"मौसम के बहाने"
 


मौसम फिल्म के एक दृश्य में डॉक्टर अमरनाथ को अपनी सस्ती अदाओं से रिझाने की असफल कोशिशों में लगी कजरी के रोल में शर्मिला टैगोर थोड़ी हैरानी और भोलेपन से पूछती है- तुम दूसरे टाइप के आदमी हो ?

उसके मासूम विश्वास को बरकरार रखने के लिए संजीव कुमार सहजता से हां में सिर हिला देते हैं।

       यक़ीनन वह दूसरे टाइप का ही आदमी रहा होगा जो एक ही फिल्म में नौ किरदारों को सफलतापूर्वक जी सकता था। यूं संजीव कुमार ने डेढ़ सौ से ज्यादा फिल्मों में काम किया। जिनमें सबके नाम भले ही याद ना हो लेकिन उनमें हरिभाई का निभाया रोल किसी को भूल गया हो, ये हो ही नहीं सकता। 

रोल कोई भी हो,कितना भी छोटा या लंबा हो !  अपनी अदाकारी के विविध रंगों से संजीव कुमार उर्फ हरिभाई उसे आकाश सा इंद्रधनुषी विस्तार दे देते थे । 

स्थापित हो जाने या एक मुकाम हासिल कर लेने के बाद अक्सर अदाकार यह कहते हुए सुने जाते हैं कि फलां निर्देशक ने हमें वह बनाया, जो आज हम हैं।  लेकिन उनके जिगरी दोस्त रहे निर्देशक गुलजार के बारे में मेरा ऐसा मानना है कि सही मायनों में उन्हें 'गुलजार' किया संजीव कुमार की अदायगी ने । हरिभाई और गुलजार साहब की जोड़ी ने करीब बारह हिट फिल्में दी हैं,जो सार्थक सिनेमा में मनोरंजन के चरम पर पहुंच कर दर्शकों के दिल में उतरती हैं ।

 फिर वह 'नमकीन' का गेरूलाल हो ,जो वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, शबाना आज़मी के बीच किराएदार होकर भी सबके मन का मकान-मालिक ही नहीं बन बैठता है, बल्कि अपनी अदाकारी से दर्शकों का दिल भी जीत लेता है । और 'नमकीन' हिंदी सिनेमा के इतिहास में संजीव कुमार की अभिनय क्षमता के एक नये स्वाद के तौर पर दर्ज़ हो जाती है। 

'परिचय' में जया भादुरी और जितेंद्र की खुशनुमा नौजवान उपस्थिति के बीच बुजुर्ग संगीतकार शिक्षक के किरदार का सशक्त परिचय देने में भी पूरी तरह से कामयाब रहे संजीव कुमार । 

'कोशिश' का हरिचरण माथुर बिना बोले भी एक गूंगी बहरी फिल्म को बोलती फिल्म में तब्दील कर देता है अपने जीवंत अभिनय से।

'आंधी' में इंदिरा गांधी की सी छवि लिए पूरी फिल्म पर हावी हैं सुचित्रा सेन। लेकिन उनके परित्यक्त पति के रूप में भी जैसे संजीव कुमार को ही अपना बना  रखा हो दर्शकों ने। 

हमेशा संजीदा ही क्यों ! संजीव कुमार हंसाते भी थे । किशोर कुमार जैसे महान हास्य अभिनेता जो काम न कर सके, वो 'अंगूर' में संजीव कुमार ने कर दिखाया। किशोर कुमार के डबल रोल वाली इस कहानी पर पहले भी फिल्म बनी थी,लेकिन पिट गई ।  संजीव कुमार ने एक बार जब गुलजार साहब  से शिकायत की -कि यार तुम मुझे हर फिल्म में बूढ़ा ही दिखाते हो, जवान कब दिखाओगे?  तो उन्होंने अंगूर फिल्म के अशोक के किरदार में संजीव को उनकी वास्तविक उम्र का दिखाया। संजीदा और हास्य दोनों भूमिकाओं में संजीव फिर भी 'बड़े' ही साबित हुए। 

..और मौसम के डॉक्टर अमरनाथ। कजरी जैसी एक भले घर की लड़की के मजबूरीवश वेश्या बन जाने और उसकी दिवंगत मां के प्रेमी द्वारा उसे समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करना! 

