हर युग में जीवाणुओं और विषाणुओं का प्रसार हमारे वायुमण्डल में रहा हैं। यहां तक कि समाज में भी ऐसे जीवाणुओं की भरमार है परन्तु सामाजिक जीवाणु मानवता को नष्ट करते हंै और पर्यावरण के विषाणु मानव को। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी की चपेट में सारा जगत है। गत् 200 वर्षों मे ऐसी त्रासदी किसी ने नहीं देखी। प्रत्येक समस्या की तीन अवस्थाएं होती हंै पूर्व, पश्चात व मध्य। सबसे ज्वलनशील मध्यवर्ती होती है जब प्रकोप का विसरण हो रहा हो जहां सामथ्र्यवान शक्तियां समाधान के लिए जूझ रही हों। आपदा के इस काल में जब सर्वथा प्राणों की त्राहि हो रही हो तब कुछ प्रबु(-बु(िजीवी अपने व्यंग्यों के तीक्ष्ण बाणों से समाज को छलनी कर रहे हैं। परिवार का मुखिया कोई भी हो, आपादकाल में प्राणों की रक्षा हेतु किए गए उपायों का मान रखकर पालन करना नागरिक कत्र्तव्य है। ऐसे में प्राण रक्षा अपील का उपहास कोई कैसे कर सकता है? अपने घरों में आराम कुर्सियों मे बैठ, रिमोट से चैनल बदल बदल चटकारी मसालेदार व्यंग्य बनाकर सोशल मीडिया के माध्यम से साझा कर ये सम्मानित जन इस काल में द्रोह से कम कुछ नहीं है। प्रतिकूल समय में राष्ट्र मुखियाओं का उपहास, उनके कृत्यों का परिहास और कत्र्ताओं के शील कर्मांे का विरोध कर व्यंग्य करना अपने चरित्र और संस्कारों का निर्लज प्रर्दशन है, जिस से कुल कंलकित होता है। उपहास निकृष्टता का होता हैै जो हास उत्पन्न कर उचित मार्ग प्रदर्शित करता है। परन्तु ऐसे सम्मानित जन उपहास आनंद उत्पन्न कर हत्तोसाहन के लिए करते हैं। वो भी तब जब ये स्वयं कोई मार्ग न जानते हों, यदि हो, तो आगे आयें और हम सभी को कष्ट, वेदना की घड़ी से निकालकर कृतार्थ करें परन्तु दूसरे के पुनीत कार्यांे को परिहास पात्र समझने वाले निर्लज्ज राष्ट्र हित कहां देखते हैं। कृत्य तो दूर, ये मात्र चुप रहकर कठिन काल को काटने में सहायक बनें तो भी कत्र्ता के उद्देश्य में सहायक होंगे। महाभारत यु( के भीषण नर संहार के बीच एक महारथी रण छोड़कर अपने धंसे रथ के पहिए को कांधे से उठाने का जब प्रयत्न कर रहा था तब हास्य उपहास करने वाले उसके सारथी ने अनीतिपूर्ण उसका वध करवा दिया और इतिहास ने एक महान दानवीर खो दिया। मुझे जन्मांध धृतराष्ट्र से कोई शिकायत नहीं परन्तु गांधारी से जरूर है, जिसने आंखों पर पट्टी बांध कर कट्टरवाद की भेड़चाल में कुल के समूल नाश की कसम खा ली है।
चीन का आध्यात्म ‘सैन’ व ‘सुई’ बताते हंै कि पृथ्वी स्थूल स्थायी व अविरल निरंतरता है। जीवन में हम या तो समस्या का चुनाव कर सकते हैं अथवा समाधान का। आपकी प्रकृति आपके चरित्र का निर्धारण करती है। आपात समय में सोशल मीडिया पर आपके चटकारेदार, मसालेदार कटाक्ष धारणा को स्पष्ट करते हंै। शायद आपकी संवेदना ने अपनो को खोने के लिए अश्रु नहीं बहाए कभी अथवा आपके जल्लाद चित्त व मूर्ख ज्ञान पर असंवेदना की चादर पड़ी है, जो इस आपात महामारी की पराकाष्ठा की अवस्था होने पर अपने