शिक्षा के सूत्र


यूं तां सृष्टि में हर कहीं हर किसी वस्तु पर  प्रतिक्षण परिवर्तन की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। परन्तु बहुत कुछ ऐसा भी रहता है जिसे विलग या विस्मृत करने से पछतावे के अतिरिक्त और कुछ नहीं हाथ लगता। ऐसे ही हम विशेषतः शिक्षा के क्षेत्र में भी महसूस कर रहे हैं। स्वतंत्रता के पश्चात सरकार ने शिक्षा के उन्नयन हेतु समय≤ पर कुछेक प्रयास किये हैं लेकिन हर बार अपनी ही भारतीय संस्कृति का तिरस्कार किया है। यही कारण है कि हम डिग्रीधारी तो हो गये हैं लेकिन मानवता के पक्ष से दो कौड़ी के होते जा रहे हैं। हम तो हम विदेशी भी हमें हमारी औकात बता रहे हैं। हमारे राष्ट्रनायकों का अपमान इसका ठोस और जीवंत उदाहरण है। विदेशी भाषा और संस्कृति को अपना कर हर कोई  आधुनिक  व शिष्ट नहीं हो जाता।  यह बात हमारे राष्ट्र के श्रेष्ठ कहे जाने वाले श्रीमन्तों को कब समझ में आयेगी? कहा नहीं जा सकता। परन्तु इतना अवश्स य है कि पाश्चात् य संस्कृति के पूजक होते हुये भी वे अब अपने को भारतीय कहलाने में गर्व समझने लगे हैं। तो वह दिन भी दूर नहीं है जब वे अपनी संस्कृति में ही जीना- मरना अपना सौभाग्य समण्ने लगेंगे और तब अपने राष्ट्र की शिक्षा नीति पर भारतीयता से सोच-विचार करने लगेंगे। वरना मैकाले की सोच से 'जैन्टल मैन' तो बन रहे हें लेकिन प्रतिष्ठा गंवाने की शर्त पर। अब अपनी बात कहने से पहले मैं विनोबा जी की 'शिक्षण-विचार' पुस्तक की दो बातें कहना चाहता हूं। पहली-शिक्षक को पहले आचार्य कहा जाता था। आचार्य अर्थात...आचारवान। स्वयं आदर्श जीवन का आचरण करते हुये राष्ट्र से उसका आचरण करा लेने वाला ही आचार्य है।... राष्ट्र निर्माण का काम आज हमारे सामने है, आचारवान शिक्षकों के बिना यह सम्भव नहीं है। दूसरी-अच्छे शिक्षकों का सवाल बड़ा कठिन है।        


अधिक वेतन देने की बात आसान है, पर ठीक नहीं।...जिन्हें दुनियां का कोई अनुभव नहीं, ऐसे लड़के आज पढ़ाने जाते हैं।  अच्छे शिक्षकों की समस्या बेसिक के सामने ही नहीं सभी प्रकार के शिक्षण के सामने है। हमारी समझ में नहीं आता कि बड़े-बड़े लोग राजनीति से चिपके क्यों रहते हैं? चींटी की तरह मर जाते हैं पर गुड़ नहीं छोड़ते...शिक्षक के वेतन को बढ़ाने की बात तो ठीक है पर बढ़ाना चाहिये हमंे उसका दर्जा...आज तो उसकी कोई प्रतिष्ठा ही नहीं। उसका दस साल का काम नेता एक दिन में ही बिगाड़ देता है। एक तरफ नेता, दूसरी तरफ माता-पिता...दोनांे के प्रभाव के बीच शिक्षक दब गया। आज उसका कोई स्थान ही नहीं। शिक्षक के रूप में हमने एक बड़ा सलाहकार खो दिया। आज शिक्षक गुरू नहीं नोकर है। शिक्षकों के क्षेत्र में राजनेताओं को दखल नहीं देना चाहिये। 
विनोबा जी के उपरोक्त कथनों से कुछ सार्वकालिक तथ्य सामने आते हैं। सर्वप्रथम कि शिक्षक पहले आचार्य कहे जाते थे अर्थात वे आचरण के प्रकाश स्तम्भ हुआ करते थे।  अंग्रेजियत ने आचार्य को प्राचार्य यानि प्रचार का द्योतक बना दिया। दूसरा यह कि जिसके ऊपर राष्ट्र के भविष्य को संवारने का पवित्र गुरूत्तर भार है, उसे प्रतिष्ठा देने की बजाय  कुछ वेतन देकर नौकर बना दिया। और तीसरी महत्वपूर्ण बात जो सामने आती है वह यह है कि राजनेताओं का हस्तक्षेप। यानि शिक्षक की नियुक्ति व वेतनादि में अनावश्यक घुसपैठ। यही कारण है कि आज शिक्षा के हर क्षेत्र में वैषम्य है।
अतएव शिक्षा के क्षेत्र में हम मात्र दो बातें अपना सकें तो परिणाम स्वतः ही वंदन योग्य आयेंगे। एतदर्थ, राष्ट्रीय स्तर नर शिक्षा की एकरूपता के लिये एक 'केन्द्रिय शिक्षा संस्थान' के ही आधीन सभी प्रकार व स्तरों की शिक्षा का दायित्व दे दिया जाये। सरकार उस संस्थान की आवश्यकतानुसार सिर्फ भूमि-भवन और धन प्रदान करे। शेष शिक्षकों की नियुक्ति, योग्यता, प्रशिक्षण, पाठ्यक्रम, स्थानान्तरण, वेतन-निर्धारण व पदोन्नति आदि का    संबध उस संस्थान की जवाबदेही में हो और सरकार अवलोकन करती रहे। तथा मंाग करे कि हमे अमुक-अमुक  क्षेत्र के लिये इस-इस योग्यता के अभ्यर्थी चाहिये। 
दूसरा शिक्षण संस्थाओं का वातावरण  भारतीय संस्कृति के अनुकूल हो। उनमें भारतीय भाषाओं का समुचित अध्ययन हो। एक प्रतिष्ठित विद्वान ही उन शिक्षण- संस्थानों से निकले। जिसके हाथ मेंकागज के टुकड़े की बजाय मस्तिष्क पर विद्वता की चमक हो। ऐसा होने पर हमें देश के हर क्षेत्र में प्रतिभायें ही प्रतिभायें दिखेंगी। क्षेत्र वो चाहे राजनीति का हो या कोई और। कुशल और प्रतिभावान अभ्यर्थी  की मांग छोटे  और  बड़े कार्य और कार्यालय के लिये होती ही है जो कि हमंे अच्छे व सुदृढ़ शिक्षण संस्थानों  से ही उपलब्ध हो सकते हैं। अतः राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में एकयपता का होना और एक ही केन्द्रिय संस्था के संचालन द्वारा होना चाहिये। वरना कितने भी आयोग बनाओ, कितनी भी नीतियां बनाओ...ढ़ाक के तीन पात ही हाथ लगेंगे।