श्रीकांत जोशी (श्रद्धांजलि )


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री श्रीकान्त जोशी जी का आठ जनवरी को प्रातःकाल पाँच बजे ७६ साल की आयु में मुम्बई में निधन हो गया। श्रीकान्त शंकर जोशी जी का जन्म २१ दिसम्बर, १९३६ को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के देवरुख गाँव में हुआ था। आप के पिता का नाम शंकर जोशी था। शंकर जी के चार बेटे और एक पुत्री थी। इन पाँच संतानों में से श्रीकान्त जी सबसे बड़े थे। प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद आप उच्च शिक्षा के लिये मुम्बई में आ गये। आपने राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र विषय लेकर मुम्बई विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। मुम्बई के गिरगांव में ही आप संघ के स्वयंसेवक बने। बी.ए. में पढ़ते समय ही आप ने जीवन बीमा निगम में कार्य करना शुरु किया। उन दिनों शिवराज तेलंग जी मुम्बई में ही संघ के प्रचारक थे। श्रीकान्त जी की उनसे बहुत घनिष्ठता थी। उन्हीं की प्रेरणा से आपने नौकरी से त्यागपत्र देने का निर्णय किया और १९६० में त्यागपत्र देकर पूरा समय संघ कार्य को समर्पित करने के लिये प्रचारक जीवन को धारण किया। प्रारम्भ में प्रचारक के नाते नान्देड़ गये। नान्देड़ वही स्थान है यहां भारत को विदेशी शासन से मुक्त करवाने की कामना को लेकर मध्यकालीन भारतीय दश गुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने अपनी इहलीला समाप्त की थी। कुछ अरसा महाराष्ट्र में काम करने के बाद आप १९६३ में संघ कार्य हेतु असम प्रदेश में गये। असम में आपने निरन्तर पच्चीस साल १९८७ तक कार्य किया। १९७१ से १९८७ तक असम के प्रान्त प्रचारक रहे। प्रारम्भ में आप ने तेजपुर के विभाग प्रचारक का दायित्व संभाला। बाद में वे शिलांग के विभाग प्रचारक बने। १९६७ में विश्व हिन्दू परिषद ने गुवाहाटी में पूर्वोत्तर का जनजाति सम्मेलन करने का निश्चय किया। उन दिनों यह सचमुच बहुत कठिन कार्य था। जोशी जी को इस सम्मेलन के संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गई। सम्मेलन की सफलता से जोशी जी की संगठन कुशलता का परिचय मिला।  १९६९ में स्वामी विवेकानन्द जी की स्मृति में तमिलनाडु में कन्याकुमारी के स्थान पर शिला स्मारक बनाने का उपक्रम प्रारम्भ हुआ। देश भर में लोगों ने उत्साह पूर्वक  योगदान देना प्रारम्भ किया। एकनाथ रानाडे सारे देश का प्रवास कर रहे थे। असम में यह जिम्मेदारी श्रीकान्त जोशी जी पर आई। पूरे पूर्वोत्तर भारत से लोगों ने इस राष्ट्रीय यज्ञ में उत्साह पूर्वक दान दिया। इस क्षेत्र में विद्या भारती के माध्यम से जनजातियों तक में शिक्षा के प्रचार -प्रसार में जोशी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। जोशी जी जानते थे कि पूर्वोत्तर में सामाजिक समरसता के लिये जनजातियों में संघ कार्य को ले जाना अनिवार्य है। उन दिनों उन्होंने जनजाति संगठन सेंग खासी से सम्बंध बढ़ाना शुरु किया जिसके कारण बाद में मेघालय में संघ कार्य के विस्तार में बहुत सहायता मिली। जोशी जी का मानना था कि यदि पूर्वोत्तर में राष्ट्रीय क्रियाकलापों को त्वरित करना है तो संघ के अपने स्थायी कार्यालय होने चाहिये। गुवाहाटी, मणिपुर और अगरतल्ला इत्यादि स्थानों पर संघ कार्यालयों के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। असम के इतिहास में असम आन्दोलन (१९७९-१९८५) का कालखंड अत्यन्त संवेदनशील माना जाता है। क्षेत्रीयता की भावना रुवान्त तक न जाये और राष्ट्र भाव ओझल न हो पाये, इसके साथ-साथ असम के साथ हो रहे अन्याय का सफलता पूर्वक प्रतिरोध भी हो, इन सभी के बीच संतुलन बिठाना था। उन दिनों जोशी जी ने यह कार्य सफलतापूर्वक किया। १९८७ में उन्हें तत्कालीन सरसंघचालक माननीय बाला साहेब देवरस जी के सहायक का उत्तरदायित्व दिया गया। १९९४ में देवरस जी ने स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों से सरसंघचालक का दायित्व त्याग दिया। परन्तु जोशी जी उसके बाद भी उनके सहायक का कार्य करते रहे। वे बाला साहेब देवरस जी के साथ सहायक के नाते १९९६ में उनकी मृत्यु पर्यन्त रहे। १९९७ से २००४ तक आप ने संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख का दायित्व संभाला। २००४ में वे संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य बनाये गये। २००२ में मूर्छित हो चुकी भारतीय भाषाओं की एक मात्र संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार को पुनः सक्रिय करने का उपक्रम प्रारम्भ किया। यह संवाद समिति १९८५ के आसपास सरकारी हस्तक्षेप के कारण बंद हो गई थी। जोशी जी ने २००१ में इस समिति को पुनर्जीवित करने के प्रयास प्रारम्भ किये तो पत्रकारिता जगत में बहुत लोग कहते सुने गये कि यह कार्य असम्भव है। लेकिन जोशी जी ने कुछ वर्षों में ही इस असम्भव कार्य को ही सम्भव कर दिखाया। आज देश के प्रत्येक हिस्से में समिति के कार्यालय कार्यरत हैं। पिछले कुछ दिनों से जोशी जी को खाँसी का प्रकोप हो रहा था। कुछ दिन वे चिकित्सा के लिये केरल भी गये। नागपुर में सभी परीक्षण किये गये जो सामान्य थे। वे विश्राम के लिये दो दिन पहले ही दिल्ली से मुम्बई पहुँचे थे। आठ जनवरी को प्रातःकाल उनके सीने में दर्द हुआ। अस्पताल को ले जाते समय रास्ते में ही उन्होंने अन्तिम साँस ली।