प्रकाश-स्तम्भ की भांति हैं शिक्षक (शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) पर विशेष)

 



भारतीय संस्कृति का एक सूत्र वाक्य है-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।‘ अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने की इस प्रक्रिया में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। भारतीय परम्परा में शिक्षा को शरीर, मन और आत्मा के विकास द्वारा मुक्ति का साधन माना गया है। शिक्षा मानव को उस सोपान पर ले जाती है जहाँ वह अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। भारतीय संस्कृति में गुरु का आंरभ से ही उच्च स्थान रहा है। प्राचीन काल से ही आचार्य देवो भवः का बोध-वाक्य प्रचलित  है।भारत में गुरु-शिष्य की लम्बी परंपरा रहीे है। बहुत सारे कवियों, गद्यकारों ने कितने ही पन्ने गुरु की महिमा में रंग डाले हैं।


गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय


बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।


कबीरदास द्वारा लिखी गई उक्त पंक्तियाँ जीवन में गुरु के महत्त्व को वर्णित करने के लिए काफी हैं। गुरुओं की महिमा का वृत्तांत तमाम ग्रंथों में भी मिलता है। जीवन में माता-पिता का स्थान कभी कोई नहीं ले सकता, क्योंकि वे ही हमें इस खूबसूरत दुनिया में लाते हैं। उनका ऋण हम किसी भी रूप में उतार नहीं सकते, लेकिन जिस समाज में रहना है, उसके योग्य हमें शिक्षक ही बनाते हैं। यद्यपि परिवार को बच्चे के प्रारंभिक विद्यालय का दर्जा दिया जाता है, लेकिन जीने का असली सलीका उसे शिक्षक ही सिखाता है। समाज के शिल्पकार कहे जाने वाले शिक्षकों का महत्त्व यहीं समाप्त नहीं होता, क्योंकि वह न सिर्फ विद्यार्थी को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि उसके सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों द्वारा रखी जाती है।


 


        गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम और पवित्र हिस्सा है, जिसके कई स्वर्णिम उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। कई ऋषि-मुनियों ने अपने गुरुओं से तपस्या की शिक्षा को पाकर जीवन को सार्थक बनाया। प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरु की सेवा भी करते थे। राम-विश्वामित्र, कृष्ण-संदीपनी, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरुदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे  उसके हाथ का अंगूठा ही माँग लिया था। श्री राम और लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र, तो श्री कृष्ण ने गुरु संदीपनी के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की और उसी की बदौलत समाज को आतातायियों से मुक्त भी किया। गुरुवर द्रोणाचार्य ने पांडव-पुत्रों विशेषकर अर्जुन को जो शिक्षा दी, उसी की बदौलत महाभारत में पांडव विजयी हुए। द्रोणाचार्य स्वयं कौरवों की तरफ से लड़े पर कौरवों को विजय नहीं दिला सके क्योंकि उन्होंने जो शिक्षा पांडवों को दी थी, वह उन पर भारी साबित हुई। गुरु के आश्रम से आरम्भ हुई कृष्ण-सुदामा की मित्रता उन मूल्यों की ही देन थी, जिसने उन्हें अमीरी-गरीबी की खाई मिटाकर एक ऐसे धरातल पर खड़ा किया जिसकी नजीर आज भी दी जाती है। विश्व-विजेता सिकंदर के गुरु अरस्तू को भला कौन भुला सकता है। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने तो अपने पुत्र की शिक्षिका को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि उसकी शिक्षा में उनका पद आड़े नहीं आना चाहिए। उन्होंने शिक्षिका से अपने पुत्र को सभी शिक्षाएं देने का अनुरोध किया जो उसे एक अच्छा व्यक्ति बनाने में सहायता करती हों।


