मलमास (आत्मकथात्मक )


मृत्यु को सामने देख जीवन को पुनः पाना ही जीवन का मूल्य जानना है...प्रत्येक मुंह पर वही जिक्र था...डूबने का, कश्ती के मल्लाह द्वारा पतवार छोड़ने का और भुवन के पराक्रम का...भुवन चौड़ा हुआ जा रहा था...वह तर होकर बीच में अल्पना को देख लेता...और दिनों से अलग, आज अल्पना का सांवला मुख भी कृपा बरसा रहा था...अल्पना कुमांऊ से श्रीनगर पढ़ने आयी थी, आकर्षक व्यक्तित्व...उसकी बड़ी बहिन श्रीनगर कालेज में ही लेक्चरर थी...धन-धान्य, लावण्य, रूप...तो भला अल्पना उन टेढ़- मेढ़े, अभावग्रस्त छात्रों को क्या समझती...वह सहपाठियों के बीच शब्द भी कंजूसी से बोलती, चितवन का सुख तो मात्र गुरू लोगों को मिलता...गुरू भी आखिर इंसान ही थे...बल्कि अधिक इंसान थे...वे श्रेयस जैसे छात्रों की तरह कल्पनाजीवी जन्तु नहीं थे...शिक्षक होने के अधिकारों का भरपूर उपयोग होता। यदि कोई छात्रा इन अधिकारों का उपयोग अपने स्वार्थ के लिये करना चाहे तो गुरू लोग भरपूर सहयोग करते। छात्राओं को दुर्लभ पुस्तकें, नोट्स, उपलब्ध हो जाते...आदि-आदि। श्रेयस उन दिनों शिक्षकों के अन्दर बैठे साधारण इंसान को नहीं पहचान सकता था। जब अल्पना ने प्रशंसा भरे अनेक शब्द भुवन की ओर भेजे तो भुवन अन्दर तक सिंच गया...उस उम्र मे जीवन ऐसी रेतीली जमीन पर खड़ा होता है कि वह पानी की बूंद तो क्या, वातावरण में जरा सी आद्रता हो, तो उसे भी खींच ले...भुवन आज अल्पना के मुख से बहती रसधार को अगस्त्य की तरह भरपूर पी रहा था। मलासी कुढ़ गया...गुप्ता भी भुनभुना गया। क्योंकि शिक्षकों के बाद गुप्ता ही ऐसा छात्र था जो अल्पना जैसी डीलक्स लड़की की कृपादृष्टि की योग्यता रखता था, गुप्ता ऐसा ही समझता था...अल्पना और गुप्ता के कपड़े एक ही आवृत्ति में बदलते, दोनों के जीवन का एमआरपी लगभग एक जैसे होता। इस कारण गुप्ता, कल्पना पर अपना प्राकृत अधिकार मानता था। मलासी अपनी खाल के सांवला होने के कारण स्वयं को अल्पना के अधिक निकट समझ कर संतुष्टि से भरा होता परन्तु उस दिन तो भुवन ने जैसे हजारों मील का फासला एक मिनट मे तय कर लिया। अल्पना मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा कर रही थी। भुवन ने उन्हीं शब्दों को टीप-टीप कर अपना मन आकण्ठ भर दिया। वह बिना बात ही बार-बार नदी में छलांग लगाने को तैयार हो जाता...ऐसा वह कई दिन तक करता रहा, जब उसने महीने भर बाद सुना कि अल्पना को किसी बड़े अफसर ने जीवन संगिनी बनाने का निर्णय कर लिया है...तो भुवन के साथ मलासी, गुप्ता और एक दो गुरू लोगों को भी झटके लगे...अल्पना ने स्विच आफ करके कई चेहरों की रोशनी बुझा दी...पर आज पिकनिक में भुवन किसी भारी प्रोटोन की तरह केन्द्र में बैठ गया। कश्ती की घटना से अलग, श्रेयस अपनी धुन में चल रहा था...एक घन्टे की इस पैदल यात्रा में डूबने-उबरने की ही चर्चा होती रही...गुरू पत्नियां तक बार-बार भुवन के प्रति आभार प्रकट करतीं...तभी श्रेयस की दृष्टि आभा से मिली, वह लेक्चर वाले दिन से कभी कोई ऐसा अवसर न छोड़ती, जब वह श्रेयस को कुछ सुना सके...उसको आहत न कर सके...आभा को अपनी आंखों के जंगल पर इतना भरोसा था कि वह किसी भी ऐसे व्यक्ति को जो उसकी आंखों मे रास्ता बनाकर सकुशल वापिस लौट जाय, को सहन नहीं कर सकती थी। उस उम्र में कोई भी लड़की अपने रूप का ऐसा अपमान सहन नहीं कर सकती...परन्तु विधिवत देखने वाले श्रेयस को छद्म ढंग से प्रवेश कर उसने अपनी आंखों में टहलते देखा...देखते ही वह स्वयं से पूछने लगी...शायद...परन्तु वह उससे इतने प्रश्न क्यों पूछता रहा...यही सोचकर आभा ने समझ लिया कि या तो श्रेयस आंखों में प्रवेश करना ही नहीं जानता...अथवा वह आभा को कोई भाव ही नहीं देता...श्रेयस ने दृष्टि मिलते ही ठहाका लगाया। आभा को क्रोध आ गया...'अरे आज ये होता न कश्ती में...