वैचारिकी-२


वे लोग सौभाग्यशाली कहे जा सकते हैं, जिनके पास पेट भरने का साधन है, तन ढकने का उपाय है और सिर छुपाने की जगह है, प्रचुर मात्रा में या अल्प मात्रा में, पर क्या इस सौभाग्यशाली स्थिति से वे संतुष्ट हैं? क्या वे इतने से संतुष्ट हो सकते हैं? नहीं। अंसतोष उन्हें चैन से जीने नहीं देगा। प्रचुर मात्रा में साधन-सम्पन्न लोग और अधिक सम्पन्न होना चाहेंगे...वैध मार्ग से भी और अवैध मार्ग से भी अर्थात् ईमानदारी एवं सदाचरण के मार्ग से भी और बेईमानी एवं भ्रष्टाचार के मार्ग से भी। अल्प मात्रा में साधन-सम्पन्न लोग प्रचुर मात्रा में साधन-सम्पन्न होना चाहेंगे। वैध रास्ते से भी और अवैध रास्ते से भी। दोनों तरह के लोग अवैध मार्ग से परहेज नहीं करते और सब कुछ को जायज़ समझते हैं, इस भौतिक युग में। ईमानदारी की कमाई से कोई संतुष्ट नहीं रह सकता, क्योंकि उससे बाकी सारी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो सकती और सारी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इस असंतोष का कोई समाधान व निदान नहीं है सिवा संतोष के...और मन मार कर संतोषी हुआ नहीं जा सकता। अवसर नहीं मिला, तो ईमानदार बने रहे मजबूरी में और अवसर हाथ आया, तो बेहिचक बेईमानी का दामन थाम लिया। इसी से बेईमानी एवं भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक व्याप्त है और इस पतन का अहसास नहीं होता। जो लोग सौभाग्यशाली नहीं है, उनकी दुर्दशा की क्या बात की जाय इस साहसिक कथन के आगे कि एक रूपये में से मात्र दस पैसे जरूरतमन्दों का पेट कैसे  भर सकता है? कहा गया कि ऐसी विषम स्थिति बनी है, व्यवस्था में त्रुटि के कारण। ऐसी स्थिति एकदम से पैदा नहीं हुई है और व्यवस्था एकदम से त्रुटिपूर्ण नहीं हुई है। व्यवस्था त्रुटिपूर्ण होती गई, किन्तु व्यवस्था को ठीक करने, त्रुटियों को दूर करने और व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में उदासीनता बनती गई। जनतन्त्र चलता रहा, सरकारें चलती रहीं और अव्यवस्था बढ़ती रहीं...मलिन स्वार्थ बढ़ता रहा, मलिन अहंकार बढ़ता रहा, बेईमानी बढ़ती रही और भ्रष्टाचार बढ़ता रहा। संविधान ही जनाकांक्षा के अनुरूप नहीं बना। ईमानदार होना और ईमानदार बने रहना लोहे के चने चबाने के समान होता है। कार्य-कुशल होना और कार्य-कुशल बने रहना टेढ़ी खीर है। संतोषी होना और संतोषी बने रहना कठिन साधना का विषय है। इस परिप्रेक्ष्य में आध्यात्मिक तत्व-दर्शन की आवश्यकता है। भौतिक तत्व-दर्शन से काम नहीं चलेगा। भौतिक विकास रामबाण नहीं है। वह भी बेईमानी एवं भ्रष्टाचार का स्रोत बन गया है। चिन्तन की दिशा ठीक न होने कारण आचरण की दशा ठीक नहीं है- हर किसी को इस बात को समझना पड़ेगा। तभी होगा सुधार। 
सभी खुशहाली चाहते हैं, किन्तु अपने लिए। सभी सुधार चाहते हैं, किन्तु दूसरों में। सभी त्याग एवं बलिदान चाहते हैं, किन्तु दूसरे से। सभी अमीर बनना चाहते हैं, किन्तु दूसरों का शोषण करके। सभी समृद्ध होना चाहते है, किन्तु बेईमानी एवं भ्रष्टाचार के सहारे। सभी राज करना चाहते हैं किन्तु दूसरों का दबा कर। सभी मालिक बनना चाहते हैं, किन्तु सेवा-धर्म छोड़ कर। सभी अधिकार चाहते हैं, किन्तु कर्तव्यों की उपेक्षा करके। सभी सभ्यता एवं संस्कृति का विकास चाहते हैं, किन्तु आचार-विचार को छोड़ कर। सभी भौतिक विकास चाहते हैं, किन्तु बेईमानी एवं भ्रष्टाचार के बल पर। सभी सत्ता चाहते हैं, किन्तु मर्यादा एवं नैतिकता को ताक पर रख कर। अपवाद की बात दूसरी है। आत्मनिरीक्षण से ही त्रुटियांे एवं कमियों का अहसास होता है और सुधार की संभावना बनती है, किन्तु कोई आत्मनिरीक्षण करना नहीं चाहता वरन् परदोष दर्शन में संलिप्त रहता है। अपवाद की बात दूसरी है। लोग निज का सुधार करते नहीं और चल पड़ते हैं दूसरों का सुधार करने। 
स्वयं ईमानदारी का बर्तन करने नहीं और दूसरों से ईमानदारी की अपेक्षा करते हैं। स्वयं नैतिकता का वरण नहीं करते और दूसरों से कर्मठता की आशा करते हंै। स्वयं कत्र्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों का कौशल पूर्वक निर्वहन नहीं करते और दूसरों से कत्र्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों  का निष्ठापूर्वक संपादन चाहते हैं। ये सब बिडम्बनापूर्ण स्थिति है। इसलिए दूसरों को सुधारने वाले सुधारकों की नहीं वरन् स्वयं को सुधारने वाले सुधारकों की आवश्यकता है। स्वयं को सुधारने वाले सुधारकों को ही है अधिकार दूसरों को सुधारने का। धर्माडम्बरों और पाखण्डों से नहीं होगा कोई सुधार। समाज को आक्रान्त करने से हाथ खींचना पड़ेगा। राष्ट्र-धर्म के प्रति समर्पित होना पड़ेगा। बिना मलिन स्वार्थ एवं मलिन अहंकार को कम किए तो कोई सुधार हो नहीं सकता और सर्व के कल्याण का अन्य कोई मार्ग नहीं है।
सापेक्षक दृष्टि से सच्चे अच्छे व भले लोगों की कमी नहीं है। उन्हें आगे आना होगा। उन्हें एकजुट होना पड़ेगा। तब होगा संघर्ष एवं विरोध सबल एवं सार्थक रूप में। बुरे लोगों से सतत संघर्ष और प्रबलता से बुराइयां का विरोध आवश्यक है /इसलिए है वैचारिक क्रान्ति का उद्घोष एवं वैचारिक वर्तुल के निर्माण का आह्वान!