वस्तुतः शिक्षक उस प्रकाश-स्तम्भ की भांति है, जो न सिर्फ लोगों को शिक्षा देता है बल्कि समाज में चरित्र और मूल्यों की भी स्थापना करता है। शिक्षा का रूप चाहे जो भी हो पर उसके सम्यक अनुपालन के लिए शिक्षक का होना निहायत जरूरी है। शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं बल्कि चरित्र विकास, अनुशासन, संयम और तमाम सद्गुणों के साथ अपने को अप-टू-डेट रखने का माध्यम भी है। शिक्षा मानव जीवन को परिष्कृत करने का सशक्त माध्यम है। कहते हैं बच्चे की प्रथम शिक्षक माँ होती है, पर औपचारिक शिक्षा उसे शिक्षक के माध्यम से ही मिलती है। प्रदत शिक्षा का स्तर ही व्यक्ति को समाज में तदनुरूप स्थान और सम्मान दिलाता है। शिक्षा सिर्फ अक्षर-ज्ञान या डिग्रियों का पर्याय नहीं हो सकती बल्कि एक अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों का दिलो-दिमाग भी चुस्त-दुरुस्त बनाकर उसे वृहद आयाम देता है। शिक्षक का उद्देश्य पूरे समाज को शिक्षित करना है। शिक्षा एकांगी नहीं होती बल्कि व्यापक आयामों को समेटे होती है।


आजादी के बाद इस गुरु-शिष्य की दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डाॅ0 राधाकृष्णन ने कहा कि- ”मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूँगा।” तब से लेकर हर 5 सितम्बर को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाया जाता है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने शिक्षकीय आदर्श को न सिर्फ भारत में अपितु वैश्विक स्तर पर स्थापित किया। उन्होंने न सिर्फ शिक्षकीय पद की गरिमा बढ़ायी, बल्कि उपराष्ट्रपति एवं राष्ट्रपति के रूप में भी भारत को अपना नेतृत्व प्रदान किया। अपने ज्ञान को दूसरों में बाँटने की अद्भुत प्रतिभा उनमें निहित थी तथा इसी उत्कृष्ट कला के कारण वे एक आदर्श शिक्षक के रूप में विख्यात हुए। डॉ. राधाकृष्णन एक महान शिक्षाविद थे। वे वर्ष 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शन शास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। उन्होंने शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् विश्व के महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थानों में व्याख्यान दिया। वे दर्शनशास्त्र के प्रख्यात विद्वान थे। उन्होंने अपने लेखों और भाषणों के द्वारा विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। पश्चिम देशों में एक आदर्श दार्शनिक के रूप में उन्हें ख्याति प्राप्त थी। वे 1931 से 1936 तक वाल्टेयर विश्वविद्यालय आंध्रप्रदेश के वाइस चांसलर रहे। 1936 से 1952 तक वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय अंतर्गत आने वाले जार्ज पंचम कॉलेज में भी सेवाएं दीं। डॉ. राधाकृष्णन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे। वर्ष 1940 में वे प्रथम भारतीय के रूप में ब्रिटिश अकादमी में चुने गए तथा 1948 में उन्होंने यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। उन्हें भारत में संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। अपनी बहुमुखी प्रतिभा के कारण गैर राजनीतिज्ञ होते हुए देश की स्वतंत्रता के पश्चात् 1952 में वे भारत के पहले उपराष्ट्रपति बनाए गए। 1957 में वे दूसरी बार उप राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने अपने जीवनकाल में 150 से अधिक रचनाएं की। वे देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित हुए।  निश्चिततः डॉ. राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी, सादगीपूर्ण जीवन शैली निर्वहनकर्ता तथा देश की संस्कृति का सम्मान करने वाले व्यक्ति थे। एक उत्कृष्ट शिक्षक, दार्शनिक, देशभक्त और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने राष्ट्र को अपनी महत्वपूर्ण सेवाएं दीं। वे उच्च पदों पर रहते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहे। डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने का हकदार वही है, जो लोगों से अधिक बुद्धिमान व विनम्र हो। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता हैै। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। वे शिक्षा को सामाजिक बुराइयों के अंत करने का एक महत्वपूर्ण जरिया मानते थे। डॉ. राधाकृष्णन का मानना था कि व्यक्ति निर्माण एवं चरित्र निर्माण में शिक्षा का विशेष योगदान है। वैश्विक शान्ति, वैश्विक समृद्धि एवं वैश्विक सौहार्द में शिक्षा का महत्व अतिविशेष है। उनका मानना था कि शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे। उनके यह शब्द समाज में शिक्षकों की सही भूमिका को दिखाते हैं- ’’शिक्षक का काम सिर्फ किताबी ज्ञान देना ही नहीं बल्कि सामाजिक परिस्थितियों से छात्र को परिचित कराना भी होता है।’’ शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डाॅ0 राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केंद्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते थे। यह उनका बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।


