त्रासदियों के स्नेह निमंत्रण


सन  २०१३ में उत्तराखंड के पूर्व से पश्चिम तक फैली प्राकृतिक आपदा में काल कवलित व जड़हीन हो चुके सभी मनुष्यों के लिए अश्रुपूरित श्रद्धांजली। बाबा केदार व 'गंगाओं' के कोप से बच गए हम लोग यदि इस वक्त भी संवेदनहीन हो गए तो यह दूसरी त्रासदी होगी। यह केवल दुःख की घड़ी नहीं है बल्कि जीवन को नए सिरे से स्थापित करने का आरम्भ जैसा है। दो-चार महीनों में ये दुःख समाप्त नहीं होने वाले हैं। अचानक आई इस विपत्ति से जीवन खो चुके युवकों और देश के कोने-कोने से आए श्रद्धालुओं को अंतिम प्रणाम।
ऐसा क्यों हुआ? अब इस बात पर चर्चा अनिवार्य है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? मानसून के सामान्य मौसम से पहले ही इतनी घनी बरसात और तबाही का कारण क्या है? हर तरह के लोग, हर तरह के तर्क दे रहे हैं। श्रीनगर की 'धारी कालिंका' को हिलाने का परिणाम इस त्रासदी के रूप में माना जा रहा है परन्तु यह बात गले नहीं उतरती। यदि आस्थावान लोगों के इस तर्क को मान भी लें तो फिर धारी की मूर्ति हिलाने वालों की एक 'कील' तक क्यों नहीं बही? बीच नदी में खड़ा उनका 'डाम', शाफ्टें, डोजर, ट्रक, रेत के टीले, मशीनें सब तो सुरक्षित रहे, और पूरा केदारनाथ तबाह हो गया! धारीदेवी का इसमें कितना कोप है, कितना नहीं, कहा नहीं जा सकता।
कुछ अन्य लोग तर्क दे रहे हैं कि यह शास्त्रोक्त तथ्य था कि जब भी केदारनाथ में दस हजार से अधिक लोग हो जाएंगे, तभी ऐसी तबाही होगी। पता नहीं कि फिर विजयनगर, अगस्त्यमुनि, सिल्ली क्यों नष्ट हो गए? ऋशिकेश, हरिद्वार क्यों बाढ़ग्रस्त हुए? पिण्डरघाटी की तबाही का संबंध केदार की जनसंख्या से कैसे जोड़ा जा सकता है? बहुत से लोगों का मानना है कि धर्म के इन धामों में धर्म नाम की कोई चीज नहीं बची थी। होटल व मोटेल पिकनिक स्पाॅट हो गए थे। पूजा-अर्चना में वीआईपी टाइप का आरक्षण लागू हो गया था और दुकानों में ग्राहक देवता 'बलि के बकरे' बन गए थे। सामाजिक परिवर्तनों के ये प्रभाव सत्य हो सकते हैं परन्तु इनसे भी बादल फटना, आकस्मिक बाढ़, भूस्खलन व नेस्तनाबूद हो जाने का संबंध नहीं जोड़ा जा सकता। आस्थाओं के माध्यम से इसे तबाही का कारण भले ही मान लिया जाय पर सिर्फ इससे बात स्पष्ट नहीं होती।
वैज्ञानिक बिरादरी का राग थोड़ा अलग किस्म का है। नासा के सेटेलाइट चित्रों से ग्लेशियरों की हलचल को अनदेखा करना तबाही का कारण माना जा रहा है। ऐसी हलचलें तो हर वर्ष ग्लेशियरों में होती रहती है फिर तबाही का यह मंजर इसी साल क्यों? इतनी बड़ी जनहानि को प्राकृतिक कारणों से संबद्ध नहीं किया जा सकता। प्राकृतिक कारण अवस्थापनाओं को बहा सकते हैं परन्तु 'जन' को तो लापरवाही ने ही मारा है।
त्रासदियों के स्नेह निमंत्रण: सड़कों की राजनीति-उत्तराखंड और उसमें भी गढ़वाल का भूगोल, शेष भारत के भूगोल से काफी भिन्न है। यहां तक कि हिमालयी राज्यों में भी गढ़वाल जैसा भूगोल नहीं है। पड़ोसी कुमाऊँ में भी भौगोलिक स्थितियां गढ़वाल से भिन्न हैं। डाॅ. चारण ने कई स्थलों व गड्डियों को 'पर्वत द्वीप' नाम दिया है। गदेरों व नदियों के जाल ने सम्पूर्ण धरातल को कई-कई घाटियों व धारों में काट डाला है। रही सही कसर भूगर्भिक बनावटों ने पूरी की है। हर भ्रंश में एक नदी है और हर बसासत के नीचे परतदार चट्टानें, जिनके खिसकने की सर्वाधिक संभावनाएं होती हैं। बहुत सारी बसासतें तो टैलस (पुराने मलबे के ढेर) के ऊपर ही बसी हैं। तलहटी का एक पत्थर खिसका तो पूरा ढेर धड़धड़ा जाएगा। पिण्डरघाटी की सड़कें इसी कारण टूटती रहती हैं।
