आवश्यक है ग्राम्य संस्कृति संरक्षण


पू0 महात्मा गाँधी जी ने ग्रामस्वराज के अन्र्तगत ग्राम-संस्कृति की बात कही है। भारत, गाँवों का देश है, भारत गाँवों में बसा है। भारत की आत्मा ग्राम्य जीवन में बसती है, इस आधिष्ठान को उन्होंने जीवन पर्यन्त आग्रहपूर्वक रखा। ग्रामों के उन्नयन, संरक्षण, संवर्धन का विषय उनके विचारों, उद्बोधन तथा कृति में निहित था। ग्रामीण परिवेश में जन्मे, पले-बढ़े तथा जिन्होंने गाँव को भारतीयता तथा स्वदेशी का पर्याय माना ऐसे भारतीय जीवन दर्शन के पुरोधा पं0 दीनदयाल   उपाध्याय ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहा कि, सामाजिक जीवन में अतीतकाल से जो विचार, अवधारणायें  पुष्पित, पल्लवित हुईं तथा जिनका समाज जीवन में योगदान है, उनका समुच्च्य ही संस्कृति है। दीनदयाल जी कहते थे दूध का जमना, दही बनना मथने पर मक्खन और फिर गर्म करने पर घी की प्राप्ति दूध पर निरन्तर हुआ वह संस्कार जो उद्देश्य की पूर्ति करता है, वही संस्कृति है। इसी प्रकार ग्रामीण जीवन में वर्षानुवर्ष से जो मान्यताएं, मर्यादाएं, जीवन के आयाम, उत्थान के नियम विकसित हुए, उसका ही सामूहिक नाम ग्राम-संस्कृति है।
भारतीय प्राचीन शास्त्रों का मत है कि जीवन रक्षा के लिए उपभोग करना, प्रकृति, है। दूसरे के अधिकार को छीनना विकृति तथा दूसरों के हितों की चिन्ता करना संस्कृति है। गाँव का उदय ही जनहित के लिए हुआ है। जीवन चलाने के लिए जिस भी चीज की आवश्यकता होती है, वह बुनियादी तौर पर गाँव की धरती पर उगती है, पैदा होती है। किसान का सम्पूर्ण जीवन इस उत्पादन के लिए खपता है। उनका यह समर्पण लोक कल्याण का अनुपम उदाहरण है, यही संस्कृति है। गाँव का यह स्वरूप आदिकाल का है। सृष्टि के विकास के साथ-साथ प्रकृति के निकट जो भी मानव समुदाय रहा उसे हम ग्रामीण समझ सकते हैं। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का उपयोग करना, सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयास, सन्तुष्ट जीवन शरीर तथा मन को पुष्ट करने वाली शुद्ध प्राणवायु, शारीरिक श्रम, परस्पर सहयोग का भाव, मिðी, पत्थर, लकड़ी के ऊर्जादायी मकान, पोखर, तालाब, वन यह सब परिवेश ग्राम्य जीवन को परिभाषित करता है। धीरे-धीरे ग्रामीण परिवेश शहरीकरण में परिवर्तित होता गया और फिर गाँव और अधिक सुविधाओं की आवश्यकता के वशीभूत कस्बे, शहरों में बदलने लगे और गाँव का स्वरूप विकृत  होने लगा।
यह भी सत्य है कि गाँव प्रारम्भिक काल से ही स्वावलम्बी रहै। इसका बड़ा प्रमाण यह है कि जीवनचर्या के लिए वह सब कुछ पर्याप्त हो जाता था, जो यहाँ धरती पर उगता था। एक कृषक परिवार की भरीपूरी ग्रहस्थी खेती से पल जाती थी। परिवार के भरण पोषण के लिए  खद्यान्न प्रचुर मात्रा में था। यहाँ तक कि खेती में उपजी फसल का एक बड़ा अंश आगे आने वाले वर्षों के लिए भी आधार बनता था। राशन की दुकान, जिसे सामान्य बोलचाल में कन्ट्रोल कहा जाता है, उस पर निर्भरता का कारक बहुत बाद में आया। बाहर से आने वाले धनादेश (मनीआर्डर) की छोटी सी राशि भी पर्याप्त थी। पशुधन की बहुतायत थी, उसे वैभव, सम्पन्नता का प्रतीक माना जाता था। टिहरी गढ़वाल केे भौगोलिक परिवेश में आज भी जब किसी की कुशलक्षेम पूछी जाती है तो (चैनपशु ) पशुधन के भी कल्याण के भाव को प्रकट किया जाता है।
