मुक्ति (कहानी )

 

 

नन्हीं के गांव में एक घर के आगे बड़ा-सा खलिहान था । शाम के समय उसके सारे संगी-साथी वहां जमा होकर छुपन-छुपाई या फिर आंख-मिचौली जैसे खेल खेला करते थे। खलिहान वाले घर की लड़की भी उन बच्चों में शामिल थी। नाम था गंगा। गंगा उम्र में सब बच्चों से बड़ी थी। रिश्ते में किसी की वह बुआ लगती तो किसी की दीदी। लेकिन खेल में सारे बच्चे उसे गंगा कहकर ही बुलाते थे। 

 

गंगा के घर में बहुत सारे लोग थे जिनकी गिनती दिमाग में बिठाना नन्हीं को मुश्किल लगता था। उनमें बस एक ही ऐसी थी जो उसके दिल में हर वक्त बैठी रहती - गंगा की अंधी बुआ। ज्यादा वृद्ध तो न थीं, लेकिन आंगन के एक कोने में हमेशा लाचार सी बैठी रहने के कारण वृद्धा ही नजर आती। उस घर से लगे रास्ते से गुजरने वाला लगभग हर व्यक्ति उन्हें आवाज देता हुआ जाता था। उनकी आवाज ज्यादातर औपचारिक ही हुआ करती थी,  लेकिन गंगा की बुआ आत्मीयता से प्रत्येक को जवाब देती। हालांकि उनका  दिन गुजरने वालों की आहट सुनते और हालचाल बताने में बीतता, मगर किसी से भी इत्मीनान से बात करने को वह तरस कर रह जातीं ।

 

गंगा के परिवार का कोई और सदस्य उसे आवाज देता तो गंगा एक ही आवाज में भाग पड़ती चाहे उस वक्त वह खेल में जीत ही क्यों न रही हो । बुआ की आवाज को वह प्रायः सुनकर भी अनसुनी कर देती। एक शाम बुआ आंगन में बैठे-बैठे गंगा की रट लगाए थी, मगर गंगा को खेल छोड़कर जाना गवारा न हुआ। उसकी जगह नन्ही उनके पास जाकर खड़ी हो गई। बुआ ने चौकन्नी हो कर इस नई आहट की तरफ गर्दन घुमा दी। बोली  '-कौन ?'

'नन्ही' अपना नाम बता कर चुप खड़ी रही।

बुआ ने उसके सिर पर बड़े प्यार से हाथ फेर दिया।

    

उस दिन से नन्ही रोज शाम कुछ देर के लिए आंगन में बैठी बुआ के आगे जाकर खड़ी हो जाती थी। ज्योतिहीन आंखों में रात-दिन का कोई फर्क तो नहीं होता, लेकिन नन्हीं के आने से शाम का पता उन्हें जरूर चल जाता। बोलते-बतियाते बुआ जान गई कि उनकी यह छोटी हमदर्द रामेश्वरी चाची की पोती और सोहन भाई की छोटी बेटी है जिसका घर गांव में सबसे ऊपर था। नन्ही का हाथ पकड़कर जब वह पूछती कि सूरज डूब रहा है क्या, तो नन्ही के यह पूछने के पहले कि आपको पता कैसे चला, बुआ खुद ही बता देती थी - 'अरे, मैं हमेशा से ही थोड़ी ना अंधी थी। बुआ से पता चला कि कई बरस पहले जंगल में लकड़ी काटते समय एक ऊंचे पेड़ से गिरने के कारण उनके सिर पर लगी गहरी चोट ने उनकी आंखों की रोशनी छीन ली थी। 

 

नन्ही अब बुआ की खाली और उदास दिनचर्या का ज़रूरी हिस्सा बन गई। हर शाम नन्ही से बात करते कभी-कभी वह अपने चेहरे पर हाथ फिराकर अपनी उम्र का अंदाजा लगाना नहीं भूलती। एक जमाने से उन्हें अपने इंसान होने का बोध भी शायद जाता रहा था। घर के आंगन के कोने में मीठी नीम के छोटे-घने पेड़ के नीचे बिछी मैली, गंधाती, पुरानी दरी  उनका स्थायी ठिकाना बन चुकी थी। हाथ पकड़कर उन्हें वहां तक पहुंचाने में घर के लोगों को उनके कारण होने वाले कष्ट का अहसास था। आंखें फूटीं तो कान जैसे और ज्यादा तेज हो गए उनके। बात-बात पर उनको कोसती घर के लोगों की फुसफुसाहट नश्तर की तरह उनके दिल में उतरती थी। उनकी काली आंखों में अब एक ही सपना बाकी रह गया था। जल्दी इस दुनिया से कूच कर जाने का सपना। 

