शिक्षा का धंधा (मलमास )


उन दिनों पहाड़ के लोगों को पाॅलीटेक्निक करके जैई जैसी सुनहरी नौकरी के आत्मवृत का ज्ञान नहीं था...इसलिये छात्रों को बुला-बुला कर संस्थान में भर्ती किया जाता था...जबकि आज संस्थान की एक सीट के लिये मिनिस्टरों के फोन बजते हैं...जिन्हें पहले मेठ, सुपरवाइजर आदि कहा जाता था, वही पद, ऐसे संस्थानों से निकले छात्रों को देकर उन्हें ‘जेई’ कहा जाने लगा था...लेकिन जेई की यह कुर्सी तो हमारे देश में अण्डों को सोना बनाकर मालामाल हो गयी..बिना जेई के हस्ताक्षर के फाइलें अपंग हो गयीं। इन फाइलों को चलायमान बनाने के लिये जेई का संतुष्ट होना अनिवार्य हो गया...हमारे देश में कमीशनखोरी को लोकतंत्र का अंग बनाने में इस छोटी सी कुर्सी ने बहुत बड़ा योगदान दिया...किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि जो मेधावान छात्र इण्टर पास नहीं कर सके थे, उन्होंने जेई बनकर इस देश के लोकतन्त्र को कितना धनवान बना दिया...ऐसा नहीं कि बड़े संस्थानों से निकले इंजीनियर पैसे नहीं खाते थे, परन्तु वे अपनी पद-शिक्षा, प्रतिष्ठा के कारण अपनी वासनायें मन में ही रखकर कसमसाते थे...जैसे कि कई सन्यासी-ब्रह्मचारी, नदी तटों पर नग्न श्र(ालु स्त्रियों के देह पर रेंगती पानी की बूदों को देखकर अपने जीवन को कोसते रहते हैं...हां तो जेई एक ऐसा प्रभावशाली उपकरण बना दिया गया जो अपनी शिक्षा के कारण नैतिकता, शुचिता, मूल्य बोध जैसे शब्दों को ही डस्टबिन में डालकर फाइलों का शीलहरण करते हिचकिचता नहीं था। बड़े अफसर, नेताओं ने इस पद को पैसे उगाहने का वृक्ष बना दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पुलिस विभाग के बाद जेई दूसरा ऐसा कमाऊ व्यक्ति बना जिसने लोकतन्त्र और इस व्यवस्था को बिना श्रम के पैसा पैदा करने का कमाल दिखाया। भूमि, वाहन, कोठियां, बैंक बैलेंस जैसे अलंकरणों के कारण उसे वैवाहिक विज्ञापनों में वरीयता मिलने लगी..समाज ने भ्रष्टाचार को स्वीकार करके उसे सामाजिक मान्यता भी दे दी...पुल के निर्माण, भवन, सड़कों का निर्माण, परियोजनाओं की गुणवत्ता देखने-परखने वाले पद ने मात्र लागत को देखना आरंभ कर दिया। लागत का दस परसेन्ट वसूलना और कमीशन की रकम का पूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ ऊपर तक आवंटन करना ही इन विभागों में पदोन्नतियों का मानक भी बन गया...देश प्रगति की राह पर चल निकला...लोग अपने पुत्रों के ऐसी कमाऊ सीट पैदा करने वाले संस्थान में प्रवेश करवाने के लिये ‘क्यू’ बनाने लगे। श्रीनगर में भी इसी कारण चहल-पहल हो गयी। जो कम शीक्षितों का आश्रय स्थल था, वह संस्थान छात्रों का तीर्थ बन गया। पहाड़ों में चल रही विभिन्न परियोजनाओं, विभागों के लिये जेई बनाने की यह फैक्टरी, राजनीतिक-पारिवारिक, सामाजिक मूल्यों पर छेनी मारने के अस्त्र-शस्त्र बनाने का केन्द्र बन गयी...दूसरी ओर था विश्वविद्यालय...जहां से डिग्री लेकर छात्र सरकारों के शिक्षा-अभियानों को पूर्ण करने के हथियार बने...वैश्विक कल्याण के ठेकेदारों को प्रसन्न करने के लिये राजनेताओं ने प्राथमिक शिक्षाओं को कमाई का दूसरा साधन बनाया...ऐसे स्थानों पर भी स्कूल खोल दिये गये हैं जिन क्षेत्रों की जनसंख्या उस भवन के कमरों के बराबर भी नहीं हैं...