शूद्र भी क्षत्रिय हैं

शूद्र कौन है? यह प्रश्न सदा ही विवादित रहा है। विशेष कर सत्ता प्राप्ति के लिये समाज को जाति प्रथा में बांटने  के घिनौने खेल ने समाज के बीच वैमनष्य की खाई को चैड़ा कर दिया है। शास्त्रों में कहा गया हैः- जन्मना जायते शूद्रः संस्कारा द्विज उच्चयते।
 वेदाभ्यायाद्ववेद विप्रो जानाति ब्राहाणः।।
अर्थात् जन्म से सभी शूद्र हैं, संस्कार होने पर द्विज वेदाध्ययन से विप्र और ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण होता है। अक्सर समाज के कुछ लोग मनुस्मृति के अनुसार समाज को चार वर्णांे में विभाजित करने को लेकर मनुवादि व्यवस्था को रोना रोते रहते हैं ऐसा प्रतीत होता है कि मात्र कुछ शाब्दिक अर्थों को लेकर ही इस तरह की व्याख्यायें गठित की जा रही है। मूल प्रश्न 'शूद्र कौन है?' को वास्तविक अर्थ जानने के लिये पहले हमें वर्णाक्षण एवं चार वर्णांे को वास्तविक अर्थ समझना होगा। तभी हम वर्णों का सही विश्लेषण कर सकेंगे।
हमारे शास्त्र कहते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था से हमारे धर्म की उन्नति होगी। उनके अनुसार पिंडे-पिंडे मतिर्भिन्ना अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति का धर्म अलग होता है। जिसका आशय है कि प्रत्येक का धर्म का मतलब नहीं अपितु व्यक्तिगत धारणा की अवस्था है। धर्म की व्याख्या करने के लिये शास्त्रों ने कहा-धारणात धर्मा इत्याहूः धर्मो धारयते प्रजाः। इस ब्रह्मान्ड में जो अनन्त शक्तियां सदा बहती रहती हैं उनको सुयोग्य धारणा एवं उससे जन कल्याण के उपाय करना ही धर्म है।
वर्णाश्रम- वर्ण यानि दिव्य रंग जो प्रत्येक व्यक्ति के शरीर के चारों ओर रहने वाले प्रकाश वलय में रहता है। यह प्रकाशवलय, व्यक्ति के गुण स्वभाव एवं प्रकृति के आधार पर वैदिक धारणा में विभिन्न वर्णांे में बांटा गया है, जिसे वर्णाश्रम कहते हैं। वर्णाश्रम का किसी जाति या धर्म का आधार नहीं है। अपितु यह प्रत्येक व्यक्ति के प्रकाशवलय (व्त्।) की स्थिति पर आधारित है। चातुवर्ण या वर्ण व्यवस्था का    आधार भी गुण कर्म स्वभाव एवं संस्कारों पर ही निर्भर है न कि जन्मजात व्यवस्था पर। यह एक दिव्य प्राकृतिक अवस्था है। वैदिक परम्परा ने इसका अध्ययन कर समाज के कल्याण के लिये कुछ नियम बनाये थे जिन्हें चातुर्वण्र्य व्यवस्था एवं वर्णाश्रम धर्म कहा गया था-     चातुवण्र्य यथा सृष्ट गुणकर्म नियशः।
   वस्य कर्तारमपि यां विद्वकर्तारमक्ष्ययम्।।
चातुर्वण्र्य व्यवस्था में ब्राह्मणः क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र चार वर्णाे का    निर्धारण मनुष्य के चतुर्विध पुरूषार्थ पर निर्धारित कर दिया गया। शास्त्रों के अनुसार शूद्र का सम्बन्ध किसी जाति अथवा वंश विशेष से नहीं अपितु मनुस्मृति द्वारा निम्न बताई गई अवस्थाओं में से किसी भी एक अवस्था को प्राप्त होने पर कोई भी वर्ग या वर्ण के व्यक्ति को दास योनि अर्थात् शूद्र जाति में ढकेल दिया जाता था-                                    ध्वजा भक्त दासो गृहजः क्रीत दत्रियौ।
   यैत्रिको दंड-दासश्च सप्तैते दासयोनमः।। (मनु 8/415)
अर्थात्-ध्वजाहृत-युद्ध में जीता हुआ, भक्तदास-आत्म समर्पण करने वाला,
गृहज-दासी का पुत्र, क्रीत-खरीदा हुआ, दात्रिय-दूसरे स्वामी द्वारा दिया गया,
यैत्रिक-दास के वंशज, दण्डदास-दण्ड के रूप में दास बनाया हुआ।
ऋग्वेद में दो ही वर्णो का वर्णन मिलता है-उर्भा वर्णो (ऋक 1- 179-6)....अर्थात् दो वर्णों की बात कही गई है जिसमें अर्थ और दास का वर्णन मिलता है। परन्तु ऋग्वेद के ही एक अन्य सूत्र में सभी को आर्य बनाने की बात कही गई है, कामना ही गई है-कृणत्वं विश्वार्याम् (ऋक 1-65-5).....श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार-एक एवं पुरादेवः प्रणवः सर्व वाणययोकात्मक वेद था। एक ही देव नारायण माने जाते थे। एक ही अग्नि और एक ही वर्ण था।
यजुर्वेद के परिच्छिेद (वाजसनेयि संहिता 14/30 मैत्रायणी संहिता 2/8/6, काठक संहिता 17/5 कात्यान संहिता 26/24 तैत्तिरीय संहिता 4/3/10/2) में भी कहा गया है कि वैश्य और शूद्र की सृष्टि एक साथ हुई। अर्थात् पहले केवल दो ही वर्ण थे-आर्य और दास। बाद में सोद्रिक राजवंश के क्षत्रियों के युद्ध में हर जाने से शूद्र वर्ण बना।
