स्व, वृंदावन ध्यानी-एक विलक्षण धरोहर(अंक-2)
 


 स्व,वृंदावन ध्यानी एक साहित्यकार के रूप में लेखक,कवि, विश्लेषक औऱ उच्च कोटि के समालोचक भी थे। साहित्यिक अभिरुचि और साहित्य सेवा की उमंगवश वे अपने यजमानी क्षेत्र राय बरेली में;-"पँ महाबीर प्रसाद द्विवेदी के साथ लंबे समय तक रहे।यद्यपि उनकी संस्कृत भाषा पर जबरदस्त पकड़ थी  और उसक्षेत्र में उन्होंने समाज और राष्ट्र को शोध के रूप में अतुल्य निधि प्रदान की फिर भी वे हिंदी और हिंदी के विकास के लिए सदा प्रयत्नशील रहते थे। उनका कहना था:---"हिंदी का विकास उनके सामने हुआ है।"हिंदी की उपेक्षा को वे बर्दास्त नहीं करते थे। युवाओं में साहित्यिक चेतनाऔर अभिरुचि जागृत करने वे समय समय पर सम्मेलन,साप्ताहिक औऱ मसिक बैठकों एक आयोजन भी किया करते थे।देवप्रयाग में तुलसी जयंती समारोह की उन्होंने ही नींव डाली थी।अस्वस्थता के बावजूद वे इस दिन पर देवप्रयाग पँचयती चबूतरे औऱ रघुनाथ कीर्ति हायर सेकेंडरी स्कूल के कार्यक्रम में  बीमारी  की हालत में उपस्थित ही नही रहते थे बल्कि विस्तृत सार गर्भित भाषण भी देते थे।ध्यानी जी के बाद इस परम्परा को ड्राइंग अध्यापक श्री जयनारायण पारीख ने आगे बढ़ाया।इस सम्वन्ध में भरत पर उनका लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह भी उल्लेख मिलता है क्इ ध्यानी जी ने एक पुस्तकालय एवम् वाचनालय भी स्थापित किया था। उनके कुछ  साहित्यिक शोध पूर्ण लेख ये है;-1 अभिज्ञान शाकुंतलम और महा भारत2 कविकुल कालिदास औऱ उनके नाटकआदि2 ।कविकुल कालिदास औऱ उनके नाटकों पर् चर्चा को आगे बढ़ते हुए ध्यानी जी का कहना था कि:-कालिदास के ",मावलिकाग्नि मित्रम" और विक्रमोर्वंशीयम"दोनों नाटक शाकुंतलम के अमर कवि की कृति के रूप में शोभनीय नही हो सकते। सम्भव है ये उनकी आदिम कृतियाँ हों या नभी हों" इसपर उनके दो शोध पूर्ण लेख पठनीय हैं। ध्यानी जी के उक्त कथन ने इस क्षेत्र में शोध के लिये नए द्वार खोल दिये

 जब नारद ऊर्वशी नसमक अप्सरा को राजा के साथ रहने  की आज्ञा देते है औरकहते हैं:---" इयं चोर्वशी यावदायुस्तव  सहधर्मचारिणी"इसके साथ ही राजा सुर उर्वशी का विलासिता पूर्ण जीवन शुरू होता है।इस परध्यानी जी का कहना है कि:--"ये बातें नैतिकता,भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल हैं और नग्न विलासिता की सूचक हैं।--तब कैसे कहा जाय कि जिज़ महाकवि की लेखनी से उद्भूत अभिज्ञान शाकुन्तलं  सदृश समर नाटक हो, वह लेखनी इस प्रकार के त्रोटक और नाटक भी लिखे।नैतिकता और उच्च आदर्शों को छोड़ भी दें तो भी काव्य  की दृष्टि से भी इनमें समानता कठिन है। उनके समर्थंन में जो बाते हैं उनपर यही कहा जा सकता है कि",मावलिकाग्नि मित्रं"सामंतों के विलासिता पूर्ण चरित्र चित्रण के लिए है और त्रोटक होने से "विक्रमोरवंशीयम"में श्रृंगार की प्रधानता तथा भू और स्वर्गलोक का वर्णन किया गया है।अतः इनमें ये विषय आने चाहिए आदि--।"ध्यानी जी आगे बताते हैं कि:-"इनसब  बातों को मां लेने से यह भी उचित  प्रतीत नही होता कि ये दोनों कृतियाँ शाकुन्तल नाटक के लेखक महाकवि  की ही होनी चाहिए, यह बात  संदेहास्पद है। हाँ यह अवश्य  निर्विवाद है कि ये दोनों कृतियाँ अभिज्ञान शासकुन्तलं  से किसी भी बात में समानता  नही रखती। सम्भव है कि ये कृतियां  कवि का प्रथम प्रयास हो।यह विचारणीय तो है।"  यह थी ध्यानी जी की पैनी विश्लेषणात्मक और समालोचक शोध युक्त दृष्टि।

