देश में बढ़ता लव जिहाद





(देश में बढते लव-जिहाद के खिलाफ अगर कानून बनने से तमाम मासूम बहन-बेटियों की जिंदगी बर्बाद होने से बचती हो तो ऐसे कानून का दलगत राजनीति से हटकर तहे दिल से स्वागत किया जाना चाहिए।जो भी राज्य सरकारें लव जिहाद पर कानून बनाने की बात कर रही हैं उस पर बेवजह हाय-तौबा नहीं मचाना चाहिए।...)

 

देश के अलग-अलग शहरों में लव जिहाद के बढ़ते मामले समाज के लिए चिंताजनक बने हुए हैं। समाज का एक समुदाय लव जिहाद को साजिश के तहत अंजाम रहा है तो दूसरा तबका इसे मामूली घटना बताकर अकारण तूल न देने की वकालत कर रहा है। समाज में एक ऐसा तीसरा तबका भी है,जो यों तो ऐसे मामलों में तटस्थ दिखता है, परन्तु जैसे ही कोई सरकार लव जिहाद पर कानून लाने की बात करती है, जैसे ही कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन ऐसी बेमेल शादियों के विरोध में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं,तो समाज का यह तीसरा तबका विरोध में सक्रिय हो उठता है।

 

कानून लाने की बात सुनते ही इस मूक दर्शक तीसरे तबके को सेक्युलरिज्म की सुध,संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार याद आने लगते हैं,निजता के सम्मान-सरोकार की स्मृतियां जगने लगती हैं। जिन्हें लव जिहाद के तमाम मामलों को देखकर भी कोई साजिश नहीं नजर आती, कमाल यह कि उन्हें सरकार की मंशा में राजनीति नजर आने लगती है। सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों की प्रतिक्रिया में कट्टरता और संकीर्णता दिखने लगती है। कहने लगते हैं कि क्या अब सरकारें दिलों पर भी पहरे बैठाएगी? क्या दो वयस्क लोगों के निजी मामलों में सरकार का हस्तक्षेप उचित होगा? सवाल यह है कि यदि भाजपा शासित राज्यों की सरकारें अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए अगर कोई कानून लाना चाहती हैं तो उन पर हमलावर हो जाना या उसमें राजनीति ढूंढ़ लेना कितना उचित है? अब प्रश्न उठता है कि क्या चुनी हुई सरकारों को अपने राज्यों में कानून बनाने का अधिकार नहीं है?

 

समाज में लव जिहाद के अब तक उजागर हुए तमाम मामले क्या सत्याधारित नहीं हैं,या केवल कपोल कल्पना हैं? क्या ऐसे मामले समाज में विवाद और विभाजन के कारक तो नहीं बनते रहे हैं? क्या विवाद और विभाजन के कारणों को दूर कर उनके समाधान के लिए पहल करना अनुचित है? क्या यह सत्य नहीं कि अपरिपक्व बेटियों को बहला-फुसलाकर उनका दैहिक एवं मानसिक शोषण करने का कुचक्र रचा जाता है? क्या इसमें भी कोई दो राय होगी कि सीधी-सादी लड़कियों को फांसने के लिए पद,पैसा,प्रभाव का दुरुपयोग किया जाता है? क्या छद्म वेश में बदले हुए नाम,पहचान के साथ किसी को प्रेमजाल में फंसाना धूर्तता एवं अनैतिक चलन नहीं? क्या सत्य के उजागर होने पर ऐसे प्रेम में पड़ी हुई लड़कियां स्वयं को ठगी-छली महसूस नहीं करतीं?

