उत्तराखंड के मरते सपने


उत्तराखण्ड राज्य का एक रंगीन सपना था जो आंखों की धुंध में मर गया, अलग राज्य के सुनहरे भविष्य के लिए अनगिनत सपने बुने थे जो साकार होने से पहले दम तोड़ गये- बस तब से तथाकथित अलग राज्य पहाड़वासियों के अरमानों पर घिसट कर चल रहा है, 9 नवम्बर 2000 के तिथि बार पहाड़ पर पहाड़ जैसे लगने लगे हैं। वर्षो की इस यात्रा में एक मीटर भी तय नहीं कर पाये। सपनों के मर जाने से चलने का चाव मर जाता है, हर साल इस तिथि पर कोई न कोई खुले आसमान में जहाज के बेड़ों का करतब दिखाता है भाषण बाजी की बयार चलती है, घोषणायें होती हैं, रात को आतिशबाजियां छोड़ी जाती हैं, सरकारी इमारतें बिजली की रोशनी से सराबोर कर राज्य की वर्षगांठ की इतिश्री हो जाती है, लेकिन पहाड़वासियों के सपने सत्ता के गलियारों में टहलने वाले नेताओं के बूटों तले रौंदे जा रहे हैं। राज्य बनने और सत्ता पर काबिज हो जाने के बाद जहां नागरिकों से भेड़ों की भांति सलूक हो और आम आदमी को उनके हाल पर छोड़ दिया जाय ऐसी स्थिति में अलग राज्य के क्या मायने हैं? समझ में नहीं आता, पहाड़ के नवयुवक और मातृशक्ति जजबात में आकर अलग राज्य की मांग के लिए सड़कों पर क्यों आये, क्या इसलिए कि 9.11.2000 के बाद वे लोग जो राज्य आंदोलन में नहीं थेे वे सत्ता का सुखभोग कर सकें?यदि उत्तराखण्ड राज्य की रजिस्ट्री उन राजनैतिक शिखण्डियों के नाम कर दी गयी है जो बारी-बारी से सत्ता का सुख भाग करें और पहाड़ के हालात जस के तस रहें तो 9 नवम्बर का क्या अर्थ है? यदि पहाड़ावासी का कार्य गांव सभा से लेकर विधानसभा व लोकसभा तक अपना मत देकर इनको सत्ता के शीर्ष पर बैठाना ही है तो यह उत्तरादायित्व जनता उस वक्त भी निभा रही थी जब यह पहाड़ उत्तर प्रदेश का अंग था, अलग राज्य का मतलब एक निश्चित भू-भाग में बनाये गये कानूनों की सांकल नहीं होती अलग राज्य उत्तरांचल से उत्तराखण्ड की यात्रा नहीं है, अलग राज्य का उद्देश्य यह भी नहीं होता कि पहाड़वासी देहरादून से गैरसैण की यात्रा करें, सत्ता के सौदागर जनता के जजबातों से खेलना बन्द करें, हमने राज्य इसलिये नहीं मांगा कि जो लोग सत्ता के शीर्ष पदों पर लखनऊ में बैठे थे वही देहरादून में आकर हमारे ऊपर राज करने लगे, अलग राज्य सत्ता का व्यापार नहीं है। अलग राज्य बाजार में बिकता आदमी का मांस नहीं, अलग राज्य तो सर्वांगीण विकास का सच्चा संकल्प है। उत्तराखण्ड का सपना आम आदमी की निश्छल भावना की रक्षा का दायरा है। जहां आदमी की जिन्दगी पहाड़ जैसी हो, जहां जिन्दगी घाटियों और ओडियारों में रंेगती हो, जहां आज भी आदमी रेल का इंजन देख दूर भागता हो, जहां शासन के नाम पर लूट-खसोट हो, जहां सत्ता के सबसे बड़े दफ्तर में पत्रावली सालों साल एक ही टेबिल पर अनिर्णित रह जाती हो, जहां कानून और शासन आम आदमी का मखौल उड़ाता हो वहां अलग राज्य का पवित्र सपना साकार नहीं हो सकता।
9 नवम्बर 2000 के बाद समय ने सफर किया है, अलग राज्य के सपने ने नहीं, यह तिथि कई बार आयी और निकल गयी, मगर अलग राज्य की वह पहाड़ी बयार फिजा पर नहीं बह सकी, उत्तराचंल-उत्तराखण्ड हो गया मगर पहाड़ हर साल खुदकुशी करता रहा और वे रंगीन सपने दिखाते रहे। उत्तराखण्ड के लिए लड़ने-मरने वाले परवानों की आंखों में ऐसे अलग राज्य की तस्वीर नहीं थी जैसे आज दिखाई देती है आज उत्तराखण्ड का पश्चिम सुलग रहा है, उत्तर प्रश्नों के उत्तर मांग रहा है, पूरब की लाली गायब है और दक्षिण की बयार बदहवास हो रही है, उत्तराखण्ड के लिये कोई नहीं सोच रहा है सब अपने-अपने एैशो-आराम और घर भरने में लगे हैं, बचा है अदद पहाड़वासी जो अपने किये पर