सूमो का सफर


उस दिन मैं अस्वस्थ सा था। अतः दवा लेने भंवाली में एक कोने में छिपकर क्लीनिक चलाने वाले झोला छाप डाॅक्टर के पास पहुंचा। वहां पर एक समीपवर्ती धुलई गांव की एक बुढ़िया भी अति रूग्णावस्था में लाई गई थी जिसके कमर व हाथ-पांव में काफी दर्द था। सुना वह कल अकेले आयी थी डाॅक्टर के पास। बंगाली डाॅक्टर ने जांच-पड़ताल कर उसको कुछ दर्द नाशक दवायें दीं और कहा कि घर जाकर इन्हें तीन दिन सुबह-शाम ‘जौल’ के साथ खाना। बुढ़िया घर पहुंची, बासी खट्टे मट्ठे का जौल ;मट्ठे- चावल की खिचड़ीद्ध बनाई और उसके साथ दवाई खाई। उससे उसका कष्ट बढ़ गया। डाक्टर ने बंगाली लहजे में जल को जौल कहा था जिसको मरीज ने पहाड़ी जौल समझा। रोग ने बढ़ना ही था। मैं अपनी दवा लेकर रानीखेत रोड के पास अड्डे पर आया, एक झोला भरकर सब्जी खरीदी। वहां कोई बस न थी, लोकल टैक्सियां भी वहां खड़ी रहती हैं, एक सुमो वाला भीमताल-भीमताल चिल्ला रहा था। सूमो जिसमें अधिकतम आठ सवारियां बैठ सकती थीं, भर चुकी थी पर चालक कम से कम इतनी ही सवारियां और बिठाना चाहता था। चालक की बगल वाली सिंगल सीट पर एक महिला व उसका सयाना बेटा बैठा था। तभी एक मियां जी अपनी बीबी को जो बुर्के में थी, चार छोटे-बड़े बच्चों के साथ चालक से विनती करने लगे कि उन्हें जरूरी काम से जाना है, मेहरबानी कर ले चलिये। तब तक कुछ यात्री और आ गये। मैं भी पीछे के दरवाजे से सामान सहित किसी तरह समा गया। चालक दिमाग लगा रहा था कि अपनी बगल में एक सवारी वह किसको बिठाये। मैं बिना मांगे सलाह दे बैठा कि महिला की बगल में दूसरी महिला को बिठा दो। इस पर चालक अचम्भे से बोला-आप इतने बुड्ढ़े हो गये हो, आपको इतनी भी अकल नहीं है कि एक ‘लेडिज’ यहां कैसे बैठ सकती है? गाड़ी का गियर कहां जायेगा। लगता है आप नये-नये आये हैं। यहां आदमी ही बैठेगा, गियर टांगो के बीच में डालकर। मैं अपने अज्ञान पर लज्जित था। मियां जी ने एक बच्चे को चालक की बगल में अभी-अभी किसी तरह समाये एक जीन पैंट धारी को यह कहते सौंप दिया कि भाई साहब तकलीफ न हो तो इस मुन्ने को पकड़ लें। उस व्यक्ति ने बिना ना-नुकुर किये उसे थाम लिया। दूसरे बच्चे को बीच की सीट में बैठे अजनबी को थमा दिया। एक को स्वयं संभाला और सबसे छोटा मां की गोद में दुबक गया। टाटा सूमो में सत्रह लोग थे। परिचालक पीछे का द्वार खोलकर गाड़ी की छत की मुंडेर पकड़ कर पायदान पर खड़ा था। सूमो की छत में भी सामान था। भीतर लोग पैरों के नीचे भी सामान ठूंसे थे तथा गोदों में भी अपने-अपने  झोले साधे थे। एक-दो हाथ मिलाता सिगरेट दबाये खुशी में चालक ने गाड़ी चलाई। चलते- चलते एक लफंगा प्रजाति का युवक चालक की ओर का फाटक खोल कर चढ़ गया। उसने चालक के पीछे से बायां हाथ डाल कर उसकी सीट पकड़ी और किसी तरह उसकी बगल में कूल्हा टिका कर बैठ गया। उसका  आधा शरीर और गाड़ी का फाटक बाहर झूल रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी कम जगह में चालक गाड़ी कैसे चलायेगा, पर वह मस्ती में बेपरवाह आगे बढ़ रहा था। अगले मुक्तेश्वर मोड़ पर अचानक उधर से गाड़ी आने पर चालक ने ज्यों ही स्टेयरिंग तेजी से घुमाया तो कुहनी से बगल वाले की गोद में बैठे बच्चे की नाक में जो चोट लगी तो वह ‘पीं..इ..ई’ कर रो उठा  और मां-बाप को ढ़ूंढ़ने लगा, मियां जी नाराज। कुछ लोगों ने बच्चे को चुप कराने की कोशिश की, तभी एक अधेड़ ने समझाया-अरे सफर में छोटी- मोटी चोट तो लग ही जाती है..