आत्मस्थ गुरुश्रेष्ठ


मोहन डॉ केशव दत्त रुवाली शिक्षक होने के साथ-साथ चिंतक भी थे। समाज से लेकर कुमाऊँ हिमालयी भाषा, साहित्य और संस्कृति तक पर उन्होंने अत्यंत गहन और सुसंबद्ध चिंतन किया है। कुमाऊँनी शब्द सम्पदा को 'कुमाऊँनी-हिंदी व्युत्पत्ति कोश' के रूप में निबंधन करने का महत कार्य कियागुरुश्रेष्ठ से जुड़ा अपने जीवन का एक संस्मरण आपके समक्ष उनकी उदारता के गुण को रेखांकित करने के लिए प्रस्तुत कर रही हूँ। 1971 में मैंने नैनीताल महाविद्यालय में बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। तब तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय कीर थापना नहीं हुई थी। राजकीय माध्यमिक बालिका विद्यालय से इण्टर की कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद हर विद्यार्थी के मन में अपार उत्साह और भय दोनों समाए रहते हैं, जीवन के लक्ष्य की तैयारी का उत्साह और नए परिवेश को न जानने का भय। अपना प्रिय विषय हिंदी भी लिया। डॉ रुवाली जी को शिक्षक के रूप में पहली बार कक्षा में देखा तो लगा हिंदी विषय छोड़ना पड़ेगा। डॉ रुवाली मध्यकालीन कविता पढ़ाते थे अर्थात कबीर, सूर, तुलसी, जायसी आदिहिंदी कविता को विशेष रूप से जायसी के पदमावत को रेखाचित्र बना कर पढ़ाते थे। कक्षा में डर ही लगता रहता थाअभी कुछ वर्ष पूर्व एक साधु ने मुझे समझाया की ऐसा ध्यान लगाओ की सारी चिन्ताऐं भुलाकर अपने को ही भुला दो, अपना नाम भी भूल जाओ। ऐसी ध्यास थ तो मैं कभी नहीं हो पाई पर उस दिन डॉ राकेश के समक्ष “क्या नाम है तुम्हारा?" की गर्जना सुनकर अपना नाम ही भूल गई। पता नहीं किस ने मेरा नाम बताया"इन कवियत्री को जानती हो?" "जी नहीं।" "फिर उनके बारे में सुन कर बुरा क्यों लगा?" "सर मैंने उनकी कविताएँ पढ़ी हैं, मुझे प्रिय हैं, लेखक का व्यक्तिगत जीवन पाठक के लिए महत्व नहीं रखता, वह सिर्फ रचना पढ़ता है। लेखक की छवि बिगाड़ने का काम कोई नहीं कर सकता, करना भी नहीं चाहिए।" मेरे अंदर कहाँ से इतना साहस आ गया। डॉ रुवाली को दिया उत्तर मैंने सटाक से यहाँ भी दे दिया बिना डर के। डॉ राकेश ने एक लम्बी हूँ..... ली और कहा “बेटी कह तो ठीक रही हो"। “जाओ बेटा” कह कर भेज दिया, न जाने कब प्रश्न पूछ लें, सही उत्तर न देने पर कितनी डांट पड़ती है, क्या-क्या सुनना पड़ता है यह मैं कई बार देख चुकी थी। कक्षा में प्रथम पंक्ति में बैठने वाली मैं धीरे-धीरे पीछे से पीछे खिसक कर आखिरी पंक्ति में बैठने लगी। आखिरी पंक्ति में बैठ कर न तो स्पष्ट सुनाई देता था, न गुरूजी ही दिखाई देते थे। पीछे बैठ कर बीच-बीच में मैं उपन्यास और कहानी पढ़ती रहती। साथ के सहेलियों का भी यही हाल था।