रोशनी की किरण

"क्या मेरे जीवन में कभी रोशनी की किरण अँगड़ाई ले पाएगी"मन में यह विचार आते ही रात के उस गहन अंधकार में पौरुषी अतीत के पन्ने पलटने लगी। गहरे काले बादल भिन्न - भिन्न आकृतियों का रूप लिए बरबस दूधिया चाँद को अपने आगोश में इस क़दर समेट ले जाते कि चाँद की छटपटाहट को पौरुषी आसमान की ओर टकटकी लगाए अपने जीवन के हरेक पहलू से जोड़ने लग गई। अपनी बाल्यावस्था का एक-एक पल चल चित्र की तरह उसके मानस पटल पर अवतरित होने लगा।

हर कोई कितना प्यार करता था उसे, गुड़िया कहकर पुचकारते हुए ,घर का हर सदस्य अपनी बाहों के झूले में झुलाने और कन्धों की सवारी कराने के लिए तत्पर रहता था। घर में कितनी ख़ुशी का माहौल था जब मौसी घर में दुल्हन बन कर आई थी और सब कह रहे थे,पौरुषी अब चाची बुलाओ इन्हें,मौसी से चाची हो गई हैं ये अब तुम्हारी। चाची बोलने में बहुत समय लगा था तब उसे, साथ ही ख़ुशी का पारावार न था क्योंकि अब उसकी प्यारी मौसी हर पल उसी के घर जो रहने आ गई थी परिणय सूत्र में बंधकर।किशोरावस्था की दहलीज लाँघने पर ज्ञात हुआ था उसे कि उसके प्रिय चाचू अपना नाजुक दिल उसकी चञ्चल हिरणी जैसी मौसी के पास पापा की शादी के दिन ही गिरवी रख आए थे।पापा की शादी के दूसरे दिन से ही चाचू खोए -खोए से रहने लगे। न खाने की होश न ही पहनने की। कारण जानने पर ज्ञात हुआ कि उधर मौसी भी चाचू की याद में विरहणी बनी हुई है। अन्त में दोंनो परिवारों की रजामंदी से शादी सम्पन्न हो गई। माँ भी छोटी बहन चपला को देवरानी के रूप में पाकर फूला न समा रही थी। माँ अपने भाग्य पर गर्व महसूस करते थकती न थी,इतना सजीला -गठीला राजकुमार जो मिला था पति रूप में उसे।सहेलियाँ उलाहना देते न थकती थी..."ऐसा रसीला भँवर मिला है ,कातिलाना अंदाज़ है ,पल्लू में समेट कर रखना , इस तरह के भौंरे दिल फेंक होते हैं…. "और न जाने कितनी ही चुहलबाजियाँ माँ को भाव-विभोर कर जाती। माँ तो जैसे पापा के प्यार में मीरा ही बन बैठी थी। हर पल पापा की सुंदर छवि अँखियों के साथ -साथ दिल में समाए रखती।

एक साल भी न बीता कि मैं गोद में आ गई । माँ को तो जैसे मन चाही मुराद मिल गई।इतनी सुन्दर गुड़िया को अपने सीने से लगा माँ फूला न समाती थी। इधर पापा की बेरुख़ी से माँ कुछ खोई - खोई सी रहने लगी। देर रात घर लौटना और बिस्तर पर जाते ही गहरी नींद में सो जाना...सुबह उठते ही बनठन कर समयपूर्व ही घर से निकलना माँ को बेचैन करने लगा। मन में कई तरह की आशंकाओं ने अँगड़ाई लेनी शुरू कर दी। एक दिन बिन बताए ही सारा सामान समेट कर पापा उस चुड़ैल के घर रहने चले गए।अब मैं सात साल की हो चुकी थी।बार -बार माँ से आग्रह करती कि सबके पापा गाड़ी से स्कूल छोड़ने आते हैं। ढेर सारे खिलौने लाते हैं।मेरे पापा कब मेरे पास आएँगे।मेरे ऐसा कहते ही माँ की निरीह आँखों से क़ीमती मोती झरने लगते और मैं अपनी नन्हीं उंगलियों से मां के आँसू पोंछ सीने से लग जाती।उतनी कम उम्र में भी मुझे माँ के दिल के दरकने की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे जाती।

 

मौसी बनाम चाची का व्यवहार गिरगिट की तरह रंग बदलने लगा।माँ की चहेती बहना अब इस तरह से हुक्म चलाने लगी कि माँ समझ ही नहीं पाई कि आख़िर मुसीबतों का पहाड़ क्योंकर टूट पड़ा है। धर्मपरायण होने के नाते माँ बार -बार स्वयं को समझाने का निर्रथक प्रयास करती कि अवश्य उसकी ग्रहदशा ठीक नहीं चल रही है। इसीलिए अपनी चहेती बहन भी दुश्मन बन गई है।माँ का नरम दिल चाह कर भी बहन के विरुद्ध आवाज़ उठाने को तैयार न हो पाता।आख़िर अपने नाम के विरुद्ध कैसे आचरण करती, कल्याणी नाम जो पाया था माँ ने,सबका कल्याण करो स्वयं भले ही पल- पल मरते रहो। मेरे ननिहाल में भी माँ और चपला मौसी ही अकेली नानी की संपत्ति की वारिश थी। नानी माँ पर न जाने कौन सा जादू चलाया चपला मौसी ने कि सारी संपत्ति की अकेली वारिश बन बैठी।

