!!लाक डाउन में मानव स्वभाव!!

(मनुष्य से अधिक मनुष्यता पर संकट)

कोविड-19 जानमाल की बचाव हमारे सामाजिक ढांचे की पारस्परिक संगति दुःखद व चौंकाने वाली है। पता नहीं  सोशल डिस्टेन्सिंग हमारे अति प्रेम (जो मनुवादी व्यवस्था को न्यायोचित और विज्ञान सम्मत ठहराने के बहाने तलाशता ही रहता है) का असर कि कोरोना और सामाजिक अलगाव की जुगलबंदी देखते को मिल रही है। लोग भले ही फिजिकल डिस्टेन्स बनाने में जरूर लापरवाह लग रहे हो, लेकिन कोविड-19 के बहाने सामाजिक दूरी बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। एक ओर जहां स्वयं को सभ्य और सुशिक्षित मानने वाला उच्च वर्ग को अपना आदर्श मानने वाला मध्यम वर्ग है जो इस समय बोरियत के बावजूद घर पर बने रहने और अपनी पसंदीदा डिशेस के बिना एकान्तवास में रहकर राष्ट्र के लिए की गई एक बड़ी कुर्बानी के रूप में पेश कर रहा है।

वहीं दूसरी ओर वे लोग हैं जो इस उच्च वर्ग की दृष्टि में अशिक्षित हैं,असभ्य हैं, अस्वच्छ हैं, अनुत्तरदायी हैं और अपनी लापरवाही के कारण देश को खतरे में डाल रहे हैं। इनके बारे में यह कहा जा रहा है कि ये सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के कारण मुफ्तखोर बन गए हैं और अपने मनमौजी स्वभाव  तथा नासमझी  के कारण लॉक डाउन के अनुशासन का पालन करने में असमर्थ हैं। 

कोरोना ने अस्पृश्यता की अवधारणा को घातक रूप से विज्ञान सम्मत आधार प्रदान किया है। यह अस्पृश्यता  जाति भेद, रंग भेद और नस्ली नफ़रत से भी भयानक है क्योंकि इसका विस्तार मानव के स्पर्श, गंध और हर उस प्रक्रिया तक है जो सामीप्य और निकटता की आश्वासनकारी ऊष्मा के द्वारा  मनुष्य को राहत प्रदान करती है।

 

कोरोना ने मनुष्य और मनुष्य के बीच संदेह की दीवार तो जरूर की है। किस मित्र, किस परिजन, किस रक्त संबंधी के रूप में कोरोना का आक्रमण होगा यह भय पहले से ही कमजोर पड़ चुकी पारिवारिक-सामाजिक व्यवस्था पर निर्णायक आघात करता लगता है। नगरीय समाज को तो फिर भी न्यूक्लियस फैमिली का अनुभव है किंतु ग्रामीण समाजों में जहां संयुक्त परिवार अभी भी जीवित है कोरोना के द्वारा थोपे गए इस सन्देहजनित एकांत को स्वीकृति मिलना कठिन होगा।

कोरोना की यह प्रकृति संदेह और घृणा के नैरेटिव को फैलाने के लिए एक हथियार के रूप में बड़ी आसानी से इस्तेमाल की जा सकती है और किसी जाति, नस्ल या धार्मिक समुदाय को इस बीमारी के प्रसार के लिए उत्तरदायी ठहराकर बड़ी आसानी से उसे हिंसा का शिकार बनाया जा सकता है।

ग्लोबलाइजेशन ने कोरोना को पैनडेमिक बनाने में अहम योगदान दिया है। लेकिन जब इसके इलाज और नियंत्रण का प्रश्न उठा रहा है तो हम देशों के बीच उसी संदेह और अविश्वास को पनपता देख रहे हैं जिसे व्यक्तिगत स्तर पर इस पैनडेमिक ने फैलाया है। चीन, जहां से यह रोग उत्पन्न हुआ अभी भी इसके विषय में वैसी ही गोपनीयता बरत रहा है जैसी वह अपने अन्य आंतरिक मामलों के संबंध में बरतता रहा है किंतु जब यह वायरस पूरे विश्व के लिए एक खतरा बन गया है तब चीन से कहीं अधिक पारदर्शिता की अपेक्षा की जाती है। चीन इसके लिए तैयार नहीं दिखता।

 

एक ऐसा नैरेटिव भी बनाया जा रहा है कि इस वायरस का प्रसार चीन और उसके व्यापारिक प्रतिद्वंद्वियों की प्रतिस्पर्धा का परिणाम है- एक ऐसी प्रतिस्पर्धा जिसमें विजय प्राप्त करने के लिए बिज़नेस एथिक्स को त्यागकर बायोलॉजिकल वारफेयर का सहारा किसी एक पक्ष द्वारा लिया गया। अमेरिका और चीन के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। अमेरिका और चीन में कौन सचमुच  विक्टिम है और कौन विक्टिम कार्ड खेल रहा है अथवा कोविड-19 का प्रसार एक स्वाभाविक घटनाक्रम है।