एक सहेली पर्ची में कुछ लिखती, बिनाका गीतमाला का कोई गीत ही, दूसरी को पकड़ाती, दूसरी तीसरी को। पंद्रह बीस हाथों में कागज़ का वो टुकड़ा एक कहानी बन चुका होता उस समय की ऐसी पर्चीयों को मैंने लम्बे समय तक संजो कर रखा था, पर समय को कौन संजो पाया हैअपना जीवन ही संजो पाना कठिन होता है। पर्चीयां पता नहीं कब खोई, ठीक उन सहेलियों की तरह जिनकी शैतानियां तो याद हैं पर नाम और सूरत याद ही नहीं। ऐसे ही किसी दिन कक्षा में पीछे की सीट पर बैठने की जगह नहीं मिली तो आगे की सीट पर ही बैठना पड़ा। गुरुजी जायसी का रहस्यवाद पढ़ा रहे थे, रहस्यवाद पढ़ाते-पढ़ाते हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित कवियत्री के विषय में एक असंगत टिप्पणी उन्होंने कर दी, मैंने सुना और ऐसा लगा जैसे मैं गलत सुन रही हूँ, पर फिर गुरुजी ने अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए वही वाक्य दोहरा दिया, मैं अनायास ही खड़ी हो गयी और ऊँचे स्वर में प्रतिवाद करने लगी, "सर आप यह गलत कह रहे हैं"सर ने कभी सोचा भी नहीं था कि कोई पिद्दी सी लड़की उनकी बात को इस तरह खचाखच भरी कक्षा में नकार दे। क्रोध में ज़ोर से बोले, “क्या जानती हो अपनी कवियत्री जी के बारे में?", मैंने कहा “कुछ नहीं पर उनकी कविताओं कि पढ़ती हूँ, अच्छी लगती हैं, व्यक्तिगत जीवन की जानकारी पाठक को नहीं चाहिए होती, आप मेरे मन में बैठी उनकी छवि को दूषित नहीं कर सकते"। बस फिर क्या था वे कक्षा आधी पढ़ा कर ही छोड़ कर हिंदी विभाग में चले गएमैं डर रही थी की क्या पता कॉलेज से ही निकाल दिया जाए, मैंने एक शिक्षक से प्रतिवाद किया था। दो वादन डरते-डरते कट गए, तीसरा वादन भूगोल का था। डॉ जैदी सर एशिया का भूगोल पढ़ाते थे उसी कक्षा में हिंदी विभाग का चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी मुझे बुलाने आ गया, मेरी हालत खराब। हिंदी विभागाध्यक्ष के कक्ष में प्रातः स्मरणीय पूज्य डॉ छैल बिहारी गुप्त राकेश, श्रद्धेय डॉ बटरोही जी, डॉ ऋषि कुमार चतुर्वेदी जी और भी कुछ अन्य शिक्षक बैठे थे। मैं इन ही दो शिक्षकों को जानती थी, डॉ बटरोही कहानी साहित्य पढ़ाते थे , डॉ चतुर्वेदी काव्य साहित्य संभवतःडॉ राकेश ने मेरी ओर देख कर पूछा “क्या नाम है तुम्हारा?", “पहली बार मैं अपना नाम ही भूल गयीअभी कुछ वर्ष पूर्व एक साधु ने मुझे समझाया की ऐसा ध्यान लगाओ की सारी चिन्ताऐं भुलाकर अपने को ही भुला दो, अपना नाम भी भूल जाओ। ऐसी ध्यास थ तो मैं कभी नहीं हो पाई पर उस दिन डॉ राकेश के समक्ष “क्या नाम है तुम्हारा?" की गर्जना सुनकर अपना नाम ही भूल गई। पता नहीं किस ने मेरा नाम बताया"इन कवियत्री को जानती हो?" "जी नहीं।" "फिर उनके बारे में सुन कर बुरा क्यों लगा?" "सर मैंने उनकी कविताएँ पढ़ी हैं, मुझे प्रिय हैं, लेखक का व्यक्तिगत जीवन पाठक के लिए महत्व नहीं रखता, वह सिर्फ रचना पढ़ता है। लेखक की छवि बिगाड़ने का काम कोई नहीं कर सकता, करना भी नहीं चाहिए।" मेरे अंदर कहाँ से इतना साहस आ गया। डॉ रुवाली को दिया उत्तर मैंने सटाक से यहाँ भी दे दिया बिना डर के। डॉ राकेश ने एक लम्बी हूँ..... ली और कहा “बेटी कह तो ठीक रही हो"। “जाओ बेटा” कह कर भेज दियाअब क्या था डॉरुवाली हर प्रश्न मुझसे पूछते, मैं भी तैयारी से जाती और उत्तर दे देती। गुरुजी का फिर रानीखेत, महाविद्यालय में थानांतरण हो गया। कुमाऊँ विश्वविद्यालय की थापना हुई, मैंने हिंदी विषय में एम.