ऐसे भूगोल में अधिवासों तक सड़कें बनाने का कोई वैज्ञानिक नियम नहीं है। राजनीति की चैसर पर एक ही पहाड़ी, सैकड़ों मोड़ वाली सड़क काट डालती है क्योंकि उस पहाड़ी पर 'नेता' का गांव होता है। 'चैंदकोट जनशक्ति मार्ग' को छोड़कर संभवतः एक भी सड़क गढ़वाल में बिना राजनैतिक हस्तक्षेप के नहीं बनी है। जहां प्राकृतिक कारणों से सड़क बनाने की संभावना शून्य हैं, वहां भी जबरदस्ती सड़कें बनी हैं और ऐसी कि जिन पर शायद कई-कई किमी तक कोई बसासत ही नहीं है।
विकास के पैमाने-इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि विकास का रास्ता सड़कों से ही गुजरता है। जब तक हर बसासत सड़क मार्ग से नहीं जुड़ती, तब तक कोई भी स्वयं को विकसित नहीं मान सकता। राज्य के स्तर पर यह तथ्य बेहद अफसोसनाक है कि विगत 12 वर्षों में सड़क निर्माण की कोई योजना नहीं बन पाई। ऐसे में राज्य के विकास का मापन कैसे हो सकता है?
वर्तमान में विकास का सीधा सा अर्थ है-सुविधाएं, आवास, भोजन, अस्पताल, बैंक-डाकघर, स्कूल, पेयजल, संपर्क-नेटवर्क, विद्युत और स्वच्छता; इतनी ही चीजों से विकास की सामूहिक रूपरेखा बनती है। व्यक्तिगत आय व भौतिक वस्तुओं को जमा करने से सामाजिक विकास नहीं आंका जा सकता। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति के पास अकूत धन है पर राशन उपलब्ध नहीं या लेटेस्ट माॅडल की कार है पर सड़क नहीं है, तो ऐसे में उसे विकसित नहीं कहा जा सकता। धन या कार व्यक्तिगत होती हैं पर सड़क व राशन सामूहिक, इसलिए विकास को व्यक्तिगत तौर पर आंकना गलत होगा। विकास की उक्त सुविधाएं निश्चित तौर पर सड़क मार्ग से ही आती हैं जो उत्तराखंड में किसी नियम में शामिल नहीं हैं।
सड़कांे के निकट लगातार घनी होती जा रही आबादी के पीछे एकमात्र कारण यही है कि वहां सड़क है। 'रोडहैड' पर बसना विकास की मानसिकता है जो कतई गलत नहीं है परन्तु बिना किसी नियम के बन रही सड़कों से 'लोगों को सड़क पर आना' पड़ रहा है जबकि 'सड़क को लोगों तक जाना' चाहिए था।
नदियों का मोह-आपात स्थितियां अपवाद हो सकती हैं परन्तु उत्तराखंड में सामान्य तौर पर सड़क निर्माण में नदियों का मोह दिखता है और यह मोह ही त्रासदियों को निमंत्रण देता है। गढ़वाल की आपदा में इस मोह का परिणाम आज सबके सामने है। नदियों से दूर के गांव व सड़कें सही सलामत हैं परन्तु नदी तटों पर तबाही है। सड़क की लम्बाई कम करने की चाह में नदी का मार्ग चुना जाता है पर यह तथ्य भुला दिया जाता है कि यदि वहां सड़क होगी तो लोग भी बसने आएंगे। आवास व अन्य सुविधाएं जुटाई जाएंगी और दुर्भाग्य से आपदाओं को आमंत्रित किया जाएगा। सड़क की लम्बाई भले ही कितनी हो जाए पर इसका निर्माण संपर्क में आने वाले गांवों के अनुसार किया जाए तो बसासतें नदी तटों पर नहीं खिसकेंगी। अल्मोड़ा, रानीखेत, कौसानी, मसूरी, लैंसडाउन इस बात के प्रमाण हैं कि सड़कें ऊपर रही तो लोग भी ऊपर बसे। ऋषिकेश, देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, चमोली, विष्णुप्रयाग, अगस्त्यमुनि, सतपुली इस बात के उदाहरण हैं कि सड़कें नदी तटों पर र्गइं तो लोग भी खिसककर नीचे आ गए। इस बार ऐसे ही स्थानों पर तबाही का मंजर है। धार्मिक स्थलों व प्रयागांे तक सड़क ले जाना भी एक विडम्बना है। यदि पिण्डर घाटी की सड़क केदारुखाल की सीध में कर्जनमार्ग पर होती हुई ग्वालदम और घूम कर सवाड़, मुंदोली, गंगसार, सणकोट होती हुई नैनीसैंण होती तो आज देवाल, थराली, नारायणबगड़ में इतने घर नहीं बहे होते। दूसरी बात यह कि प्रयागों तक सड़क नहीं भी होती तो भी प्रयाग अपने पूरे महात्म्य के साथ वहीं होते। लोग प्रयागों में फिर भी जाते पर बसते नहीं और बहते नहीं। बद्रीनाथ तक सड़क नहीं होती तो भी 'बद्री' का महत्व घटता नहीं। सड़क निर्माण का कोई नियम व वैज्ञानिक आधार न होने से आपदाएं ही तो आमंत्रित होंगी।
