आर्य समाज ही परिपूर्ण समाज


संसार के सृष्टिक्रम को चलाने की ईश्वर की अद्भुत व्यवस्था है। सृष्टिक्रम का प्रत्येक कार्य नियमित और निर्धारित समय से हो रहा है। ईश्वर की निश्चित व्यवस्थानुसार व विज्ञान के अनुसार सृष्टिक्रम चल रहा है। ज्ञान विज्ञान का समन्वय से संचालन हो रहा है। युग पुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी वेदों के प्रकाण्ड विद्वान थे, उन्होंने ईश्वरीय व्यवस्थानुसार व सृष्टिक्रमानुसार विज्ञान के अनुसार संसार को सत्य ज्ञान कराया है। पूर्णता को प्राप्त करना है मानव जीवन का परम लक्ष्य है। न केवल चेतन समुदाय अपितु सृष्टि का प्रत्येक कण इसके लिये लालायित और गतिशील हैं भौतिक जीवन में जिसके पास स्वल्प सम्पदा है वह अधिक की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील है। बड़े-बड़े सम्राट अपनी इस अपूर्णता को पाटने के लिये दूसरे साम्राज्यों को लूटते रहते हैं। लगता है संसार का हर प्राणी साधनों की दृष्टि से अपूर्ण है, और सभी पूर्णता को प्राप्त करना चाहते हैं।
इतिहास का विद्यार्थी अपने आपको गणित या विज्ञान में शून्य पाता है। भूगोल का संगीत में, वकील डाक्टरी में, यानि जीवन की विद्या में हर कोई अपूर्ण है और हर कोई अगाध ज्ञान का पंडित बनने को तत्पर दिखाई देता है। नदियां पूर्णता को प्राप्त करने के लिये सागर की ओर, वृक्ष आकाशश् की ओर, धरती भी स्वयं न जाने किस गंतव्य की ओर     अधर में आकाश में भागी जा रही है। अपूर्णता की दौड़ में समूचा सौर मण्डल उससे परे का अदृश्य संसार में भी सम्मलित है। पूर्णता प्राप्त करने की बैचैनी न होती तो सम्भवतः विश्व बह्माण्ड में रत्ती भर भी सक्रियता न होती, सर्वत्र नीरव व सुनसान पड़ा रहता, न समुद्र उबलता, न मेघ बरसते, न वृक्ष उगते, न तारागण चमकते और न वह विराट की प्रदक्षिणा में मारे-मारे घूमते। जीवन की साथर्कता पूर्णता प्राप्ति में है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि अभी हम अपूर्ण है और असत्य और अन्धकार में है। हमारे सामने मृत्यु मुंह बाये खड़ी है। हर कोई अपने आप को अशक्त और असहाय पाता है, अज्ञान के अन्धकार में हाथ पैर पटकता रहता है। इस अपूर्णता पर जब कभी विचार आता है तब एक तथ्य सामने आता है और वह है परमात्मा अर्थात एक ऐसी सर्वोपरि सर्वशक्तिमान सत्ता जिसके लिये कुछ भी अपूर्ण नहीं है, वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी सर्वद्रष्टा, नियामक और एक मात्र अपनी इच्छा से सम्पूर्ण सृष्टि में संचरण कर सकने की क्षमता से ओत प्रोत है।
 पूर्णमदः पूर्णमिंद पूर्णातपूर्ण मुदच्यते।
 पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। ;उपनिषद, शान्ति पाठद्ध
 ओं पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत।
 वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्ज शतक्रतो।। ;यजु0 3-49द्ध
अर्थात पूर्ण परब्रह्म परमात्मा से पूर्ण जगत पूर्ण मानव की उत्पति हुई। पूर्ण से पूर्ण निकाल देने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है। जिस प्रकार नदी का एक किनारा समुद्र से जुड़ा रहता है और दूसरा किनारा उससे दूर रहता है, दूर रहते हुए भी नदी समुद्र से अलग नहीं है। नदी को जल समुद्र द्वारा प्राप्त होता है और पुनः समुद्र में मिल जाता है। जगत उस पूर्ण ब्रह्म से अलग नहीं है। मनुष्य उसी पूर्ण ब्रह्म से उत्पन्न हुआ इसलिए वह अपने में स्वयं पूर्ण है। यदि इस पूर्णता का भान नहीं होता, यदि मनुष्य कष्ट और दुःखों से त्राण नहीं पाता तो इसका मात्र कारण उसका अज्ञान और अहंकार में पड़े रहना ही हो सकता है। इतने पर भी पूर्णता हर मनुष्य की आन्तरिक अभिलाषा है और वह नैसर्गिक रुप में हर किसी में विद्यमान रहती है। 