       

नन्हीं के आने के बाद बुआ को खुद अपनी जिंदगी में बदलाव महसूस होने लगा था। उनकी सोयी हुई कोमल भावनाएं करवट लेने लगी थीं। कभी उनके माथे पर उठा गूमड़ सहलाती नन्ही में उन्हें अपनी दिवंगत मां नजर आती थी। कभी जंगल में शेर, भालू से उनकी मुलाकात के किस्सों पर नन्ही उनसे लिपट जाती तो अविवाहिता बुजुर्ग बुआ को अपनी गोद भर जाने का एहसास अंतस तक भिंगो देता था। अपने घर से खाने-पीने की कुछ चीजें लाकर बुआ के मुंह में जबरदस्ती डालती नन्ही और अपनी रूखी-सूखी दो रोटियों में से एक रोटी नन्हीं के लिए बचा कर रखने वाली बुआ हमउम्र सहेलियों सी जान पड़तीं। इस तरह नन्हीं और बुआ के बीच एक अनोखा रिश्ता आकार लेने लगा। 

 

कुछ महीनों बाद नन्हीं के दादा का पहला श्राद्ध पड़ा था। निस्संदेह गांव के अनेक लोग न्यौते गए होंगे, मगर उनमें से भी जिस एक गंगा की बुआ को बुलाने की दादी की बड़ी इच्छा थी, उनको बुलाकर लाने के लिए नन्ही का कोई भाई-बहन तैयार नहीं हुआ।नन्हीं ने कहा - 'मैं जाऊंगी दादी । मैं लेकर आऊंगी उन्हें।' 

 

नन्ही छोटी थी। गांव में सबसे ऊपर स्थित उनके घर तक के पथरीले रास्ते पर नेत्रहीन वृद्धा को नन्ही ला पाएगी, इसमें दादी को शक था। फिर भी नन्ही भाग कर गई। जमाने बाद पहली बार अपने आसन से हिलने का मौका मिला था बुआ को। घरवालों को बताए बिना ही वह जिस हाल में थी उसी हाल में नन्ही के साथ चल दी। बताने का कोई अर्थ भी तो नहीं था। नन्ही की छोटी हथेली पकड़कर वह उबड़-खाबड़ रास्ते पर धीरे-धीरे डग भरने लगीं। नन्ही तो रोज ही उस रास्ते से गुजरती थी। बुआ भी कभी-ना-कभी उससे गुजरी ही होंगी। लेकिन यह दौर और था। अपनी थकी देह से नन्ही की कोमल हथेली के सहारे  नन्ही के घर तक पहुंचने में उन्हें लंबा वक्त लगा।

 

कई प्रकार की मौसमी सब्जियां, पहाड़ी ककड़ी का रायता, खीर, पूरी,दाल और मीठे चावल का स्वादिष्ट भोजन और अंत में ब्रह्म भोज की दक्षिणा। नन्ही  की दादी ने गंगा की बुआ के स्नेह-सम्मान में कोई कमी ना रखी। कुछ घंटे वहीं विश्राम और शाम की चाय के बाद बुआ को उनके घर पहुंचाने पर विचार हुआ। नन्हीं के सारे भाई-बहन एक बार फिर दाएं-बाएं खिसक गए। नन्ही ने फिर खुशी-खुशी उनका हाथ थामा। दोबारा उस रास्ते पर लौकी, तुरई, ककड़ी, कद्दू के सफेद, पीले, नारंगी फूलों को देखते-गिनते बीते उस छोटे-से सफर ने गंगा की बुआ के खुरदरे हाथों पर सदा के लिए नन्ही की मुलायम हथेलियों का स्पर्श टांक दिया। 

 

उसके बाद नन्हीं के पिता का स्थानांतरण गांव से दूर किसी शहर में हो गया था। नये स्कूल में दाखिले के साथ नन्ही का पुराना नाम भी जैसे गांव में ही छूट गया । अब वह नमिता थी। गांव में फिर कभी दोबारा जाना नहीं हुआ। पढ़ाई पूरी करने के बाद नन्हीं की शादी भी हुई। उसकी शादी में आए गांव के सब परिचित भी उसे नमिता नाम से ही पुकार रहे थे। उसे बेसाख़्ता याद आई 'गंगा की बुआ' । शादी में वह  शामिल होतीं तो उसे  नन्ही कहने वाला मिल जाता। 

