वक्रतुण्डोपनिषद


ऋतु  चक्र 


ऋतु पृथ्वी का भौगोलिक परिधान है / हमारे त्यौहार, हमारे उत्सव पृथ्वी के इन्हीं परिवर्तनों की सामाजिक अभिव्यक्तियाँ हैं... ऋतुओं की इन वेश-भूषाओं में हमने अपने लिए विभिन्न अर्थ ढूंढ लिए हैं...परन्तु आधुनिक समाज के सम्मुख पारे का उबाऊ परिवर्तन ही एकमात्र ऋतु  है। वह मिटटी में जीवन नहीं लाभांश देख रहा है / पहाड़ की हथेली में उन्मुक्त उस प्राकृत गीत गाते पुष्प को पूरे शास्त्रीय ढंग से भी यदि गमले में उगाया जायेगा  तो भी वह गणपति के चरणों का निर्माल्य नहीं बन सकता / गति के गीत को प्रयोग नहीं गए सकता, उसे प्रकृति ही गा सकती है /  हमारी समय सिद्ध परम्पराएं  पृथ्वी के वे मृदंग-कौशल हैं  जिनकी ताल पर  स्वयं ऋत भी नृत्य करता है