व्यथा श्रमिक की

ओह!पूरी खोली में शोर मचा हुआ है।जल्दी चलो ,नहीं तो पुलिस पकड़ लेगी....थका हारा रौशन अभी काम से लौटने के बाद मुँह हाथ धोने गुसलखाने में घुसा ही था कि घबराहट के मारे वैसे ही बाहर निकल आया।आज ठेकेदार ने उसे एक घण्टे देर से छोड़ा,इसीलिए खोली वाले दूसरे भाई समय पर पहुँच गए और अपना -अपना सामान बाँध लिये हैं... चलो -चलो जल्दी निकल पड़ें की आवाज़ें तेज़ होने लगी थी...तो क्या उसे ऐसे ही निकलना पड़ेगा। ज़्यादा सोचने का समय नहीं था इसलिए उसने जल्दी से एक थैले में अपने वही पुराने दो जोड़ी कपड़े ठूँसे और बदहवास सा निकल पड़ा।मन में कई सवाल ..काश!आजतक की पगार ही मिल गई होती तो कुछ तो जेब में होता ।न जाने रास्ते में कितने दिन रुकना पड़े ..पैदल जो जाना है।इस मुई छूत की बीमारी के कारण तो गाड़ी -घोड़ा सब बन्द हो गया है। कुछ ही दूरी तयहो पाई थी कि पुलिसकर्मियों ने आगे जाने से रोक दिया।तब से एक कमरे में बंद दिन की भूख और रातों की नींद ग़ायब हो चुकी है।बार -बार बीमार माँ का चेहरा विह्वल कर जाता है जिसकी दवाओं के लिए वह गाँव से इतनी दूर परदेश में आया था।सोचा था ख़ूब मेहनत करके पैसा जमा करूँगा और ख़ूब धूमधाम से बहन पारू के हाथ पीले करवाऊँगा। आज डेढ़ महीने से ऊपर होने वाला है । उसकी साँसे तो दूसरे के पसीने में भीगी लिजलिजी रोटी खाकर भी चल रही हैं.. लेकिन दवा के अभाव में क्या माँ की साँसे.... और बहन पारू."....यह ख़याल आते ही रौशन के हाथ की लिजलिजी रोटी उसकी आँखों से बहती अश्रुधारा में पूरी तरह भीग गई।