं। ग्रंथों के प्रमाण हैं कि शंकराचार्य जी ने अपने यौवन काल में यानी ३२ वर्ष की आयु में केदारनाथ की खोज में निकल पड़े और क्या अजीब संयोग था कि वहीं उनका प्राणांत हुआ। मंदिर के पृष्ठ भाग में जहां आद्य शंकराचार्य की मूर्ती स्मारक के तौर पर द्वारकास्थित शारदापीठ के शंकराचार्य द्वारा स्थापित की गई थी, इस जल प्रलय में विलुप्त हो गई।  
शंकराचार्य जी का आविर्भाव, साधारण भाषा में जन्म, केरल राज्य के कालडी ग्राम में आर्यासती नाम की माता के गर्भ से हुआ था और इनके पिता का नाम शिवगुरु था। इतिहासकारों के मतानुसार इनका जन्मकाल संवत ७४३ बताया गया है। इनके बाल्यकाल में ही पिता का देहांत हो जाने के कारण विक्षुब्ध शंकर की प्रवृति संन्यास की ओर पलट गई और कहते हैं कि ८ वर्ष की आयु में ही वह सन्यासी हो गए, इस अवधि में उन्होंने वेदाध्ययन अपने गुरु गोविन्दाचार्य की शरण में किया। अद्भुत प्रतिभाशाली शंकर के नाम लगभग २८०     कृतियों की रचना करने का श्रेय है जिनमें वेदों के भाष्य भी शामिल हैं।  इस कारण शंकर विद्वत समाज के लिए व्यक्ति नहीं एक संस्था बन गए, उनकी अलग शिष्य परम्परा स्थापित हो गई। यद्यपि वेद व्यास की भांति आगे चलकर इनकी रचनाओं को अन्य विद्वानों ने अपनी रचनाओं के साथ घालमेल करना शुरू कर दिया था लेकिन यह प्रमाणिक तथ्य है कि ब्रह्मसूत्र, श्रीमदभगवतगीता और उपनिषदों के भाष्य आद्य शंकराचार्य जी ने ही लिखे थे। बौद्ध और जैन अनुयायियों के कारण फैली कतिपय भ्रांतियों को शंकर ने दूर करने की कोशिश की और समाज को धार्मिक दिशा देकर एक व्यवस्था स्थापित की। उनको अपने जीवन में मात्र एक अफसोस रहा कि बचन देने के बावजूद अंतिम समय में वह अपनी माता के पास न पहुँच सके, वह तब पहुंचे तब माँ का देहान्त हो चुका था। इस अफसोस को लेकर उन्होंने देवीक्षमाअपराध स्तोत्र की रचना की।