वो तो डलेबर साहब हुशियार हैं नहीं तो और जोर की लगती। मियां जी झुंझला उठे और बच्चे को आगे की सीट से मंगवाकर अपनी गोद में किसी तरह बिठला दिया। कुछ यात्री नशे में थे तो कुछ मुंह पर बीड़ी सिगरेट लगाये। महिलायें अपनी साड़ी के पल्लू से नाक दबाये बैठीं थीं। भीड़ थी, उमस थी और उल्टे सीधे मोड़ काटती सूमो आगे बढ़ी ही थी कि भीमताल से आने वाली टैक्सी-जीपें इशारे से बता रही थीं कि आगे महरागांव के पास गधेरे के मोड़ पर आर.टी.ओ. खड़ा है। चालक हर आने वाले वाहन से पूछते आगे बढ़ रहा था। तभी मेरी बगल में मिंयां जी की गोद में बैठे बड़े बच्चे ने जोर से उल्टी करी, पिचकारी सीधे मेरे ऊपर। कुर्ता-  धोती के अलावा पैरों के बीच में साधे सब्जी के झोले को भी गंदा कर दिया। मियां जी ने माफी मंागी ओर मैंने रूमाल से कुर्ता पोंछते हुये माफ भी कर दिया। बीड़ी-सिगरेट के धुयें से एक महिला भी सिर बाहर निकाल कर ‘बैक-बैक’ करने लगी। उसका तरल माल भी हवा से उड़कर भीतर आने लगा। बीच की सीट में काला कोट पहने वकील साहब ने पीछे मुड़कर सांत्वना देते समझाया-उल्टी देख कर घबराना नहीं चाहिये, उल्टी क्या है? फिर स्वतः स्पष्ट किया-जब मुंह से दस्त आने लगे तो उसको उल्टी कहा जाता है और उल्टी कुछ भी नहीं है। मैं उनके ज्ञान और तर्क से हतप्रभ था।
लगभग दो किमी ही चले थे कि सूमो की छत से कुछ सामान पीछे गिरने लगा। परिचालक चिल्लाया-‘रोको-रोको...आलू का कट्टा खुल गया है’ पहाड़ी आलू ढ़लवां सड़क पर ही नहीं, सड़क से बाहर भी गिरने लगे। सूमो रूकी..चालक-परिचालक उतरे। मैं भी उतरा, अन्य यात्री भी। चालक ने आदेश दिया-भाई लागों! जल्दी करो! आलू लुढ़क रहे हैं..वह मुझसे भी बोला-काका आप बुजुर्ग हैं, ढ़ाल में उतर नहीं सकेंगे, सड़क पर दौड़ कर इन्हें इकट्ठा करो। मैं धोती सम्हालता आलुओं के पीछे भागा। अन्य यात्री भी अगल-बगल की झाड़ियों में ढूंढ़-ढूंढ़ कर इकट्ठा करने लगे। इस आलू पतन लीला के बीच जितने भी वाहन विपरीत दिशा से आये उनसे चालक ने अच्छी तरह जान लिया कि आर.टी.ओ. लगभग एक किमी पर ही गधेरे के मोड़ पर चालान काटने खड़ा है। परिचालक ने सबसे किराया वसूलना शुरू किया। आलुओं को कट्टे में भरकर अच्छी तरह बांधकर फिर छत में रख दिया गया। यह नित्य का कर्म था। भीमताल का एक सब्जी विक्रेता मुक्तेश्वर का पहाड़ी आलू भवाली के दलाल से इस सूमो द्वारा मंगाता था। किसी तरह सूमो पांच सौ किमी आगे बढ़ी तो चालक ने गाड़ी रोककर आठ से अतिरिक्त जितनी सवारियां थी, उतार दीं। उनमें मैं भी था। उसने सुझाया कि हम लोग पैदल मार्ग से चलकर आगे खुटानी बैंड पर मिल जायें वर्ना आर.टी.ओ. चालान कर देगा। खुटानी बैंड वहां से पांच किमी दूर था। इस दूरी के बीच के गांवों वाले यात्री अपने-अपने सामान को कंधों में रखकर चलने लगे। मुझे भी यही करना पड़ा। धोती-कुर्ते व झोले से अभी भी उल्टी की महक आ रही थी। मैंने ड्राइवर से प्रतिवाद किया कि जब पूरा किराया लिया तो आधे रास्ते में क्यों उतारा गया? किन्तु किसी सहयात्री ने मेरा साथ नहीं दिया। वे सब लोकल लोग थे, चालक-परिचालक के परिचित। वे तर्क देने लगे-गलती आर.टी.ओ. की है, वह आकर क्यों बैठा है बीच सड़क पर? किसन दा चालक की कोई गलती नहीं है।’ मैं सब्जी से भरे और उल्टी से महकते झोले को कंधें में डाले, गंदे धोती-कुर्ते को समेटे तीन किमी पैदल चल कर किसी तरह घर पहुंचा। मैंने अमेरिका से लेकर आस्टेªलिया तक कई देशों की यात्रायें की हैं। वायुयान, जलयान, पनडुब्बी, रेलयान, बस, टैक्सी और व्यक्तिगत कारों से। कोई भी सफर इतना स्मरणीय नहीं रहा जितना अपने घर के पास वाला यह लघु सफर जो सचमुच में ‘सफर’ करने वाला था।