विचारों का गंगोत्री क्षेत्र

देवभूमि में संचालित अश्लील वीडियो क्लिपों के कारोबार की घटना पहाड़ के आम आदमी को व्यथित, आहत व चिन्तित कर देने वाली घटना है। गढ़वाल की ऐतिहासिक, धार्मिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक नगरी श्रीनगर में इस कारोबार का केन्द्र होना व्याकुलता के साथ-साथ भयभीत भी करता है, क्योंकि श्रीनगर में अध्ययनरत ऐसे सैकड़ों युवा-युवतियां भी हैं जिनके पिता कहीं सरहदों पर देश की रक्षा के लिए तैनात हैं। माँ पार्वती के इस पितृ-प्रदेश को स्वयं महादेव ने देवभूमि की संज्ञा दी है- फ्पितु-प्रदेश आव देवभूमयः। कविकुल गुरु कालिदास ने इस हिमालय भूमि को 'देवात्मा' कहकर वर्णित किया है। हिन्दी साहित्य के अनन्य मनीषि पंú हजारी प्रसाद द्वीवेदी के शब्दों में- 'हिमालय पुत्री पार्वती का नाम ही नारी चरित्र की सम्पूर्ण शोभा, गरिमा, माधुर्य और पवित्राता की याद दिलाता है। हिमालय दुहिता पार्वती भारतीय नारी का आदर्श है, सतीत्व की मर्यादा है, तपस्या का मूर्तिमान विग्रह है और पातिव्रत की विजय ध्वजा है।'
आज के भौतिक युग में उत्तराखण्ड की यह भूमि भौतिकता में चाहे कितनी भी विपन्न क्यों न रही हो, किन्तु विद्वतजनों की राय में उत्तराखण्ड की तपोभूमि भारतवर्ष की अनादि काल से चली आ रही सांस्कृतिक परम्परा की उत्स भूमि है, भारतवर्ष का जो कुछ भी श्रेष्ठ है, महान है, गौरवास्पद है, उत्तराखण्ड ही उसकी चिन्तन-भूमि रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के रीडर डाॅú मोहन चन्द्र तिवारी ने अपने एक शोध आलेख्य में यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि भरतगणों के कुल पुरोहित वशिष्ट, विश्वामित्र, भारद्वाज आदि ऋषियों ने उत्तराखण्ड हिमालय की गिरि-कन्दराओं से प्रव्रजन करते हुए सरयू घाटी की वैदिक सभ्यता को बसाया था। आगे चलकर इन्हीं अयोध्यावंशी भरतगणों ने अपनी दिग्विजय यात्राओं के दौरान हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ों जैसी उन्नत सभ्यताओं की स्थापना की थी। उपरोक्त उद्धरणों को प्रस्तुत करने का तात्पर्य यही है कि भारतवर्ष में सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्रा में जो भी सर्वोत्तम है, वह उत्तराखण्ड की तपोभूमि का ही चिन्तन-प्रताप है। ऐसी पुण्य भूमि में अश्लीलता का व्यापार यहाँ के चारित्रिक आलोक को मलीन बना देता है, जिसका विरोध सभी चिन्तनशील लोगों द्वारा किया ही जाना चाहिए। अपनी चारित्रिक भव्यता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए यदि यहाँ के लोग सड़कों पर आन्दोलित होते हैं, तो उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। उत्तराखण्ड की नारी धर्म और कर्म की कीर्ति-कैलाश हैऋ उस कैलाश की धवलता की रक्षा करना हम सबका पुनीत कत्र्तव्य है। इस प्रकार के अश्लील वीडियो क्लिपों का निर्माण वैज्ञानिक विकास का निकृष्ट और संस्कारहीन उपयोग है।