 

इधर पौरुषी ने किशोरावस्था को पार कर युवावस्था में कदम रखा।अभूतपूर्व रूपसौन्दर्य के साथ- साथ विद्वत्ता और वाक्पटुता ने अपने कॉलेज में उसे एक विशिष्ट पहचान दे रखी थी। उसके मृदुल व्यवहार ने युवक-युवतियों के बीच उसे रूप की रानी और सबके दिलों पर राज करने वाली मलिका बना दिया था। हर किसी की जुबान पर पौरुषी का नाम मौजूद रहता।

एक होनहार नौजवान उसे अपना दिल इस क़दर दे बैठा कि जब मौसी ने अपने स्वार्थवश पौरुषी की शादी कहीं और कर दी तब भी राज उस सुन्दर स्वप्न से बाहर नहीं निकल पाया जो उसने पौरुषी के साथ जीवन जीने के लिए देखा था और एकाकी रहने का फ़ैसला यह सोचकर ले लिया कि पौरुषी की जगह तो कोई ले ही नहीं सकता।

इधर पौरुषी की शादी होते ही उस पर मुसीबतों के पहाड़ एक के बाद एक टूटने शुरू हो गए।न जाने मौसी बनाम चाची ने ऐसा नशेड़ी, सनकी वर उसके लिए कहाँ से ढूँढा था जिसके साथ चलने से बेहतर मौत को गले लगाना था लेकिन शायद क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।एक महीना ही बीता था कि पौरुषी के जीवन में एक नन्हीं जान ने अपने आगमन की सूचना दे डाली। नशेड़ी के साथ नारकीय जीवन जीते हुए भी कहीं न कहीं पौरुषी को काले बादलों के बीच चमकती हुई उम्मीद की किरण दिखाई दे रही थी। नौ महीने किसी तरह व्यतीत होते ही एक सुंदर पुत्र रत्न ने पौरुषी की नीरस ज़िन्दगी में ममत्व का रस घोलकर उसे जीने का मकसद दे दिया।

पुत्र सालभर का भी न हो पाया था कि नशेड़ी पति अचानक किस दुनिया में विलुप्त हो गया कुछ पता ही न चल सका। बेटी की ऐसी स्थिति माँ के लिए असहनीय हो गई।माँ स्वयं कितनी ही पीड़ा क्यों न झेल रही हो, औलाद का कष्ट उसके लिए किसी नासूर की तरह टीसने लगता है। बहुत सोच-विचार कर कल्याणी अपने कलेजे के टुकड़े और नवासे को अपने पास ले आई।धीरे- धीरे नानी और माँ की छत्रछाया में यश नन्हें पौधे से मजबूत वृक्ष कब बन गया , इसका अंदाज़ा दोनों अभिभाविकाओं को तब हुआ जब यश ग़लत संगति में पड़ कर सैक्स रैकेट में डूब गया। माँ के हस्तक्षेप करने पर माँ और नानी को पीटना वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगा।अपने नाम के विपरीत ड्रग्ज और स्मगलिंग में लिप्त होने के कारण जेल की हवा खाने लगा। माँ -बेटी दोनों को ही अपने जीवन में आने वाली ख़ुशी की किरण बीच में ही बुझती दिखाई देने लगी। स्वाभिमानी माँ -बेटी बेटे के ग़लत आचरण के कारण लोगों से कतराने लगीं। चारों ओर से हो रही छींटाकशी ने दोनों को तोड़ कर रख दिया। ख़ुशी ने इस क़दर मुँह मोड़ दिया कि चारों ओर उदासी ने अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर दिया। 

बुझती हुई अग्नि से जिस प्रकार अचानक कोई चिंगारी सुलग उठती है और फिर से अग्नि प्रज्वलित होने लगती है ठीक उसी तरह राज का अचानक आगमन पौरुषी के जीवन में फिर से बसन्त ले आया। सूखी ठूँठ सी हो चुकी बेल अब हरी-हरी पत्तियों के साथ खिले खूबसूरत फूलों से लहलहा उठी। नीरस बन चुकी जीवन की बगिया एक बार फिर खिलखिलाने लगी। राज ने अपने स्नेह की ऐसी वर्षा की जिसमें सिंचित होकर यश भी भटकी हुई राह से वापस लौटअपनी माँ और नानी माँ के आँचल की छाया में प्रगतिपथ पर अग्रसर होने लगा।

(सत्य घटना पर आधारित कहानी के साथ)