परन्तु भवन निर्माण में कमीशन, मेज-कुर्सी में कमीशन, अध्यापकों को नौकरी देने में कमीशन और शिक्षा का ढिढोंरा पीटकर विश्व बैंक से अगली खेप पाने और उस खेप से चुनाव का मोटा खर्च निकालने के कारण श्रीनगर शहर, गढ़वाल की बैशाली बन गया। भारतीय लोकतन्त्र को धनवान बनाने के लिये दो बड़े संस्थान धड़ल्ले से चल निकले। इसी कारण अध्यापन आज पहाड़ों में सबसे बड़ा उद्योग बन गया है। सौ समस्याओं, झगड़ों-प्रदर्शनों के बावजूद भी शिक्षा, पहाड़ों में एक फलता-फूलता उद्योग बना हुआ है...राजनीति का कुकुरमुत्ता भी इसी विद्यालयी शिक्षा के गोबर में पैदा हो रहा है...विश्वविद्यालय राजनीति के डिब्बा बंद नेता बनाने के कारखाने बन गये हैं...कई छुटभैये नेता ठेलियों में बिक रहे हैं...शिक्षा को धन्धा बनाने का श्रीगणेश अंग्रेजों ने किया...इसके लिये उन्होंने आंचलिक उपत्यकाओं, रमणीक स्थलों की खोज करके ऐसे विद्यालय खोले जहां उनके बच्चे गुलाम भारतीयों पर राज करने का स्वभाव प्राप्त करते थे...लेकिन अंग्रेजों की संख्या इतनी नहीं थी, इसलिये भारतीय राजाओं, व्यापारियों, ब्रिटिश शासन के पिट्ठू अधिकारियों को भी मोटी रकमें वसूल करके मैकाले के शिक्षा अभियान का अंग बनाया गया था। अंग्रेज तो चले गये लेकिन शिक्षा का यह धन्धा अपने लाखों लोगों को सिखा गये। देहरादून, शिमला, ऊटी और उत्तर पूर्व के रमणीक स्थलों में स्थापित ऐसे स्कूल जिनमें अपने बच्चों को प्रवेश दिलवा पर आज भी कई माता-पिता ऐसे तृप्त होते हैं जैसे उन्होंने वैतरणी पार कर ली हो...यह शिक्षा का सबसे चोखा धन्धा है...चमाचम भवन, विशाल आंगनों में उर्वशी नस्ल की अध्यापिकायें, कांटे-छुरी चलाने की तरकीब सिखाने वाला तंत्र, साहबों जैसा बोलना, ओढ़ना...ऐसे स्कूलों में पैसे की भूमिका के कारण खोते-खच्चर भी इन अहातों में प्रवेश पाते रहे हैं...फिर हम भारतीय तो ‘डुप्लीकेट’ बनाने में सि(हस्त हैं ही...गली-गली पब्लिक स्कूल के खोखे खड़े हो गये हैं...एक से एक चटपटे नारे लगाकर भाई लोगों ने अंग्रेजी शिक्षा को भी ऐसी विदूषक बना डाला है कि मैकाले भी सिर पीट ले...यह लोकतन्त्र का कमाल हैं...शिक्षा के दूसरे अहाते वयस्कों के लिये हैं...वहां अन्य किस्म के कमाल करवाये जाते हैं। महाविद्यालय और दूसरे तकनीकी संस्थान जहां पर हमारे देश की युवाशक्ति अपने जौहर दिखाती हैं...इन संस्थानों, विद्यालयों को राजीव गांधी ने सीधे संसद और विधान सभाओं से जोड़कर शिक्षा को ही टोपी पहना दी। इन विद्यालयों में जहां छात्र कभी भद्र मानुष बनने और सूचना-ज्ञान के संसार में बालोचित जिज्ञासाओं को शांत करने आता था, वही विद्यालय आज राजनीति के ट्रेनिंग स्थल बन रहे हैं। छात्र आज पबो-बारों की उत्तेजक रोशनी के आदी बन चुके हैं...हत्या, बलात्कार, हिंसा, अनाचार को इन विद्या केन्द्रों तक पहंुचाने का पूरा श्रेय हमारे राजनेताओं को है। शिक्षा को यह स्वरूप देने में शिक्षकों का योगदान कम नहीं है...परन्तु शिक्षक भी तो इसी व्यवस्था से निकलते हैं। छात्रों को शीक्षित-दीक्षित करने, शिष्टाचार-नैतिकता के उदाहरण प्रस्तुत करना अब शिक्षकों को मूखर्तापूर्ण कार्य लगता है। महाविद्यालयों के प्रोफेसर, रीडर जहां सूटिंग-शर्टिंग, सेविंग की चर्चाओं से लेकर, विदेश जाने के जुगाड़ों में व्यस्त रहते हैं...वहीं छोटे शिक्षक वर्ग में घर, जमीन, शादी के चर्चायें मुख्य हैं...दूसरा मुख्य कार्य स्थानान्तरण के लिये दिन-रात चिन्ता उनका ध्येय बन जाता है। बाबू लोग शिक्षकों का आत्मवृत पढ़ के, शिक्षकों की पोस्टिंग जान बूझकर उनके घर से सुदूर क्षेत्रों में करते रहे हैं। इसी कारण जड़ी-बूटी, पर्यटन के बाद स्थानान्तरण पहाड़ों में तीसरा सबसे बड़ा उद्योग है..