प्रगति और पूर्णता का लक्ष्य बिन्दु ’देवत्व’ प्राप्त करना है-क्षुद्रता और परिधि को तोड़ कर पूर्णता प्राप्त कर लेना हर किसी के लिये सम्भव है। मनुष्य की चेतनसत्ता में वह क्षमता मौजूद है, जिसके सहारे वह अपने स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों को विकसित कर देवत्व को प्राप्त कर सकता है। षटचक्रों एवं पंच कोषांे में समाहित विलक्षण क्षमताओं सि(ियों का स्वामी बन सकता है। यही क्षमता को प्राप्त करना देवत्व की ओर जाना है। जबकि क्षमता की दृष्टि में वह उतना ही परिपूर्ण है जितना उसका सृजेता। इस चरम लक्ष्य की ओर ज्ञात अज्ञात रुप से हर कोई अग्रसर है। विकास इस सृष्टि की सुनियोजित व्यवस्था है। पदार्थ और प्राणी अपनी अपनी आवश्यकता के अनुरुप अपने अपने ढंग से विकास कर रहे हैं। मनुष्य में देवत्व के उदय की यह संम्भावना विचार विज्ञान एवं ब्रह्म विद्या की परिधि में आती है। व्यक्तित्व का परिष्कार अध्यात्म जगत का परम पुरुषार्थ माना गया है। 
‘मैं’ के जानने में ही ज्ञान की पूर्णता है- मैं के साथ मेरा है। जो घमन्ड के साथ कहता है कि मैंने ऐसे किया, ऐसा कर दूंगा। इस नश्वर शरीर को शोभा नहीं देता। इस शरीर का वास्तविक मालिक ईश्वर है। हम दुनिया को जानने की कोशिश में लगे रहते हैं। और संसार के साथ सम्बन्ध कायम करने में लगे रहते हैं। किन्तु स्वंय अपने को जानने का कभी प्रयत्न नहीं करते। हम इस साकार ईश्वर के अंग हंै, साकार से हमारा अभिप्रायः प्रकृति के अंग हंै, यह सारा विश्व हमारा शरीर है। इस ज्ञान का नाम ही मैं है। मैं है वह परमात्मा सत्ता। इस सत्ता को जानना ही आस्तिकता है। अतः अपने आप को जानकर अपना स्वयं का ज्ञान होना आवश्यक है। मैं क्या हूँ? मैं कौन हूँ? मैं क्यों हूँ? इन छोटे से प्रश्न का समाधान न कर सकने के कारण ‘मैं’ को कितनी विषम विडम्बनाओं में उलझना पड़ता है। यदि मैं शरीर हूँ तो उसका अन्त क्या है? लक्ष्य क्या है? परिणाम क्या है? मृत्यु- मृत्यु-मृत्यु।
क्या वास्तव में ‘मैं’ की मृत्यु हो जायेगी। ‘नहीं’ क्योंकि जब तक शरीर में आत्मा रहती है तभी तक मनुष्य मैं का उच्चारण करता रहता हैं। जैसे ही आत्मा शरीर से पलायन हुई मैं का मेरे का सम्बोधन भी समाप्त हो जाता है।
आत्मा को जानिए-आत्मा ही जरा-मरण, भूख प्यास समस्त भय सन्देह संकल्प- विकल्पों से रहित नित्य मुक्त, अजर, अविनाशी तत्व है। उसे जान लेने पर ही मनुष्य समस्त भय शोक, चिन्ता क्लेशों से मुक्त हो जाता है। आत्मा सर्व व्यापी नित्य तत्व है। आत्मा ही मानव जीवन का मूल सत्य है। आत्मा के पटल पर ही संसार और दृश्य जीवन का छाया नाटक बनता बिगड़ता रहता है। अध्यात्मा ब्रह्म ;वृ0 उप0द्ध सर्वव्यापी विराट आत्म सत्ता ही ब्रह्म है। ऐसा उपनिषदकार ने अपनी अनुभूति के आधार पर कहा है। जिसने आत्मा को जान लिया उसने ईश्वर को जान लिया आत्मतत्व जब जगत देह इन्द्रिय तथा संसार के पदार्थों को प्रकाशित करता है। जो अनेक रुपों में दिखाई देता है। जैसे जल की बूदें समुद्र पर गिरते समय अलग-अलग दिखाई देती है, किन्तु गिरने से पूर्व और गिरने पर वह अथाह सिन्धु के रुप में होती है। 
सतः- परमात्मा के अनेक नामों में से एक नाम है, सचिदानन्द सत् अथार्थ-यथार्थता। यथार्थता का अर्थ सत्य को जानना, )त सत्य का ज्ञान होना और अपने जीवन को सत्य मार्ग अर्थात ईश्वरीय आज्ञानुसार चलाना, सतपथ कहा जाता है।
चितः- अर्थात चेतना ही मनुष्य का स्वरुप है। उसी के साथ कठिन और जटिल उलझनों का निर्माता एवं समाधान से जुड़ा हुआ है। सदैव सत्य की ओर चित्त को ले जाना ही समस्याओं का समाधान है।
आनन्द-जिसमें प्रति प्रसन्नता न्यून या      अधिक आनन्द का आधार कारण रुप प्रकृति है बस प्रकृति से ऊपर उठ कर चित्त को सच्चिदानन्द में सदैव लगा देने पर ही परमानन्द की अनुभूति होती है। अतः महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने हमें वेदों की शिक्षा देकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के मार्ग पर चल कर पूर्णता की ओर जाने का मार्ग बताया है।
मानव को सदा अपने को सत्य ज्ञान में अपूर्ण, सतकर्म में अपूूर्ण, सत धर्म में अपूर्ण, सत व्यवहार में अपूर्ण, सत ईश्वर भक्ति में अपूर्ण समझना चाहिए। इससे उसमें अहंकार व अभिमान की निवृर्ती होती है। और वह सत्य पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। वेद और वेदानुकूल आर्ष ग्रन्थ और आर्य समाज के सि(ान्त यही शिक्षा देते हैं।