हिमालय


इस शब्द में ही कितना सुकूँ और खूबसूरती छुपी है, इसी एक शब्द के इर्द गिर्द हमेशा अपना अस्तित्व खोजती रही हूँ, इससे इतर स्वयं की कभी कल्पना भी नहीं की, जुड़ाव स्वाभाविक है, जन्मभूमि और कर्मभूमि यही रही। खुद को इसकी चोटियों, खाइयों, घाटियों, नदियों, सरोवरों और निर्मल स्वच्छ समीर को समर्पित कर देती हूँ, लगता है मेरे रग रग में समाया मेरा हिमालय मुझमें, इसके साथ रहना, बातें करना एकांत में सुकूँ पहुंचाता है मुझे...कई बार अपने सपनों में भी इसको अपने करीब पाती हूं। प्यार है मुझे इसकी हर चोटी से, इसकी विशालता से, अटल और अजेय प्रकृति से। सिर्फ यही नहीं, यहाँ के हर रहवासी की जीवनदायनी रहा है हिमालय, हिमालय न होता तो हम न होते, इसके शिखर मानसून में मदद करते हैं, ग्लेशियर हमारी तमाम नदियों को नीरमग्न बनाते हैं। यहाँ की लकड़ियों के फर्नीचर हमारे घरों की शोभा बढ़ाती हैं। और इसकी सीमाएं हमारी रक्षा को तत्पर रहती हैं...तो क्यूँ न हो इससे प्यार मुझे... हम इस हिमालय को जितना देने की कोशिश करते हैं, ये उसका कई गुना हमें वापस लौटा जाता। परन्तु इसके दोहन की जुगत में भूल बैठते हैं कि इसका खामियाजा हमें ही भुगतान होगा। क्योंकि इंसानी संवेदनहीनता इसके विनाश का कारण बनती जा रही है। हम इंसान हिमालयी अकूत खजाने को सिर्फ लूटना चाहते हैं जिसका परिणाम भयावह होता जा रहा है। समय समय पर ये हमें सचेत करने की कोशिश भी करता है पर हम अंधे और बहरे होकर अपना स्वार्थ साधने पर लगे होते हैं। हिमालयी आपदाएं इसका उदाहरण बनकर सामने आ रही हैं। मैं कभी शायद ही इससे अलग होने की सोच पाऊं, तब भी जब आज हूँ और जब न रहूँ...इस हिमालय और अपनी इस मातृभूमि को अगर उसके दिए उपहारों  का एक प्रतिशत  भी दे पाई तो जीवन सार्थक होगा।