तो कोई नहीं बचता...सभी को ले डूबता...' बाद में सभी हंस पड़े। श्रेयस के कश्ती में होने न होने की संभावनाओं पर बहस चल पड़ी। आभा ने फिर विष बुझा तीर मारा...'पर इसका वजन है कि कितना? तीन छटांक...' सभी हंस पड़े। श्रेयस को आज पहली बार लगा कि आभा का हंसना उसके मन पर तेजाब जैसी चुभन दे रहा है...एक स्त्री के हंसने पर महाभारत हुआ, परन्तु श्रेयस में तो दुर्योधन जैसा अहंकार भी नहीं था...नशे की लत ने उसके अहंकारों को भी चित्त कर दिया था। आभा द्वारा हंसी उड़ाने पर वह भी हंसी के साथ हो लिया...कहते हैं कष्ट के साथ सहयोग करने पर कष्ट स्वयं ही कम हो जाता है...नहीं...कम दिखाई देता है। सब छात्राओं ने अपने घर से लाये हुये खाद्य पदार्थों के ढेर लगाये...श्रेयस एक कोने चुपचाप बैठा रहा। पैसे न होने के कारण उसे सार्वजनिक स्थानों में इस तरह भोजन करने पर अपराध बोध होता...आखिर वह कितने दिन दूसरों का दिया अन्ना खायेगा...मैस वाला भी उसे यदा-कदा सुना देता...'कोई बात नहीं पंडिजी! पैसे नहीं भी दोगे तो समझूंगा, बामण को अन्नदान किया...।' उसका सहपाठी थपलियाल हाथों में पूरी और आलू के गुटके लेकर उसकी बगल में बैठ गया। 'अबे खाता क्यों नहीं? फ्री का माल है...' श्रेयस के नथुनों में आलू की महक ने उत्तेजना भरी, पूरियों का भूरा रंग उसकी आंतों में आन्दोलन करने लगा। भूख के इसी चेहरे पर 'दर्शन और नीति' का लेप लगाकर कार्लमार्क्स ने दुनियां को दो भागों में यदि बांटा, तो यह शक्ति उसकी लेखनी में नहीं, बल्कि भूख में है...किसका अहंकार, कैसा आत्सम्मान? एक बार तो उसने सोचा कि वह भी खाद्यान के ढेर में अनेक हाथों की ही तरह पूरियां-छोले उठाले परन्तु दूसरे ही क्षण आभा की हंसी ने उसे रोक दिया। जब उसने सुना कि आभा और उसकी दूसरी सहपाठिन के घर से ही पूरा खाने का सामान आया था...वह चुपचाप बैठ रहा...वर्षां बाद उसके अन्दर का अभिमान नशे की पर्ते चीरकर, आभा की हंसी का मुकाबला करने उतरा...'नहीं खाऊंगा ऐसा उपहास भरा भोजन'... कार्ल मार्क्स सुनले! पशु का संसार शरीर है...मनुष्य शरीर के पार भी सोचता है...श्रेयस का अहंकार आभा की हंसी के कारण सीधा खड़ा होकर उसे ललकराने लगा...वरना वह श्रेयस जो भोजन के लिये किसी भी प्लेट से समोसे-पकोड़े उठा लेता था...वह खाद्यान के इस ढेर से अलग होकर नहीं बैठता...तभी उसने स्पर्श का अनुभव किया...उसके पीछे आभा खड़ी थी। साथ में लाजो भी...लाजो के कारण बिष्ट भी वहीं खिंचा चला आया...'अरे खाता क्यों नहीं?' आभा ने वाणी में अपनत्व पैदा किया...जबकि कारण कुछ और था...उस दिन मौत के भय के कारण सबकी भूख मर चुकी थी तो भला इतना भोजन कौन करेगा? आभा को श्रेयस का ध्यान आया...क्योंकि भोजन और पक्वानों पर भौरें की तरह झपटने वाला छात्र यदि एक कोने में बैठ जाय...आभा को विश्वास नहीं हुआ था। 'तुझे किस बात का सदमा लगा है...? तू तो कश्ती में भी नहीं था...चल उठ..!' आभा के वाक्य विन्यास को देखकर श्रेयस समझ गया...कि यह आग्रह हृदय से नहीं बल्कि बु( से आ रहा है...एक समझदार स्त्री भोजन वितरण का कौशल लेकर उसे उकसा रही है...श्रेयस को उसके किसी भी शब्द में प्रेम, स्नेह, करूणा नहीं दिखाई दी। पहले वह आभा की गाली-झिड़की में भी मकरन्द ढूंढ लेता था...अब उसे आभा के इस मीठे आग्रह में भी एक ऐसी चतुर स्त्री दिखाई दी जो भोजन के व्यर्थ होने के कारण आह्वान कर रही थी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया...परन्तु भोजन भी नहीं किया...थपलियाल आश्चर्य में था...'अबे कंगाल...! घर के लिये बांध ले...दो टाइम का जुगाड़ हो जायेगा...' श्रेयस ने किसी की नहीं सुनी...आभा की भी नहीं...छात्रों ने खूब आनंद रचाया...गीत, गाने, गजलें...बिष्ट सारे दिन लाजो के चश्मों पर परावर्तित होता रहा...श्रेयस ने सुट्टे बनाये...पिये...