    ध्यानी जी ने दो बड़े रोचक लेख भवभूति के उत्तर रामचरित पर भी लिखे जिनका शीर्षक "उत्तर राम चरित और रामायण"है ध्यानी जी का मानना है कि भव भूति का उत्तरराम चरित-अकेली कृति कवि को  विश्व साहित्य में महानतम सिद्ध करने  के लिए पर्याप्त है।" इसमे ध्यानी जी का प्रयास यह देखना है "कि कवि ने मूल कथा में अपनी ओर से किस अनूठी कल्पना द्वारा नाटक को अमरता प्रदान करने में सफलता पाई है"इसपर उन्होंने सीता को लक्ष्मण के माध्यम से जंगल मे छोड़े जाने और लौटकर सुमंत से प्रश्न को उठाया। जैसा कि लक्ष्मण सुमंत से पूछते हैं कि-"सीता जी के साथ किये गए अन्याय पूर्णकार्य से हीनार्थवाद प्रवासियों के वचनों को आधार मानकर कीर्ति नाशक काम करने से राघव को यह कौन सा धनोपार्जन हुआ?"ध्यानी जी का यहां पर कहना है कि:-"यही कार्य महाकवि के लिए कितना अरुचिकर एवम् दुःखद था।"ध्यानी जी का कहना है कि महाकवि भवभूति ने"दण्ड कारण्य में राम सीता मिलाप एवम् लव चन्द्रकेतु  के युद्ध क़ी कल्पना द्वारा समूची कथा वस्तु का रूप ही बदल डाला है। नाटक को ऑफ़हने से विदित होता है कि कवि एकमात्र काव्य कर्ता ही नही अपितु  दारश्नुक तत्व का सृष्टा- उच्च भारतीय संस्कृति का उपासक भी है।अतः दार्शनिकता ,वेदांत दर्शन विषयक बातें भी उनमें यत्र तत्र पाई जाती है "अनेक प्रसंगों की ध्यानी जी ने व्याख्याएं की और उनपर सार गर्वित टिप्पणियां भी की हैं।

    जैसा कि पहले ही कहा गया है कि ध्यानी जी का हिंदी के प्रति कम अनुराग नही था और उन्होंने कहा था"हिंदी का विकास हमारे सामने हुआ है।" अपने "दक्षिण भारत में हिंदी"नामक लेख में उन्होंने कहा कि:----"हमारा अनुभव  बताता है कि हिंदी स्वतः  अपना स्थान ग्रहण कर रही है, उसे किसी की अपेक्षा नही,बल्कि हिंदी के लिए जो चिल्लाहट है वह घातक हो सकती है।----।"उन इस लेख में निश्चिततः  हिंदी के प्रति प्रेम और आत्म विश्वास और भाषायी एकता का दर्पण हैं। उनका मानना था कि इस कार्य के लिए अखिल भारतीय स्तर पर प्रयास और अभियान चलाए जाने चाहिए।

 ध्यानी जी की यह विशेषता थी कि वे सत्य को स्वीकार करने से कभी नही हिचकिचाते थे।इसके साथ ही वे एक स्प्ष्ट वादी व्यक्ति भी थे।

जब "हिन्दू धर्मादय आयोग "जी रिपोर्ट आई तोवह एक तरह से उत्तर भारत के तीर्थो के पंडों और  मठाधीशों,जो यहाँ की संस्कृति और धार्मिक परम्पराओं आदि के वाहक और रक्षक हैं,के अस्तित्व ओर खतरा मंडराया तो उसे गहराई से समझने के बाद उन्हें जो तकलीफ हुईवह यह थी कि रिपोर्ट केवल उत्तर भारत के पंडों आदि पर लागू होती थी न कि दक्षिणवालों पर।  ध्यानी जी पंडों और मठाधीशों की वास्तविकता को बहुत करीब से जानते थे। इसी लिए उन्होंने कहा था:---"इससे भयभीत होने क् कारण नही है।यदि भय हौ तो मठाधीशों और तीर्थ पुरिहितों के अपने ही  आचरणों का यजो उनके आचरण का ही उन्मूलन कर सकते हैं"इसप्रकार उन्होंने सामाजिक निंदा अपयश की परवाह किये पंडों और मठाधीशों  को आईना दिखाकर सुधारात्मक मार्ग अनुगमन की बेबाक शब्दो  मे राय भी दे डाली।

ध्यानी जी शिक्षा प्रसार से भी जुड़े रहे।देवप्रयागी समाज और गढ़वाल भ्रातृ मंडल के संयुक्त प्रयास से देवप्रयाग बाह में 1908 में स्थापित रघुनाथ कीर्ति आदर्श संस्कृत महा विद्यालय के वे सन1926 से 1945 तक मंन्त्री रहे।जबकि 1922 में वे बद्रीश नवयुवक पंडा सम्मेलन के अध्यक्ष बने थे।