 

विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। अमेरिका द्वारा डब्लूएचओ पर लगाए गए आरोपों का सच सामने आने में तो समय लगेगा लेकिन इतना तो तय है कि डब्लूएचओ से कोविड-19 की भयानकता के आकलन में कहीं न कहीं चूक हुई है। वह स्वयं इस रोग के विषय में अनिश्चय का शिकार रहा और उसकी इस दुविधा ने निर्बाध अंतरराष्ट्रीय आवागमन को बढ़ावा दिया जिस कारण चीन के वुहान शहर में फैला यह रोग एक पैनडेमिक का रूप ले सका।

ग्लोबलाइजेशन,भले व्यापारिक प्रयोजनवश ही, अंतरराष्ट्रीय नागरिक होने का बोध उत्पन्न करता  है। वैश्विक स्तर पर भाषा, संस्कृति और लोक व्यवहार के परस्पर फ्यूज़न द्वारा एक उदार चेतना के निर्माण में  उसकी भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। 

 

ज्ञान विज्ञान के आदान प्रदान को -व्यावसायिक स्वार्थवश ही सही- वैश्वीकरण ने बढ़ावा दिया है। किंतु इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर ग्लोबलाइजेशन के सकारात्मक पक्षों का लाभ कोविड-19 के साथ लड़ाई में अब तक मिलता नहीं दिख रहा है। जहां भारत ने जरूरतमंद देशों को हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन के निर्यात का फैसला लिया है वहीं जर्मनी ने स्पेन, इटली और फ्रांस के मरीजों को अपने यहां लाकर उनका इलाज किया है। ऐसी पहल और भी देशों से अपेक्षित है।

कोविड-19 ने लोगों को संकीर्ण राष्ट्रवाद की ओर धकेला है। विदेशों में रहने वाले प्रवासी श्रमिक,कर्मचारी, व्यवसायी, उद्यमी और छात्र सभी इस संकट की घड़ी में अपने देश वापस लौटना चाहते हैं। उनमें उत्पन्न यह असुरक्षा बोध जितना मातृ भूमि के प्रति सहज लगाव का परिणाम  है उससे कहीं अधिक यह उस सत्य की स्वीकृति का नतीजा है कि हर देश अपने मूल निवासियों की प्राण रक्षा को सर्वोच्च वरीयता देता है और आप्रवासी हमेशा उसकी दूसरी प्राथमिकता होते हैं।

 

जब जब राष्ट्रों के अस्तित्व पर संकट आता है तब तब वह प्रसिद्ध उक्ति चरितार्थ होती है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति विचारधारा एवं उदार मानव मूल्यों से नहीं अपितु संकीर्ण स्वार्थों और राष्ट्र हित से संचालित होती है। 

 

कोरोना की चिकित्सा दो कारणों से कठिन बन गई है। चिकित्सा विज्ञान के पास इस वायरस की संरचना और  क्रिया विधि के संबंध में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। एलोपैथी जिन डबल ब्लाइंड प्लेसिबो कंट्रोल्ड स्टडीज के आधार पर अपनी दवाओं के सुरक्षित होने का दावा करती है उनके लिए समय इस वायरस की आक्रामकता ने नहीं दिया है। रोगियों पर ही विभिन्न औषधियों के प्रयोग किए जा रहे हैं और कोई आश्चर्य नहीं है कि इन औषधियों के कुप्रभावों से रोगियों को गंभीर एवं प्राणघातक क्षति पहुंचती होगी।

यही स्थिति कोरोना के लिए वैक्सीन विकसित करने को लेकर है, पशुओं से प्रारंभ कर धीरे धीरे मनुष्य पर प्रयोग करने की प्रक्रिया अपनाने के लिए आवश्यक समय वैज्ञानिकों को मिल नहीं पा रहा है और कोरोना से ठीक हुए मनुष्यों के प्लाज्मा से वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया अपनाई जा रही है। इन सारे वैक्सीन विषयक प्रयोगों में सैंपल साइज भी अपर्याप्त ही है।

दूसरी कठिनाई इस रोग की संक्रामकता के कारण है। रोगी को अपने परिजनों की मौजूदगी में जो मानसिक संबल मिलता था वह उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। अपने परिजनों से लगभग अंतिम विदा लेकर अनिश्चित भविष्य की एकाकी प्रतीक्षा करने की बाध्यता भी निश्चित ही रोगियों की जीवनी शक्ति को कमजोर करती है।