उत्तराखण्ड के नये राज्य की स्थापना के साथ ही इस प्रदेश पर माफियाओं की गिद्ध  दृष्टि गढ़ गई है। बड़ी संख्या में बाहरी लोग रोजगार, व्यापार और मजदूरी के साथ-साथ दुर्भावना को लेकर भी प्रदेश में प्रवेश कर चुके हैं। यह प्रदेश ऐसे लोगों के लिए ैवजि ैजंजम के रूप में विकसित हो रहा हैऋ जिसके परिणामस्वरूप राज्य की राजधानी तक में लोग बेचैनी महसूस करने लगे हैं। निःसन्देह इस असांस्कृतिक विकास के लिए उत्तराखण्ड आन्दोलन नहीं लड़ा गया था। उत्तर प्रदेश की तमाम अपसंस्कृति से इस भू-प्रदेश को बचाये रखने तथा उत्तराखण्ड की )षि धरती की सम्पूर्ण मानव-गरिमा की धर्म-ध्वजा को सारे भारत में लहराने तथा इस हिमालयी राज्य को एक आदर्श राज्य के रूप में प्रस्तुत किए जाने हेतु ही उत्तराखण्ड राज्य की ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी गयी थीऋ किन्तु राज्य निर्माण के पफलितार्थ राज्यवासियों को संतुष्टि दे पाने में समर्थ नहीं रहे हैं। इसीलिए राज्य के मतदाताओं द्वारा प्रथम विधानसभा निर्वाचन में भाजपा को और अब कांग्रेस को सत्ताच्युत किया गया है। भाजपा को एक और अवसर प्रदान कर विधानसभा की सूरत बदली गयी है। सूरत बदलने के साथ सीरत भी बदलेगी, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है। राज्य की जनता द्वारा विवेकपूर्ण ढंग से किए गए मतदान के माध्यम से शासन करने वाले लोगों को अनेक प्रकार से संदेश देने का प्रयास किया गया है। हम आशा ही कर सकते हैं कि नये शासक जन-मानस को पढ़ने का प्रयास करेंगे।
उपरोक्त आशाओं-आकांक्षाओं के तारतम्य में राज्य के नव-निर्वाचित मुख्यमंत्राी जी की राज्यवासियों से संस्कार, संस्कृति और आचरण से सम्पन्न विकसित राज्य बनाने के लिए की गई अपील अवश्य आश्वस्त करती है। उत्तराखण्ड का समाज सदैव मर्यादित समाज रहा है। यहाँ के लोगों के लिए जीवन मूल्य, संस्कार और आचरण की शु(ता सर्वोपरि रही है। समाज की मर्यादा पर एक खरोंच भी जन-मानस को स्वीकार्य नहीं रही है। जब भी किसी व्यक्ति विशेष ने मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा को लांघने का प्रयास किया तभी लोकगायकों द्वारा उसके कृत्य के गीत रचकर उस व्यक्ति को शर्मसार कर दिया गया। केवल उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति में पला-बढ़ा राजनैतिक नेतृत्व ही संस्कार, संस्कृति और आचरण के परिप्रेक्ष्य में विकास की बात कर सकता है, और यदि माननीय खण्डूरी जी ऐसे विकास की सोच संजोए हुए हैं तो निःसन्देह यह स्वागत योग्य होगा। उनका यह संकल्प उनके अब तक के राजनैतिक जीवन से पुष्टित भी होता है। उत्तराखण्ड के लोगों को ऐसा विकास कदापि स्वीकार नहीं होगा, जिससे उनके जीवन-मूल्यों को आघात पहुँचता हो। इसमें प्रबल उदाहरण के रूप में पूर्ववर्ती कांग्रेस शासन को लिया जा सकता है। माननीय पंú नारायण दत्त तिवारी की गिनती देश के शीर्ष राजनेताओं में होती है। उन्होंने अपने अनुभवों का पूरा-पूरा लाभ भी राज्य को देने का प्रयास किया। वे केन्द्र से एक बड़ी सहायता राशि राज्य के लिए स्वीकृत कराने में भी सक्षम रहे, किन्तु कहीं न कहीं सत्ता के शिखरों का नैतिक क्षरण कांग्रेस की पराजय का भी कारण बना। नैतिकता का विलोप आज भारतीय राजनीति का सबसे दुर्बल पक्ष बनता जा रहा है और इस नैतिक दुर्बलता की आधार भूमि बन रहे हैं हमारे शिक्षा-मंदिर। भारतीय शिक्षा प(ति का उद्देश्य था- अभ्युदय के साथ अर्थात् सुख-समृ(ि के साथ सर्व स्वीकार्य नैतिक आदर्श की प्राप्ति की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा तथा उसके लिए आवश्यक