 

विवाह के लगभग दो साल बाद नमिता को गांव से चचेरी बहन की शादी का निमंत्रण आया। कुछ ही दिन बाद खुद नमिता के घर में भी नन्हा मेहमान आने वाला था। डॉक्टर ने इतना लंबा सफर करने के लिए साफ मना कर दिया। नमिता के पति को अकेले  ससुराल जाने में संकोच था, इसलिए उन्होंने भी इंकार कर दिया। आखिरकार नमिता ने अपने साथ चलने की बात कहकर उन्हें मना लिया।

 

नदी पार करने के बाद पहला घर उसकी सहेली नीमा का पड़ता था। वह न मिली। उसकी भी तो शादी हो गई होगी। फिर गंगा का घर था। वही गंगा जिसकी बुआ को देखने के लिए के डॉक्टर के मना करने के बावजूद वह अपने पति को लेकर आई थी। पति को उनके बारे में बताते हुए नमिता ने कहा - 'आप उनसे जरूर मिलना और अपनी तरफ से उनके हाथ में कुछ रुपए-पैसे भी रख देना।'

विवाह समारोह के बाद वापसी में वे गंगा की बुआ से मिलने गए। मिलकर उन्हें नन्हीं की याद दिलाई। कुछ पैसे भी उनके हाथ में रख दिये।  बुआ मना करती ही रह गई - 'मैं अंधी बुढ़िया कहीं आ-जा नहीं सकती। मैं क्या करूंगी इन पैसों का?' फिर बुआ का मन हुआ कि उन पैसों से बहुत सारी चीजें खरीदवा कर वे नन्हीं के लिए भिजवा दें। बरसों पहले उनके जीवन से चली गई नन्हीं को अपने सामने पाकर भी उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था शायद। बार-बार एक ही बात पूछती थी - 'नन्ही कैसी है ? मुझे याद करती है कि नहीं?' उसके पति द्वारा नन्ही के नमिता हो जाने की बात बताने पर भी बुआ को यकीन नहीं आया कि उनकी छोटी नन्ही कभी नमिता भी बन सकती है। उम्र का असर था शायद। उन्होंने बहुत सारी दुआएं भेजीं नन्ही के लिए। नमिता को खुशी थी कि बुआ अभी जीवित हैं और उसे बहुत याद करती हैं।  

कुछ बरस बाद नमिता को सुनने को मिला कि छोटे-से घर में नारायण बलि न करवानी पड़ जाए, इस भय से बुआ के आखिरी समय में घर वालों ने उन्हें आंगन से हटाकर गांव के एक खंडहर में अकेली छोड़ दिया था। हड्डियों के दर्द से रोती-कलपती वे अपने सिर के बाल नोच-नोच कर मरीं। 

हर बरस आश्विन माह में पड़ने वाले श्राद्ध पक्ष के लौकी, तुरई, कद्दू के रंग बिरंगी फूलों वाले मौसम में नमिता को गंगा की बुआ की याद आती है जब पत्तलों में खीर, पूरी, सब्जी, रायता,कचौड़ी और मीठे चावलों का भोग पितरों के लिए रखा जाता है। 

 तब वह बेमौसम याद आई जब नमिता हॉस्पिटल में भर्ती थी। उसके गर्भाशय के ट्यूमर का ऑपरेशन होने वाला था। बेहोशी में कुछ पता नहीं चला, मगर होश में आते ही नमिता को आपरेशन और  इंजेक्शन के दर्द महसूस हुए। शल्य चिकित्सा के बाद शरीर की हालत नवजात शिशु सी हो जाती है जिसे छोटी-छोटी सी बात के लिए भी दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है। सब कुछ कितना कष्टप्रद !

तीन दिन बाद आज नमिता पहली बार खड़ी होने की कोशिश कर रही थी तो लुढ़क गई। फिर जैसे किन्हीं हाथों ने उसे संभाल कर खड़ी कर दिया। गंगा की बुआ के खुरदरे हाथों का स्पर्श अपनी देह पर उसने बहुत साफ-साफ महसूस किया। समझ गई वह कि इस दुनिया से जाने के बाद उन्हें दिखाई भी देने लगा है और वे अपनों को पहचानने भी लगी हैं शायद।