सगे संबधियों की लवारिस लाशों को कटे हुए वृक्ष की मानिद गली-मोहल्ले में गिरते हुए देखने की दूरदर्शिता न रखते हों। मेरा उद्देश्य किसी की भावना को आघात पहुंचाना कतई नहीं है परन्तु कट्टरता और उपहास के मद में चूर असंवेदन मुखड़ों के ठहाकों पर एक संजीदगी की लकीर खींचकर नागरिक दायित्वों की विनती तो कर ही सकता हॅंू क्यांेकि आज मैं जाऊंगा तो, अजर अमर तो तुम भी नहीं, उपाहासकार के जाने के बाद कोई उपाहासकार न बचेगा। कई इतिहासकार संभाव्य बताते हैं कि समकालीन हड़प्पा व मोहनजोदड़ो जैसी स्वर्णिम संस्कृतियों का अन्त महामारी के कारण हुआ। हमारी संस्कृति सभ्यता के अन्त के लिए ये कट्टरवाद, धर्मपरायण और विषैले वचन कारक न बन जाएं कि बाध्य होकर कर्ता अपने कर्तव्य से विमुख होकर हमंे प्रारब्ध के लिए स्वतन्त्र कर दे, फिर अपने विष से विषाणु का इलाज कर लेना। मेरी नाराजगी उन अधीर श्रोताओं-ज्ञानियों से भी है जो अधीर होकर अपने कर्ण-चक्षु मार्ग से विषाक्त पदार्थ हृदय तक जाने देते हैं और आतुर होकर बिना मंथन किए भ्रमार्थ अग्रसारित कर देते हैं। दरअसल, अपूर्ण ज्ञान और तुलनात्मक बोध के अभाव में समाज में बारूद का हस्तान्तरण होता है जो एटम बम पर बैठी दुनियां के लिए चिंगारी का काम कर सकती है। चित्त, मन, मस्तिष्क, धीर, आचरण, संवेदना के अनियंत्रित उपयोग से ये निश्चय ही तीसरा विश्व यु( करायेंगें जो साइबर से जन्म लेकर भाई-भाई के गला काट पर समाप्त होगा।
मेरे विचार में स्वतन्त्रता का अधिकार 19;1द्ध तथा मानवधिकार की धारा-10 अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पुनर्विचार का समय आ गया है, जब यह स्पष्ट हो जाए कि राष्ट्र बड़ा है अथवा धर्मभीरू समाज, कत्र्ता श्रेष्ठ है या उपहासकार! सभी मिलकर समस्या का समाधान ढूढें न कि लंगड़ी मारकर गिराने का प्रयास, फिर उपहास। तेज मसालेयुक्त तामसिक व्यंग्यकार जठराग्नि को शांत करने हेतु सादगी का आह्नवान करें क्योकि तेजाबियत और गैस का दंश उन्हीं को झेलना है। मानवधिकार के परदे के पीछे से पटकथा लिखने-चलाने वाले नाटककार निर्देशक अपने उद्दण्ड कलाकारों की धृष्टता पर परिहास न करें, उन्हंे सृजनात्मक बनाएं, विध्वंसक नहीं। इनके चटपटे व्यंग्यों की पत्थरबाजी में कहीं स्वतन्त्रता का अधिकार धारा-19;1द्ध संशोधित हुई तो अभिव्यक्ति के अनुदान की मुफ्तखोरी बन्द होते ही कई दुकानों में ताला लग जाएगा।
सामान्य बोध, सामान्य अवस्था में और उच्च बोध संवेदन उच्च अवस्था में। आपदा कालीन अवस्थाओं में श्रेष्ठता का परिचय देकर मानवता के उद्देश्यों के लिए कार्य करना ही सज्जनता है। अपने फूहड़, निम्न स्तरीय व्यंग्य जनित उपहास के शूल चुभोकर गतिशील पहिए को पंचर करने वाले जन, राष्ट्र को अवनति की ओर धकेलने वाले सामाजिक विषाणुओं के लिए कोरोना विषाणु ही जवाब है।
है दम तो उससे सीधे आॅखे मिलाओ! दूर से मै भी व्यंग्य-तंज कस सकता हूं!
(प्रवक्ता गोविन्द बल्लभ पन्त इन्टर काॅलेज भवाली नैनीताल उत्तराखण्ड)