सोद्रईः- सोगदाई या शौद्रिक अथवा शूद्र एक राजवंश था। विष्णुुपुराण 4/24/18 में इनका राज्य सौराष्ट्र अवन्ति और अर्वद क्षेत्रों के पास बताया गया है। मार्कण्डेय पुराण (57/3/36) और मत्स्य पुराण 113/40 के अनुसार भी गुप्तकाल में शूद्र जनजाति का अपना राज्य होने का उल्लेख मिलता है। महाभारत (7/616) में सौदिकों/शूद्रते)े की सेना का उल्लेख है। शोद्रिक अथवास शूद्र राजवंश के युद्ध में हारने पर उन्हें समाज का निचला दर्जा दिया गया जैसा कि तत्कालीन व्यवस्था में सात प्रकार के दासों के उल्लेख से स्पष्ट है। और इस प्रकार शूद्र नामक एक नये वर्ण की उत्पत्ति हुई। हमारे       धर्म ग्रन्थों, ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में शूद्र जाति को कहीं भी अछूत नही माना गया है। महाभारत (7/6/6) से पता चलता है कि यह शूद्र जाति कृत्यों पर निर्वाह करती थी।
वायु पुराण (2/11/90) तथा ब्राह्मण पुराण (3/10/96) में मनु केे कथन का समर्थन किया गया है कि शूद्रों के मूल पुरूष व शिष्य थ। महाभारत 1/42/26 में कुछ ऋषियों की माताओं के शूद्र जाति की होने का उल्लेख मिलता है।
नरसिंह पुराण 158/10-15 में शूद्र का कार्य कृषि कहा गया है याज्ञवक्ल्य संहिता (1/20) वृहस्पति संहिता (530) मार्कण्डेय (28/38) तथा विष्णु पुराण (318/32-33) के अनुसार वाणिज्य कर्म शूद्र का कर्तव्य बताया गया है।
एक अन्य धारणा के अनुसार आदि मनु (स्वाम्भवु मनु) व उनकी पत्नी श्रुवा ने अपने बड़े पुत्र इच्छवाकु को राजा बनाकर अन्य आठ पुत्रों को राजकार्य में सहायता देने का कार्य सौंपा। इनमें आदि मनु का आरठवां पुत्र यष्ठधु था। इसमें सेवाभाव बहुत अधिक था। युद्धकाल में नगर में कुछ युवक युवतियों की सहयता से यष्ठधु ने शहर की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाना प्रारम्भ किया। यद्यपि यह कार्य केवल युद्धकाल में ही किया जाता था, बाद में युद्ध से लौटने पर सब लोग अपने निर्धारित कार्यो पर लौट जाते थे। यह सिलसिला मनु की पाँचवीं पीढ़ी तक चला। बाद में कुछ लोगों ने इस कार्य को  ही अपनी जीविका का साधन बनाया और अपना एक पृथक वर्ग बना लिया। इस काल, इस वर्ग को बहुत आदर से देखा जाता था। और हर प्रकार के सामाजिक कार्यांे में इनका हिस्सा होता था और हर प्रकार के सामाजिक कार्यों में इनका हिस्सा होता था। जन्म मृत्यु विवाह व यज्ञादि में आदर के साथ इनका भाग निकाला जाता था। इसी समय से इन्हें शूद्र अर्थात्-
श-प्रकाश ऊ-ऊपर द-गति तथा र-देने वाला यानि वह प्रकाश जो सबके ऊपर आकर गति देता है, कहा जाने लगा। यहाँ यह उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण है। कि शूद्र जात चन्द्रगुप्त को ब्राह्मण कौटिल्य द्वारा समर्थन दिया गया। ऋग्वेद के एक सूत्र केे रचियता कवस एलूस का जन्म दासी से हुआ था। ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ के लेखक महिदास ऐतरेस शूद्र थे। महर्षि व्यास का जन्म मछुआरिन से हुआ था। मुनि पाराशर की माता श्वपाकी (कुत्ते का आँख खाने वाली) थी। कपिलवाद की माता चांडाल स्त्री थी, और महर्षि वशिष्ठ की माता गणिका थी।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि उस सामाजिक मर्यादा वंश से नहीं बल्कि योग्यता एवं कर्म से निर्धारित होती थी। ऊपर लिखे सभी सन्दर्भों से स्पष्ट है कि वैदिक काल से ही शूद्र जाति का अस्तित्व रहा है। मगर यह अछूत या निम्न नहीं अपितु क्षत्रिय जाति थी। जिसको परिस्थिति विशेष में दास प्रथा अपनानी पड़ी। मगर कर्म व्यवस्था का बोलबाला भी विद्यमान रहा। जिस किसी ने वर्णानन्ति का प्रयास किया, उसको सामाजिक व्यवस्थाओं ने अंगीकार किया। कालान्तर में दासत्व का महत्व नगण्य हो चुका है। अब आवश्यकता है कि शूद्र अपने वौद्धिक बल से पुनः ब्राह्मण्त्व को प्राप्त करें तथा शारिरिक बल से क्षत्रित्व को प्राप्त कर खोयी प्रतिष्ठा स्थापित करें। मात्र मनुवादी व्यवस्था धर्म ग्रन्थों में प्रक्षेपित सूत्रों को आधार बनाकर सत्ता के लोभी राजनेताओं एवं धर्म के ठेकेदारों के कुचक्र में फंसकर समाज के दूसरे वर्गों को कोसने का काम बन्द करके अपनी योग्यता साहस से नया इतिहास का सूत्रपात करें।