 ध्यानी जी एक कुशल सुर मंझे हुए पत्रकार भी थे जिनकी दर्जनों रिपोर्ट विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई हैं।1928-29में वे महेशा नन्द थपलियाल के"गढ़ देश" समाचार पत्र जे जूस गए थे।जिन पत्र पत्रिकाओं से वे जुड़े थे उनमे ,--गीता धर्म, सरस्वती, स्वतंत्र भारत, हिन्दू साप्ताहिक,जनता राज राय बरेली,उत्तराखँड,सत्यपथ, शैलोदय, हिमाचल, भारत, युगवाणी, सरहदी, गढ़वाल टाइम्स, ब्राह्मण सर्वस्व, कर्मभूमि,नवजीवन,युगसन्देश आदि उल्लेखनीय है।

    आइए अब ध्यानी जी की राजनीतिक यात्रा औरराजनीतिक लेखन के तरफ बढ़ें।

यह तो पाठक जान गए हैं कि1920 मेंगढ़वाल कोंग्रेस के संस्थापकों में वृंदावन  ध्यानी जी भ्य एक थे। 20 वर्ष की आयु में1922 में वे पौड़ी जिलाबोर्ड के सदस्य बने और 1926 -27में देवप्रयाग टाउन एरिया के गैर सरकारी चेयर 

मैन।ब्रिटिश राज की हीरक जयंती पर रियासत सेप्राप्त 24000 हजार की धनराशि से उन्होंने देवप्रयाग में अस्पताल का निर्माण करवाया।1927-28 में वे टेहरी राज्य विधान सभा  के सदस्य रहे। सदस्य के रूप में उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण विधेयक सदन में प्रस्तुत किये यथा:-1-अविवाहित संतानाधिकार विधेयक2-,बहुपति प्रथा निषेध3-कन्याशुल्क प्रतिवंध विधेयक 4-पंडा पँचायत विधेयक5-तीर्थ सुधार विधेयक।स्व,ध्यानी की जहां राजनीति पर गहरी पकड़ थी वहीं उनकी दूर दृष्टिता का भी जबाब नही था ।इस सम्वन्ध में उनके चचेरे भाई सुंदर सिंह ध्यानी पत्रकार का कहना है कि":----"पिछले 1967 के साल में जो वीभत्स ""छात्र आंदोलन","अंग्रेजी हिंदी आंदोलन"हुए, भाई साहब ने7 वर्ष पूर्व ही अपने लेखों द्वारा बता दिया था कि निकट भविष्य में गम्भीर स्थिति  राजनेताओं के सामने आ सकती है।"और हुआ भी वही। जहां तक उनकी राजनीतिक विचार धारा का सँवँध है तो वे एक कोंग्रेस जंन थे।परंतु शुद्ध गांधी वादी और उनकी गांधीवाद में दृढ़ आस्था और प्रतिवद्धता के मध्यनजर ही उनके अवसान पर सत्यपथ अखबार के संपादक ने ललिता प्रसाद नैथानी ने उन्हें"सच्चे अर्थों में गाँधी युग की थाती"माना। क्योंकि वे नीति और सिद्धान्त के पक्के थे और उससे हटना उनके मंजूर नही था इसी लिए वृंदावन ध्यानी स्मृति ग्रंथ के संपादक स्व, मोहनलाल बाबुलकर का कहना है कि:---"कोंग्रेस सरकार की गलत नीतियों से ऊब कर वे पार्टी की सक्रिय सदस्यता औऱ सक्रिय राजनीति  से अलग हो गए।थे,लेकिन अपने लेखों द्वारा सरकार को सुझाव देते रहते थे-----।"स्व, ध्यानी उन प्रगति शील राजनीतिज्ञों में से थे जो हमेशा उत्पीड़न और शोषण का विरोध करते यह। उन्होंने अपनी सरकार और अन्य दलों की जंन विरोधी नीतियों से हमेशा लोहा लिया साथ ही सुधारात्मक मार्ग भी दिखाया। उनके देवप्रयाग टाउन एरिया केअध्यक्षीय कार्यकाल में मात्र 150 रुपये कोष में थे।लेकिन जब उन्होंने पड़ छोड़ा तो कोष में32000 रुपयेछोड़ कर गए।

    टेहरी रियासत की 1300 साल पुरानी सामन्तशाही के जनक्रांति से पतन औऱ रियासत का संयुक्त प्रांत आगरा व अवध(यूपी)

 में विलय हुआ तो ध्यानी जी दुबारा दो वर्षों तक चेयरमैन रहे।1938 में गाड़ी सड़क आंदोलन के दौरान पँ नेहरू के गढ़वाल श्रीनगर दौरे के समय ध्यानी जी उनके साथ थे।जो बताता है कि अपनी सक्रियता और कुशाग्र बुद्धि के कारण उनका कोंग्रेस के उच्च नेतृत्व से निकट का संपर्क था और नेतृत्व उन्हें महत्व देता था। 27 जनवरी प्रातः 10 बजे अपने पीछे आदर्श और अपार सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक निधि छोड़कर इस महान प्रेरणा दायी विभूति ने अंतिम सांस ली।। इति। इस  प्रस्तुति में समस्त  सामग्री  स्व, मोहनलाल बाबुलकर द्वारा सम्पादित वृंदावन ध्यानी स्मृति ग्रँथ पर आधारित है जिससे यह पुनर्पाठ सामने लाया गया।