कागजी पन्नों पर पढ़ने में यह कहानी किसी को भी विचलित कर सकती है। लेकिन फिल्म के माध्यम से इस संवेदनशील विषय को सहज प्रश्न बना कर मन में खड़ा कर देना आसान नहीं है। गुलजार की अभिनव कल्पनाशीलता को नया आयाम मिलता है संजीव कुमार की ग्राह्य और स्पर्शी अभिनय की सहज समझ से।

डॉ.अमरनाथ के स्नेह में कजरी का अपना प्रेमी तलाश करना,और अमरनाथ का कजरी को अपनी बेटी समान मानकर उसे देह व्यापार के धंधे की  मजबूरी से बाहर निकालने का प्रयास ! उसको अपवित्र साबित करने वाली अपराधबोध की भावना से मुक्त करने की कोशिश । 

लाजवाब हैं गुलजार की कहानी के संजीव कुमार और शर्मिला टैगोर ।  फिल्मी पर्दे पर ऐसे मौसम बार-बार नहीं आते। जिनमें डॉ. अमरनाथ के किरदार को संजीव कुमार जैसे महान अभिनेता वाकई अमर कर जाते हैं। 

गुलजार के बाद अब थोड़ी सी बात ऋषिकेश मुखर्जी की भी।  थोड़ी सी इसलिए कि फिल्मी सफर के शुरुआत में  संजीव कुमार का रोल ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में जरा छोटा- छोटा सा हुआ करता था। जैसे 'सत्यकाम' और 'आशीर्वाद' में।  लेकिन भूल जाने जैसा या अनदेखा करने जैसा यह फिर भी ना हुआ। 'सत्यकाम' धर्मेंद्र और 'आशीर्वाद' पूरी और पूरी तरह से अशोक कुमार की फिल्म है। फिर भी संजीव कुमार याद रह जाते हैं अपने सहज अभिनय और मोहक मुस्कान के दम पर। हां 'अर्जुन पंडित' में जरूर ऋषिकेश मुखर्जी ने उन्हें विस्तार दिया तो उन्होंने भी अदाकारी के झंडे गाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

इसके अलावा 'अनुभव' और 'गृह प्रवेश' में बासु भट्टाचार्य,'पति-पत्नी और वो' में बी.आर.चोपड़ा , 'सिलसिला' में यश चोपड़ा जैसे दिग्गज निर्देशकों पर भी संजीव कुमार साहब का एहसान है कि उन्होंने उनकी फिल्में साइन की। 

एकबारगी रमेश सिप्पी का नाम किसी को याद आए ना आए, लेकिन शोले के ठाकुर साहब को कोई भूल सकता है भला ? गब्बर के साथ असली शोले तो उन्हीं की संवाद अदायगी ने भड़काए थे पर्दे पर। 

 'लोहा गरम है! मार दो हथौड़ा ।

'ये हाथ नहीं फांसी का फंदा हैं'  ।

 'तुम गब्बर को नहीं मारोगे'

'तेरे लिए तो मेरी जूतियां ही काफी हैं कुत्ते'  ! 

            फिल्म के सेट पर नूतन का उनको थप्पड़ जड़ना। शराब पीकर सुचित्रा सेन के साथ बदतमीजी करना।  हेमा मालिनी का इनकार या फिर सुलक्षणा पंडित का उन पर आवश्यकता से अधिक अधिकार जताना  .. यह सब उनके निजी जीवन की बातें हैं। और बातों से कोई इतनी जल्दी दुनिया छोड़कर नहीं जाता। 

   असल में इस दुनिया में कलाकार इसलिए हैं कि यह दुनिया परिपूर्ण नहीं है । इसलिए ईश्वर को जब दुनिया में कुछ कमी लगी, तो 'खिलौना' बना कर 9 जुलाई 1938 में संजीव कुमार को भेज दिया। और जब अपनी दुनिया अपूर्ण लगी होगी , तो जल्दी वापस भी बुला लिया। 

  .. खैर! रहो कहीं भी हरिभाई !

    'मौसम' के बहाने याद आओगे हमेशा।