रक्तदान महादान

इस धरा पर मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे ईश्वर ने बुद्धि -विवेक से सँवारा है।मनुष्य यदि चाहे तो इस अद्भुत शक्ति का सदुपयोग कर स्वयं का जीवन तो खुशहाल बना ही सकता है साथ ही साथ औरों का जीवन भी सँवार सकता है।अब प्रश्न उठता है कि रक्तदान से मनुष्य अपना और दूसरों का जीवन कैसे सँवार सकता है?

रक्तदान अर्थात एक मनुष्य का रक्त दूसरे ज़रूरत मन्द इंसान के शरीर में स्थानांतरित किया जाना, तो हुआ न महादान।इससे अधिक ख़ुशी की बात भला और क्या हो सकती है कि हम अपने शरीर के रक्त के दान से किसी इंसान की ज़िंदगी बचाने के माध्यम बन गए।जिस ज़रूरत मन्द को रक्त स्थानांतरित किया जाता है उसे तो ज़िंदगी मिल गई और देने वाले को जो ख़ुशी मिलती है उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल होता है।यह बिल्कुल वैसी ही स्थिति होती है जैसे एक गूँगे के गुड़ खाने के बाद की होती है।क्योंकि गूंगा व्यक्ति गुड़ के स्वाद को शब्दों में तो व्यक्त नहीं कर सकता किन्तु उसके चेहरे पर उभरे भावों से अंदाज़ा लग जाता है कि वह कैसा महसूस कर रहा है।

सन 1628 में विलियम हार्वे द्वारा सर्वप्रथम रक्त संचरण की खोज की गई।उसके बाद सन 1665 में सबसे पहले इंग्लैण्ड में एक वैज्ञानिक द्वारा रक्त स्थानांतरण किया गया था।2004 में विश्व स्वास्थ्य संगठन,अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस संघ व रेडक्रीसेंट समाज ने 14 जून को वार्षिक तौर पर पहली बार इसकी शुरुआत की। रक्त स्थानांतरण की महत्ता को देखते हुए हर साल पूरे विश्व में 14 जून को रक्त दाता दिवस के रूप में मनाया जाता है। बावजूद इसके रक्तदाताओं की संख्या अभी ज़रूरत के मुताबिक नाकाफ़ी ही है।


एक स्वस्थ वयस्क व्यक्ति के शरीर में लगभग 10 यूनिट (5 से 6 लीटर) रक्त होता है।रक्तदान में एक समय में एक यूनिट ही रक्त शरीर से लिया जाता है जो एक सप्ताह में ही पुनः निर्मित हो जाता है। रक्तदान करने से कोई क्षति नहीं पहुँचती बल्कि रक्तसंचार पहले से बेहतर हो जाता है। रक्तदान करने के बाद जो आनंदानुभूति होती है उसके फलस्वरूप रक्तदाता स्वयं को अधिक ऊर्जावान महसूस करने लगता है। 18 वर्ष से लेकर60वर्ष की आयु तक कोई भी इस महायज्ञ में आहुति डालकर किसी को जीवनदान देकर पुण्य का भागी बन सकता है।पुरुष वर्ग तीन महीने और महिला वर्ग चार महीने के अन्तराल में नियमित रूप से रक्तदान कर सकते हैं। रक्तदान करने में किसी भी तरह का संकोच नहीं होना चाहिए क्योंकि कोई भी संस्था बिना जाँच किए रक्त नहीं लेती है।रक्तदाता को भी लाभ हो जाता है क्योंकि उस समय उसका वज़न, पल्सरेट,ब्लडप्रेशर, शरीर का तापमान आदि की जाँच हो जाती है। रक्तदान करने जैसा नेक कार्य भला और क्या हो सकता है! इससे रक्तदाता को लाभ ही होता है क्योंकि उसका रक्त परिशुद्ध हो जाता है और शरीर में नया रक्त बनने लगता है जो पहले से अधिक स्वस्थ होता है। रक्तदाता हमेशा ख़ुशियों की छाँव तले रहता है क्योंकि हरपल उसे एहसास होता रहता है कि उसके माध्यम से किसी को ज़िंदगी मिल गई।रक्तप्राप्त कर्ता की दुआएँ उसे मिलती रहती हैं।दुआओं में बहुत शक्ति होती है इसे हम झुठला नहीं सकते।रक्तदाता समाज के लिए प्रेरणा बन जाता है।उसके नेक काम से लोगों को प्रेरणा मिलती हैऔर परोपकार की भावना को बल मिलता है।"सर्वे सन्तु निरामयाः" का भाव प्रबल होने लगता है।

बारह प्रतिशत से कम हीमोग्लोबिन रहने पर रक्तदाता की इच्छा के बावजूद कोई भी संस्था या रक्तवीर शिविर के सदस्य स्वयं ही रक्त लेने से इंकार कर देते हैं।स्तनपान कराने वाली माताएँ रक्तदान नहीं कर सकती हैं।साथ ही माहवारी के समय भी रक्तदान नहीं किया जा सकता है। रक्तदान करने से शरीर में किसी तरह की कमजोरी नहीं आती है। रक्तदाता बनकर मनुष्य जीवन की अहम भूमिका निभाना हमसब का कर्तव्य बनता है।

अपने इस अमूल्य गुण को व्यर्थ न जाने दें।रक्तदान कर किसी के घर की ख़ुशियों में शामिल होना भाग्यशाली के भाग्य में होता है।रक्तदान कर उन जिंदगियों को जीवनदान देने आगे आएँ जो रक्त की कमी के कारण जीवन और मौत के बीच झूल रही हैं।


(रक्तदात्री, समाजसेवी, 

शिक्षिका सन्तजोसेफ कॉन्वेन्ट हाई स्कूल

अशोक राजपथ पटना बिहार)