तिल के लड्डू जिसने खाये


षड)तु वर्णन दर्शन भी है और भारतीय चिंतको द्वारा काल का आवंटन भी। इन )तुओं में वातावरण, जलवायु परिवर्तन, वानस्पतिक भिन्नता को हमारे देश के कवियों, निबंधकारों ने वांग्मय में खूब परोसा है। पर मुझे इन )तुओं में मनुष्य की उम्र का भी परावर्तन दिखाई देता है। बंसत पहले माह यानि चैत को पड़ता है, इसलिये बसंत सुकुमार )तु है। सब कुछ पुष्पित पल्लवित होता है, सोलहवें साल तक के मनुष्य की तरह। बसंत के बाद ग्रीष्म आता है। खून में गरमी और यौवन का नशा, सब कुछ भस्मीभूत करने को तत्पर उम्र, अपने काॅलेज के बच्चों को इसी बेचैनी के कारण राजनीतिक पार्टियां उन्हें खूब निचोड़ती हैं। फिर शुष्क दिनों पर लैंगिकता की फुहार पड़ती है, जीवन भीगने लगता है। पावस यानि बरसात, आदमी भावनाओं के आकाश कुसुम सहित जमीन पर टपकता है। उमड़-घुमड़ कर संसार को समेटता है। छतों का आर्केस्ट्रा जीवन में संगीत बन कानों को भिगोता है। वर्तमान, भविष्य के गर्भ में औंधा लेट कर अंकुर बन फूटता है, जमीन घेरता है, बरसात मनुष्य की उम्र में पैंतीस तक रहता है। फिर जीवन का हेमन्त आता है। पचास तक की उम्र। जीवन में ठंडक का अहसास आने लगता है। यह हेयर कलर की उम्र है। हेमन्त के शास्त्रीय फूलों की तरह बुढ़ापे की ठंडक के बावजूद कुछ रंग-बिरंगे अलंकरण, पदवियां, राहत बनकर जीवन को संतोष देती हैं। पर हेमन्त की कोख से कब सयाना शरद आ टपकता है, पता नहीं चलता। साठ की उम्र को छूता व्यक्ति शरद की तरह सबसे घाघ होता है, जीवन और शरीर की हलचल को लेकर सर्वाधिक सतर्क। मौत की ठंडी गंध पहचानता मनुष्य, हेमन्त दिनों की तरह अब जवानी की आस छोड़ चुका है। ऊष्मा के बादल रीत चुके हैं, अस्ताचल से आती गहरी खाई में उतरते दिन बहुत भयावह लगते हैं...पर अभी शिशिर है। यही एकमात्र सांत्वना बची रहती हैं। इसलिये घाघ लोग शरद की तरह बहुत सतर्कता से जीवन-मृत्यु के तराजू पर बैलेंस बनाये रखते हैं। खड़ूस लोग जरा सी भी छींक आये तो भी अनन्त आकाश के परिवर्तनों को नहीं बल्कि खून की जांच को महत्व देते हैं। इसी कारण आजकल पैथोलाॅजी वालों के यहां बसन्त बिराजा रहता है। अंतिम )तु है शिशिर...जीवन ठंडा है पर शेष है। सत्तर पार कर चुके लोग शिशिर की तरह हैं। शिशिर में सब सूख कर बीज बन जाता है। जैसा बोया, वैसा ही बीज और वैसा ही अगला जन्म। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शिशिर )तु में किसी पेड़ की सूखी छिम्मियों को, जो कि हवा में खड़-खड़ बज रही हैं, की तुलना शिव की जटाओं से की है। शिव को हमारे पुरखों ने महाकाल यूं ही नहीं कहा है। तीनों काल उसकी हथेली में हैं। पर उसका चलना हम नहीं सुन पाते, शायद शिशिर में सुनते हैं। पर सब नहीं सुनते। वामपंथी तो खैर मंदिरों को भी अफीम का अड्डा कहते थे, पर हिन्दुओं मंे भी प्रकृति-पुरूष पर वर्षों बौ(िक कोलाहल रहा।  बौ( और जैन का नकार। पर जब केरल की दिव्य धरती से शंकर उठे तो उनके अद्वैतवाद ने सबको धो डाला। बौ(ों के भी तंबू उखड़ गये। श्ंाकर कहते हैं प्रकृति, पुरूष और समस्त जड़-जंगम सब एक ही अस्तित्व के भेद हैं। हालांकि द्वैतवाद जिसे कि हीगल ने भी यहीं से टिपाया था, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, समाज को आकर्षित करता रहा , पर शंकर अंत तक ठीके रहे. अद्वैतवाद को रामकृष्ण परमहंस बड़ी सहजता से ध्रवीय समुद्र का उदाहरण देकर समझाते थे। ध्रुवीय समुद्र में कुछ पानी, पानी होता है, कुछ बर्फ बनकर उस पानी में तैरता है, कुछ पानी भाप बनकर उड़ता दिखाई देता है, कुछ बादल बनकर, कुछ कोहरा बनकर, कुछ शिखरों पर मुकुट बनकर चमकता है...सब एक ही पानी तो है। अध्यात्म, संसार से अलग नहीं हो सकता। अतः संसार में जो है वह उसी का बिंब है जो अप्रकट है। विज्ञान इसी उलझन में पड़ा है कि पदार्थ तो ठीक है पर यह पदार्थ जिस शून्य में है, वह शून्य क्या सचमुच शून्य है?। खैर बौ(िकता की खुश्कता से शिशिर और पीला हो जायेगा। जब इन्द्रिय कोष रिक्त हो जाता है, मन-मर्कट की चंचलता ठिठुरने लगती है, तब कुछ गम्भीर लोगों को शिव की पदचाप सुनाई देती है। शिशिर में सूखे पत्तों की बिछावन पर आंेस की ठंडक, दिन-रात जैसे ठहर से गये हों...यही तो बुढ़ापा है। पर शिशिर मात्र सिहरन का नाम नहीं है। शान्ति मात्र मौत की नहीं होती...चाहो तो आनंद की भी हो सकती है। जिंदगी भर शोर सुनने के आदी कान जब शिशिर जैसी उम्र के मौन के समक्ष होते हैं तो भय स्वाभाविक है। केश, शिशिर के पर्वतों की तरह झक सफेद हो जाते हैं, मेहंदी अब उम्र के इस हिमपात को नहीं ढ़का सकती। पर क्या आपने कभी इन हिम शिखरों में समाधिस्थ कपाली जैसे योगी की वैभवशाली उपस्थिति अनुभव की है? हर उम्र की अपनी छाप है, अपना वैभव है। पर जो लोग जीवन भर इन्द्रिय व्यापार में लगे रहना चाहते हैं, उन्हें शिव के माथे पर सजा चन्द्राकार वैभव कहां दिखाई देगा? उनके लिये सुन्दरता का अर्थ मात्र शरीर है। इसी कारण कवि- लेखक शिशिर से भागते रहे हैं। ठण्डी तो कविता भी नहीं बिकती...फिर भला इस कड़कड़ाती )तु का उनके लिये क्या मोल? चलो...आपने मकर संक्रांति को तिल के लड्डू खाये होंगे? यह शिशिर के आगमन के लड्डू हैं, इन्हें खाकर आपको पछताना नहीं पड़ेगा, इन्हें खाकर क्या पछताना? यह पूरे जीवन की मिठास है।