वास्तव में देखा जाये तो शिक्षक उस माली के समान है, जो एक बगीचे को भिन्न-भिन्न रूप-रंग के फूलों से सजाता है। जो छात्रों को काँंटों पर भी मुस्कुराकर चलने को प्रोत्साहित करता है। उन्हें जीने की वजह समझाता है। शिक्षक के लिए सभी छात्र समान होते हैं और वह सभी का कल्याण चाहता है। शिक्षक ही वह धुरी होता है, जो विद्यार्थी को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए बच्चों की अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। बच्चे तो कच्चे घड़े की भांति होते हंै, ऐसे में उन्हें जिस रूप में ढालो, वे ढल जाते हैं। वे स्कूल में जो सीखते हैं या जैसा उन्हें सिखाया जाता है, वे परिवार और समाज में वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है, जैसा वह अपने आस-पास होता देखते हैं। ऐसे में शिक्षक प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उनकी नींव को मजबूत करता है तथा उसके सर्वांगीण विकास के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करता है। किताबी ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक आदर्श शिक्षक ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है। तभी तो कहा गया है कि-


गुरुब्रह्म गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।


गुरूः साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे 


आकांक्षा यादव: कॉलेज में प्रवक्ता। साहित्य, लेखन और ब्लाॅगिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। नारी विमर्श, बाल विमर्श और सामाजिक मुद्दों से सम्बंधित विषयों पर प्रमुखता से लेखन। लेखन-विधा- कविता, लेख, लघुकथा एवं बाल कविताएँं। अब तक 3 पुस्तकें प्रकाशित- “आधी आबादी के सरोकार“ (2017)े, “चाँद पर पानी“ (बाल-गीत संग्रह-2012) एवं “क्रांति-यज्ञ रू 1857-1947 की गाथा“ (संपादित, 2007)। देश-विदेश की प्रायः अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन। व्यक्तिगत रूप से ‘शब्द-शिखर’ और युगल रूप में ‘बाल-दुनिया’, ‘सप्तरंगी प्रेम’ व ‘उत्सव के रंग’ ब्लॉग का संचालन। 60 से अधिक प्रतिष्ठित पुस्तकोंध्संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी से समय-समय पर रचनाएँ, वार्ता इत्यादि का प्रसारण। व्यक्तित्व-कृतित्व पर डाॅ. राष्ट्रबंधु द्वारा सम्पादित ‘बाल साहित्य समीक्षा’ (नवम्बर 2009, कानपुर) का विशेषांक जारी। उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा ’’अवध सम्मान’’, परिकल्पना समूह द्वारा ’’दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लाॅगर दम्पति’’ सम्मान, अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लाॅगर सम्मेलन (काठमांडू) में ’’परिकल्पना ब्लाग विभूषण’’ सम्मान, अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन, श्री लंका में ’’परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान’’, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा डाॅक्टरेट (विद्यावाचस्पति) की मानद उपाधि, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ’’डाॅ. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान’’, ‘‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘‘ व ’’भगवान बुद्ध राष्ट्रीय फेलोशिप अवार्ड’’, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’’भारती ज्योति’’, साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा ”हिंदी भाषा भूषण”, ‘‘एस.एम.एस.‘‘ कविता पर प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा पुरस्कार, निराला स्मृति संस्थान, रायबरेली द्वारा ‘‘मनोहरा देवी सम्मान‘‘, मौन तीर्थ सेवा फाउंडेशन, उज्जैन द्वारा “मानसश्री सम्मान“, साहित्य भूषण सम्मान, भाषा भारती रत्न, राष्ट्रीय भाषा रत्न सम्मान, साहित्य गौरव सहित विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु 50 से ज्यादा सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त। जर्मनी के बॉन शहर में ग्लोबल मीडिया फोरम (2015) के दौरान ’पीपुल्स चॉइस अवॉर्ड’ श्रेणी में  आकांक्षा यादव के ब्लॉग ’शब्द-शिखर’  को हिंदी के सबसे लोकप्रिय ब्लॉग के रूप में भी सम्मानित किया जा चुका है।


 


संपर्क: आकांक्षा यादव, टाइप 5 ऑफिसर्स क्वार्टर नंबर-15, संचार कॉलोनी, अलीगंज, लखनऊ-226024


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