समझ, दृष्टिकोण व उसका आत्मसात् करना। किन्तु आज का शिक्षा जगत आलोक के स्थान पर अंधकार का ही ज्यादा सृजन कर रहा है। जब समाज बुनियादी स्तर पर ही विकृत हो रहा हो तो पिफर समाज की राज्य व्यवस्था में आदर्श की कल्पना नहीं की जा सकती है। हमारे प्राचीन )षि-मुनियों और समाज के पुरोहितों द्वारा भी धन-धान्य, बाहुबल और दीर्घायु की कामना व्यक्ति और राष्ट्र के लिए की जाती रही है, तभी आज तक गुरुजन, पुरोहित ऐश्वर्यवान, धनवान, बलवान व दीर्घायु रहने का आशीर्वचन प्रदान करते हैं, किन्तु इन सब आशीर्वचनों की नैतिकता की ही पृष्ठभूमि में पफलितार्थ होने की कामना भी की गयी है। आज ऐश्वर्य व धनधान्य की प्राप्ति के लिए क्या कुकर्म नहीं किए जा रहे हैं, इस व्यथा-कथा को लिखने की आवश्यकता कदाचित नहीं रह गयी है।
आज राजनीति केवल पद पाने का माध्यम रह गई है। राजनीति में सेवा-भावना तिरोहित हो गयी है। नेताओं को राजनीति में पद व सत्ता मिलती है तो समर्थकों को ठेकेदारी। साधारण मतदाता को तो पूरे पांच साल तक भुला दिया जाता है। बेचारा मतदाता अपने छोटे-मोटे कार्यों के लिए नेताओं की चैखट पर शीश नवाने के लिए विवश बना रहता है। राज्य कोई भी हो, पार्टी कोई भी हो, राजनीति का एक ही चरित्रा होता है। राजनीति के इस चरित्रा ने सांस्कृतिक रूप से समृ( हमारे गाँवों तक का चरित्रा बदल दिया है। नेताओं के समर्थकों व ठेकेदारों द्वारा किए जा रहे विकास कार्यक्रमों ने पहाड़ के गाँवों की पूरी सोच ही बदल डाली है। पूर्व में गाँवों में सहकार, सहआचरण के साथ एक-दूसरे के सुख-दुःख में जो सरोकार रहता था, आज उसका अभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। परिणामतः ग्रामीण संस्कृति के थान, मण्डाण वीरान पडे़ हैं। लोकोत्सव उल्लासहीन हो गए हैं। गाँवों की सामुदायिकता विलुप्त हो गई है। देश की पहली व दूसरी पंचवर्षीय योजना काल में श्रमदान के माध्यम से जो सामुदायिकता विकसित हुई थी, वह अब सरकारी ठेकेदारी ने ले ली है, इस सरकारी ठेकेदारी ने पक्ष के साथ विपक्ष को जन्म देकर गाँवों में खेमेबन्दी उत्पन्न कर दी है, जिसका प्रभाव गाँवों के दैनन्दिन जीवन पर पडे़ बिना नहीं रहता। मुझे अपने स्कूल के दिन याद आते हैं, जब हम गाँव के रास्तों की सपफाई के लिए इकट्ठा होकर गाया करते थे- 'आओ सभी जौला ये, गाँव की गुवाण मा माटू धोली औला ये।' इन पंक्तियों में यह भाव भी निहित था कि गाँव की हर प्रकार की असंस्कृति को छुपा दें, दबा दें और पैफलने न दें, किन्तु आज गाँव की बुरी बातों को उघाड़ने की ही प्रवृत्ति बढ़ रही है। लबोलबाव, हम ऐसा विकास चाहते हैं, जिसमें शहरों की रेलमरेल और ठेलमठेल के साथ ठहरी हुई जिन्दगी के स्थान पर गाँव के मण्डाण में लोग अपने होने का उल्लास मना सकें। गाँव में सहकार, साहचर्य के साथ सुरक्षा हो। ऐसा विकास दे पाने की कुव्वत माननीय खण्डूड़ी जी रखते भी हैं। यदि वे ऐसा कर सकें तो सचमुच उत्तराखण्ड के जन नायक के रूप में इतिहास उनकी वन्दना करेगा। आओ! हम सब बोधिसत्वों के इस संकल्प का अनुसरण करें-
हो ऐसा कि जग में दुःख से विचले न कोई
वेदनार्त हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई,
हो सभी सुखशील पुण्याचार धर्मव्रती
सबका हो परम कल्याण। सबका हो परम कल्याण।।