"परी रे! तू कहां की परी"


नवंबर की शुरुआत से ही बद्री-केदार की चोटियों समेत संपूर्ण उच्च हिमालयी क्षेत्र की जमीन पर बिछी हरीतिमा को भी बर्फ अपनी सफेद ठंडी चादर से ढक लेती है। वहां के बुग्यालों की घास चुगाने मैदानी भागों से जानवर लेकर जाने वाले गुज्जरों के लिए और तफ़रीह के लिए गए पर्यटकों के लिए यह प्रकृति का संकेत है कि इलाका खाली करो !  अपने पुनर्नवीकरण के लिए वह अब विश्राम चाहती है।
  इस तरह बर्फ हथियार है प्रकृति का। इसमें दबी वनस्पतियां के लिए खाद,पानी का काम यही करती है । मार्च-अप्रैल यानी चैत के महीने में बर्फ पिघलने के साथ ही यहां फूल खिलने लगते हैं ।  पिघलती बर्फ के बीच से जब घास सिर उठाने लगती है तो इतने दिनों में जाने कौन सी संजीवनी उसकी रगों में घुल जाती है कि  मुलायमियत में यह मखमल को भी मात देने लगती है। तब गुज्जरों की प्रसूताऐं अपने नये जन्मे बच्चे को भी उस हरी-भरी कोमल घास पर लिटाने में कोई संकोच नहीं दिखातीं।
हां, साल के छः महीने अपने जानवरों के झुंड संग यहां बिताने वाले यही लोग तो बताते हैं कि असल में बुग्याल  क्या हैं ? 
मीलों तक फैली मखमली घास, पानी और बर्फ की झीलें, पंछी और छोटे-छोटे फूलों संग शांति और नीरवता पसरी है जहां, वही बुग्याल हैं। उत्तराखंड को देव-भूमि माना जाता है। और इन बुग्यालों को देवताओं का बिछौना भी कह दिया जाए तो अतिशयोक्ति न होगी । शायद इसीलिए यहां सबसे ज्यादा बुग्याल हैं। बेदिनी,दयारा, रुद्रनाथ, चोपता, नंदनकानन, औली, फूलों की घाटी, बर्मी, खतलिंग, मद्महेश्वर, क्वारी पास, हर की दून, रूपकुंड, तपोवन, कल्पनाथ.. जैसे मीलों लंबे इन विश्व प्रसिद्ध बुग्यालों से भरा-पूरा है हमारा उत्तराखंड।
इनकी खूबसूरती किसको ना लुभाती हों ! खूब लुभाती है। मौसम अनुकूल होते ही पर्यटक तंबू लेकर यहां आ जाते हैं। भीड़ भले ही हो जाए फिर भी  शांति भंग ना होने का अनुशासन बनाए रखने के लिए स्थानीय पहाड़ी लोग ताकीद करते हैं कि इन बुग्यालों में चिमटा, मंजीरा जैसे किन्हीं वाद्य यंत्रों का प्रयोग कर शोरगुल न किया जाए, वरना परियां भी मिल सकती हैं।
परियां वो, जिनके बारे में चांचरी लोकगीतों में गाया जाता है कि यह पानी से पतली और हवा से भी हल्की होती हैं। सुंदर, सुडौल, तीखी नासिका ,गोरा रंग, लाल होंठ, मखमली अंगिया और पीली साड़ी बदन पर पहने, हाथ में बंधे रेशमी रुमाल से भंवरों और बड़ी-बड़ी तितलियों को भगाने वाली जो यौवनाएं जादुई सौंदर्य की प्रतिमान हैं। 
      पढ़कर आंखों में रुमान उतर आया हो तो बता दें कि यह सिर्फ महसूस होती हैं, हाथ नहीं आती। क्योंकि यह मृतआत्माएं हैं। इन कमउम्र अविवाहित परियों को आंछरी या मांतृ भी कहा जाता है।
 सुंदर चीजों का मोह किसी को मर कर भी चैन नहीं लेने देता।  प्रेत बन अपने हिमालय रूपी घर-आंगन में ही घूमती विचरती ये आंछरियां चेतावनी देती हैं कि  पर्वत पर जहां इनका मंदिर है वहां कोई घास काटने न जाये ।  पीले और लाल रंग के चटक वस्त्र पहनकर जंगल में विचरण ना करें। किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग या किसी प्रकार का कोई शोरगुल कोई वहां ना करें।  जल स्रोतों पर कोई अकेले ना आए, गंदगी न फैलाएं। 
इस तरह बर्फ और परियां रक्षक हुईं हिमालय की।
इरादा अंधविश्वास फैलाने का नहीं है किंतु बेदिनी बुग्याल और दयारा की ट्रैकिंग पर गए कई पर्वतारोही और पर्यटकों ने स्वीकारा है कि किसी अदृश्य ने उन्हें वहां झकझोरा भी है। 
क्या वास्तव में अस्तित्व है परियों का ?
गढ़वाली लोक कथाओं में जीतू बगड़वाल नामक एक सजीले बांके नौजवान का खैंट पर्वत के जंगल में बांसुरी बजाकर अपनी प्रेमिका को बुलाने का संकेत दिए जाने पर अंछेरियों द्वारा उसका हरण कर लिए जाने की कथा खूब प्रचलित है। 
जिस तरह संगीत के प्राचीन साहित्य में दीपक राग से दीए जलाने  और मेघ मल्हार से बारिश हो जाने इत्यादि घटनाओं का उल्लेख मिलता है,उसी तरह जागर गायन की विशिष्ट कला और ढोल दमाऊ के वादन से प्रेतआत्माओं का आह्वान करती स्वर लहरियों के संयोजन से इंसानी शरीर में उन्हें जाग्रत कर उनकी इच्छा पूछने की कला का नाम है "जागर" । जागर को  परालौकिक विद्या माना जाता है। जिस व्यक्ति पर परियां लग जाती हैं, उसको परियों से मुक्त करने का काम जागरी और औजी मिलकर करते हैं। औजी,जागरी के सहायक होते हैं जो ढोल-दमाऊ बजाने का कार्य करते हैं। अपनी छोटी सी पूजा के बदले में परियां या अंछेरियां  व्यक्ति का खूब भला कर जाती हैं। परियों का इंसानी शरीर में अवतरित होने का सिलसिला कई बार पीढ़ी- दर-पीढ़ी भी चलता है। 
 शहरों की भीड़भाड़ से दूर सुकून तलाशने जब कोई इन पहाड़ों में चला आये और यहां के हसीन नजारे देख आनंदित होते हुए भूल से कोई बिसरा हुआ राग छेड़ दे और परियां से उसका सामना हो जाए तो अचरज कैसा ! 
 कुदरत और इंसानों के साथ साथ भूत-प्रेत भी सुंदर होते हैं पहाड़ के। 
खामोशी की चंचल अठखेलियों का नाम ही परी हो शायद ! लेकिन चाहती वह भी हैं किसी से बोलना- बतियाना और अपने सुख-दुख की सुनना-सुनाना ! 
                                               
                                              प्रतिभा की कलम से