ए. किया, परीक्षाफल आया और शायद कुछ दिन के बाद ही डॉ शेर सिंह बिष्ट की सहायता से शोध विषय की प्रारम्भिक रूपरेखा बनाकर डॉ राकेश के घर चली गई। उनके पास शोधार्थी पूरे थे उन्होंने मुझे डॉ रुवाली के पास भेजामैंने शोधकार्य करने के लिए पूरा फॉर्म भरा, रूपरेखा की प्रतियां भी बना ली। रानीखेत कॉलेज में हिंदी विभाग में उनके कक्ष के बाहर खड़े होकर पूछा, “सर अंदर आ सकती हूँ?" । “हाँ”, उन्होंने मेरी ओर नहीं देखा, सोचा होगा कोई छात्रा होगी। मैंने फॉर्म में जहाँ लिखा होता है 'निदेशक के हस्ताक्षर' वहाँ उंगलि रखकर कहा, यहाँ आपके हस्ताक्षर चाहिए। उन्होंने मेरी ओर देखा और हस्ताक्षर कर दिएइतना महान चरित्र, इतनी सरलता, इतना आत्म थ व्यक्तित्व! मैं सोच रही थी, मेरा फॉर्म फाड़ देंगे, डांटेंगे अवश्य, कैसे आने की हिम्मत हुई! पर उस आत्म्म थ गुरु ने क्षमा करते हुए मेरे शोध निदेशन का पथ सुशोभित किया। आवश्यक सुझाव भी दिए और हर संभव सहायता भी की। कुछ ही समय पश्चात मैं भी शिक्षक बन गई। मैंने पाया मैं बिल्कुल डॉ रुवाली की तरह पढ़ा रही हूँ, वैसे ही समझा रही हूँ। कोई कहता आप बहुत अच्छा पढ़ाती हैं, मैं कहती अपने गुरुजी की ही नक़ल करती हूँ। सच! सदा नक़ल ही की अपना तो कुछ था ही नहींसब गुरु का दिया, उन्हीं का उन्हीं को अर्पणउनके पास अल्मोड़ा जाना कई बार हुआ, लगता रहा वे अकेले हो रहे हैं। विश्वविद्यालय की अपनी राजनीति होती है पर वे निरंतर रचनाशील रहे, जब भी उनके पास गई उनको पुस्तकों के ढेर के बीच में बैठा पाया। उनकी पत्नी कमला मेरी सहपाठिनी है। "सविता तुझे क्या बताऊ? पढ़ने के अलावा इन्हें कुछ आता ही नहीं!" अल्मोड़ा की ठंडी रातों में कमला बैठी रहती। कभी चाय बनाती तो कभी खाना गरम करती। अपने में ही आत्म्म थ रहने का उनका गुण समय से इतर उन्हें भीड़ से पृथक तो करता है परन्तु वर्तमान समय में जिस बाहरी आडम्बर, दिखावे की मांग है उससे अलग भी करता है। स्वच्छ छवि के धनी, गुरुदेव कभी किसी विवाद के मध्य में नहीं थे इसीलिए में उन्हें आत्म थ कहती हूँ। उनमें इतनी सच्चाई थी की वे एक सीमा के बाद समझौता नहीं कर सकते थे और फिर अपने को ही परेशान कर लेतेउत्तराखंड भाषा संसथान में मैंने कुछ वर्षों तक सचिव पद पर कार्य किया। सौभाग्य का विषय है कि उसी समय डॉ देव सिंह पोखरिया, डॉशेर सिंह बिष्ट जी को सम्मान प्राप्त हुआ। 19 दिसंबर, 2011 को आयोजित कार्यक्रम में उत्तराखंड भाषा सम्मान वर्ष 2011-12 का सर्वोच्च गुमानी पंत सम्मान प्रोफेसर केशव दत्त रुवाली जी को प्राप्त हुआ। किसी ने मुझसे कहा कि गुरु ऋण से मुक्त हो रही हो सविता, मैंने कहा नहीं जीवन गुरु के पास ही गिरवी रखा है। उनके जैसे गुरु की उदारता, वाणी की ओजस्विता का एक छींटा भी यदि जीवन पर पड़ जाए तो पवित्र ही हो जाऊँ। आज गुरुश्रेष्ठ के विषय में लिखते हुए जीवन के समस्त पृष्ट पढ़ लिए, लग रहा है की गुरु के बिना तो ये कोरे के कोरे ही रहते। गुरुदेव आपको नमन! बारम्बार नमन! मैंने ईश्वर नहीं देखा, मात्र आपको देखा है।