पछता रहा है। राज्य की वर्षगांठ के जश्नों मे ंउत्तराखण्ड गायब है, राजभवन, सचिवालय व सार्वजनिक स्थानों पर जुड़े तमाशाबीनों की भीड़ में पहाड़ की वह रंगत कहीं खो गई है, हांफती सड़कों पर भागता उत्तराखण्ड कहीं थक कर टूट चुका है, सारी सत्ता, व्यूरोक्रेट के आस-पास सिमट कर रह गयी है अनुभवहीन कर्मी पत्रावलि के निस्तारण करने में रूचि नहीं रखते। पहाड़वासी अपने आंखों में धुंधले सपने संजोये टकटकी लगाये खड़े हैं, उत्तराखण्डी सड़क, पानी और बिजली के लिए मोहताज है, बस उत्तराचंल से उत्तराखण्ड और देहरादून से गैरसैंण के चक्कर में पड़ा उत्तराखण्ड सरक रहा है, सड़कांें पर बेशुमार नेताओं, मन्त्रियों की गाड़ियां दौड़ रही हैं, पहरे पर संतरी खड़े हैं, अन्दर साहब लोग आराम फरमा रहे हैं जनता बाहर जलती धूप और कड़कड़ाती ठण्ड में मांगपत्र लिए खड़ी है। उत्तराखण्ड की लड़ाई के लिए जो पहाड़वासियों ने लड़ाई लड़ी थी वे सपने अन्धेरे में कहीं गुम हो गये हैं, इसलिए इस लड़ाई को फिर से शुरू करना होगा ताकि अधूरे सपने फिर से आबाद हो सकें। राज्य का नाम बदलने और राजधानी का स्थान परिवर्तन करने से कुछ नहीं होगा उत्तराखण्ड के लाखों लोगों की तमन्ना पहाड़ को बचाने की है जिसका निरन्तर छरण हो रहा है, यहां की संस्कृति, यहां की जलवायु, यहां के रीतिरिवाज, यहां के परिधान, यहां की बोली-भाषा, यहां की नदियां और जंगल, यहां के जनमानस में रचे-बसे लोकगीत, यहां की वीरगाथायें जो उत्तराखण्ड की थाती हैं, इनके संरक्षण के लिए प्रत्येक पहाड़वासी को सजग होना होगा अपनी पहिचान आदमी के जीने की पहली शर्त है, मुट्ठी भर नेताओं के ठाट-बाट से पहाड़ के सपने पूरे नहीं होंगे नेता उत्तराखण्ड वासियों के मालिक नहीं बल्कि सेवक हैं यह अहसास उन्हें दिलाना होगा...तो उत्तराखण्डी उठ! और एक लड़ाई और लड़! केवल मूकदर्शक होने से काम नहीं चलेगा। जनतन्त्र में यदि जनसेवक अपने को राजा समझने लगंे तो इसके लिए जनता अपराधी है, अश्वासन और दिलासा दिलाने से पहाड़ की पहाड़ जैसी समस्यायें हल नहीं होगीं। राज्य को पाने के लिए जो बलिदान हुये संघर्षो की जो बयार चली अपने काम -काज, खेत-खलिहान, घर-बार को छोड़कर यहां के जनमानस ने जो उत्तराखण्ड का संकल्प लिया था क्या आज उसकी मूर्त तस्वीर हमारे सामने है? आज विदेशी चमचमाती गाड़ियों में मन्त्री और नेता भागे जा रहे हैं, जनता अवाक सी खड़ी वाट जो रही है। विकास के आंकड़े फाइलों पर पड़े दीमक चाट रहे हैं, वर्षों से खड़े पेड़ों पर आरियां चल रही हैं, पानी के स्रोत सूख रहे हैं, जनसंख्या का घनत्व बढ़ने से नदियां नालों मे ंबदल रही हैं, खेतों में फसलें सूख रही हैं, खलिहान सूने पड़े हैं, गांवों से बैल गायब हो गये हैं, देसी गाय की नस्लें अब कहीं नहीं दिखाई देतीं, सड़के उबड़-खाबड़ गड्ढ़ों से पटी पड़ी हंै, पेयजल का भारी संकट है, बिजली सरपट दौड़ रही है, पर बिजली के खम्बे ऊंग रहे हैं, पहाड़ की बस्तियां अन्धेरे में डूबी हुई हंै, मन्त्रियों और नेताओं के बंगले जगमगा रहे ह,ैं पहाड़ वासी आखिरी पायदान पर खड़ा है, नेताओं के लिए सिंहासन बने हैं, सड़कों पर महिलायें सुरक्षित नहीं, पहाड़ों पर जहां कभी दरवाजे बन्द नहीं होते थे, वहां ताले टूट रहे हैंे। मन्त्रियों और सन्तरियों के लिए सुरक्षा का पूरा इंतजाम है, जनता भय के साये में जी रही है, मंहगाई चांद पर पहुंच गयी है, बाजार जहरीले दूध-मावा अनेक मिलावटी खाद्य पदार्थांे से भरा पड़ा है, आदमियों की भीड़ मौत  के सामान को खरीद रही है, नेता और मन्त्री मूकदर्शक हंैं, उत्तराखण्ड केवल गैरसैण की मांग कर रहा है और हम वर्षगांठ मना रहे हैं।