 

 समाज में घटित ऐसी स्थितियों में उन्हें अपने सपनों का घरौंदा टूटा-बिखरा नहीं प्रतीत होता? क्या छल-छद्म की शिकार ऐसी विवाहित या अविवाहित लड़कियों को न्याय या सम्मानपूर्वक जीने का कोई अधिकार नहीं मिलना चाहिए? अत: वे प्रपंचों एवं वंचनाओं का शिकार ही न हों, ऐसे प्रयासों में क्या बुराई है या हो सकती है? प्रश्न यह भी उठता है कि बिना शास्त्र या सिद्धांतों-उपदेशों से प्रभावित हुए क्या विवाह मात्र के लिए किसी का धर्म बदलना या बदलवाना औचित्यपूर्ण है? धर्म बदलने के पीछे तो कोई-न-कोई महान उद्देश्य, दिव्य बोध या आत्मसाक्षात्कार जैसी प्रेरणा काम करती आई है? क्या अंतरधार्मिक विवाहों के अंतर्गत बदले जाने वाले धर्म में भी ऐसी ही प्रेरणा काम करती है? अभी कुछ दिनों पूर्व ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मात्र विवाह के लिए धर्म बदलने को अनुचित,अमान्य एवं अवैधानिक करार दिया है।

 

विवाह को एक प्रकार से नए जीवन का शुभारंभ माना जाता है। जिसका आरंभ ही तरह-तरह के झूठी पहचान और धर्म बदलवाने जैसे स्वार्थ पर केंद्रित हो उसे शुभ कैसे माना जा सकता है? सवाल यह भी है कि अंतरधार्मिक विवाहों में केवल स्त्रियां ही क्यों अपना धर्म बदलें, पुरुष भी तो बदल सकते हैं। पुरुषों का स्त्रियों के लिए धर्म बदलना कदाचित नारी सशक्तीकरण की दिशा में एक ठोस एवं सार्थक कदम भी सिद्ध हो! विवाह भारतीय समाज में कभी केवल निजी मसला नहीं रहा है,बल्कि यह दो आत्माओं के मिलन के साथ-साथ दो परिवारों का भी मिलन माना जाता रहा है। जिसमें निजी विचार-व्यवहार के साथ-साथ परिवारों की रीति-नीति, परंपरा-विश्वास आदि का भी विशेष ध्यान रखा जाता है।

 विवाह एक ऐसा पारिवारिक उत्सव  है।जिसकी प्रसन्नता दूल्हा-दुल्हन से अधिक परिजनों को होती है। क्या यह लोक-अनुभव से उपजा सामूहिक निष्कर्ष नहीं कि रिश्तों के निर्वहन में निजी सोच-स्वभाव रुचि-अरुचि के साथ-साथ कुल-परिवार की परंपरा,पृष्ठभूमि, परिस्थिति की भी अपनी भूमिका होती है? ऐसे में एक समाज की मान्यताओं और विश्वासों का भी हमें सम्मान करना होगा। तब तो और जब निकिता तोमर जैसे हत्याकांडों को सरेआम अंजाम दिया जाता हो।

 

माना कि विवाह दो वयस्कों की पारस्परिक सहमति का मसला है, परन्तु जिस सहमति में वास्तविक पहचान ही छुपाकर रखी जाती हो, वह भला कितनी टिकाऊ और आश्वस्तकारी हो सकती है?और जो लोग इसे मोहब्बत करने वाले दो दिलों का मसला मात्र बताते हैं,वे बड़ी चतुराई से यह सवाल गौण कर जाते हैं कि यह कैसी मोहब्बत है जो मजहब बदलने की शर्तो पर की जाती है?

निकाह के लिए मजहब बदलवाने की कहां आवश्यकता है? प्रेम यदि एक नैसíगक एवं पवित्र भाव है तो इसमें मजहब या मजहबी रिवाजों का क्या स्थान और कैसी भूमिका? आधुनिक न्याय-व्यवस्था इस बुनियाद पर टिकी है कि दोषी भले बरी हो जाए, पर निदरेषों को किसी कीमत पर सजा नहीं मिलनी चाहिए। इंसाफ के इसी फलसफे के अनुसार यदि लव-जिहाद के खिलाफ कानून बनने से एक भी मासूम बहन-बेटी की जिंदगी बर्बाद होने से बचती हो तो ऐसे कानून का तहे दिल से स्वागत किया जाना चाहिए। उस पर बेवजह हाय-तौबा नहीं मचानी चाहिए।