बसासतों का विकेंद्रीकरण कीजिए-हमारे देश में और उत्तराखंड में भी विकास का सारा ध्यान शहरों पर है। बसासतों का निरन्तर केंद्रीकरण हो रहा है जो सामाजिक और राजनैतिक समस्याएं पैदा कर रहा है। इस केंद्रीकरण के पीछे भी मुख्य हाथ सड़कों का है। सड़कें गांवों तक ले जाई जांए तो गांवों को सड़क पर खिसककर आने की कोई जरूरत नहीं होगी। उत्पादन को बाजारों तक लाने या वितरण करने में भी समस्या नहीं रहेगी पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है। शहरों में झुग्गियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है और ग्रामीण बसासतों व आबाद स्थलों की संख्या लगातार घट रही है। ये घटे हुए लोग कहां जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं? सुविधाओं के लिए सड़क किनारे? परन्तु सड़कें नेताओं की कृपा से बन रही हैं जो बसासतों के केंद्रीकरण के लिए प्रेरित कर रही हैं। आपदा के दिनों में यही केंद्रीकरण इन बसासतों की कब्रगाह बन रहा है।
उपाय क्या है?-इन स्थितियों का स्थाई व प्रभावी उपाय है कि सड़क अधिनियम बनाकर इसे राजनैतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेपों से एकदम मुक्त कर दिया जाय। संपूर्ण भूगोल का सर्वेक्षण करके विशेषज्ञों द्वारा सड़क मार्ग का निर्धारण करके, कम से कम विस्फोट व अधिक से अधिक गांवों का जुड़ाव सुनिश्चित किया जाय। सड़क की लम्बाई भले ही कितनी अधिक हो जाय पर एक ही ढलान पर घूम-दर-घूम से बचकर इसका निर्माण किया जाय।
शहरों व कस्बों के लिए नए मानक तय हों कि वहां अधिक से       अधिक कितने आवास हो सकते हैं। एक आवास के साथ कितनी खाली भूमि पौधों के लिए रहे। इनके बिना नक्शे पास न हों। सरकारी संस्थान अनुपजाऊ भूमि पर बने और कृषि भूमि उत्पादन के लिए सुरक्षित रखी जाय। एक ही तथ्य शेष रहता है पर्यावरण संरक्षण का। पहला तथ्य इसमें यह है कि उत्तराखंड की आपदाग्रस्त समस्तभूमि को आरक्षित घोषित करके 'वृक्षविहीन' वनों का वनीकरण कर दिया जाय। वनों की रक्षा व निर्माण की जिम्मेदारी उन स्थानीय बसासतों को सौंप दी जाय जो 'नदी मोह की सड़कों पर' नहीं खिसके हैं। यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध तथ्य है कि बसासतें जितनी छोटी व अधिक संख्या में होती हैं, पर्यावरण संरक्षण उतना ही अधिक प्रभावी होता है। सुरक्षित सड़कें एक बार का निर्माण होती हैं इसलिए बार-बार कटान की जरूरत नहीं है। एक बार राज्य के सभी सोलह हजार गांव सड़क से जुड़ जायं तो फिर सड़क कटान की जरूरत नहीं। शेष भूमि पर वनों को कोई खतरा नहीं।
सरकारें ऐसा करेंगी, उम्मीद कम है क्योंकि नेता-ठेकेदार-पीडब्ल्युडी- प्रशासन 'सड़क रिपेयर' की मुर्गी और वन-पर्यावरण विभाग 'अड़ंगे की दादागिरी' नहीं छोड़ने वाले हैं। ये 'मुआवजा वितरण विभाग' टाइप की सरकारें हैं। राज्यविकास व जनसुरक्षा की सोच जनता के बीच से ही आएगी। यही सोच राज्य में सड़कों व लोगों का भविष्य तय कर सकेगी।