ग्रामविकास के क्षेत्र में जिस मनीषि ने देश में एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया, वे हैं स्व0 नानाजी देशमुख। नब्बे के दशक में उन्होंने देश के सम्मुख विचार रखा कि ग्राम स्वावलम्बन के क्षेत्र में पुरजोर कार्य करने की आवश्यकता है क्यांेकि भारत की संस्कृति तथा प्रकृति ग्रामाधारित है। भाव यह है कि अपना गाँव हम स्वयँ सँवारेंगे। गाँव किसी सरकार, शासन या अन्य दूसरे पर अवलम्बित नहीं होगा। प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे ने अनेक विकृतियों को दूर कर अथक प्रयास से अपने ग्राम रालेगण सिद्धी में ग्राम संस्कृति को पुनजीर्वित करने का ऐतिहासिक कार्य किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक समाजसेवी श्री एच0 वी0 शेषाद्रि ने जब उनका गाँव जाकर देखा तो वे अनुप्राणित थे। इसी प्रेरणा से उन्होंने 'एक कर्मयोगी का गाँव' पुस्तक लिखी जो देश भर के ग्रामीण कार्यकर्ताओं के लिए मार्गदशर््िाका सिद्ध हुई। गाँव का स्वयँ का उत्पादन सन्तुलित प्रकार से बाहर जाय,े जिसके फलस्वरूप  धन गाँव को प्राप्त हो। गाँव का कलाकौशल भी जीवन्त बना रहे।
गाँव अनेक सम्पदाओं का निकेत है। जल सम्पदा, वन सम्पदा,  जन सम्पदा, गोसम्पदा तथा ग्रामोद्योग ये सब उपाँग ग्राम की धरोहर हैं। गाँव के जलस्रोत स्वच्छ रहें, निरन्तर गतिमान रहंे, जल के समुचित उपयोग की व्यवस्था बनं,े यह आवश्यक है। जंगल ग्राम की शान हैं। पर्वतीय क्षेत्र के वृक्षों में जल संग्रहण, जल संवर्धन की असीम क्षमता है। वन ग्राम्य जीवन के पोषक हैं। अनेक स्थानों पर ग्रामीणों ने जंगल आरोपित करने तथा संरक्षण के यशस्वी प्रयास किये हैं। ग्राम की जनसम्पदा विलक्षण है। समाज जीवन की अनेक विधाओं के यज्ञ, कठिन परिश्रम के अभ्यस्त, निश्छल, दैवीय गुणों से सम्पन्न समाज यहाँ का वैशिष्ट्य है। गँाव से लुप्त हो रही गो सम्पदा आज सर्वत्र चिन्ता का विषय है। गाय और ग्राम एक-दूसरे केे सदा पूरक हैं। उत्तराखंण्ड के प्रसिद्ध सन्त गोपालमणि जी महाराज ने इस सम्पदा के अभिवर्धन के लिए गो कथा का जो अभिनव अभियान प्रारम्भ किया, वह ईश्वरीय वरदान है। उसके परिणामस्वरूप गो सम्पदा के संवर्धन को क्रान्तिकारी दिशा प्राप्त हुई है।
पुराने समय से ही गांव में एक सम्पूर्ण इकाई रहा है। जीवन चलाने लिए जो साधन आवश्यक हैं, उनकी विधिवत् उपलब्धता यहाँ थी। अनेक प्रकार के छोटे-2 उद्योग अर्थोपार्जन तथा स्वावलम्बन के हिस्से थे। उनके प्रशिक्षण की परम्परिक व्यवस्था भी सहजरूप  से गाँव में ही थी। हल से लेकर छोटे-बड़े कृषि यंत्रों का निर्माण, भवन तथा लकड़ी की कारीगरी, अनाज पीसने के घराट ये सभी कार्य गाँव में सुलभ थे। जो समय के साथ-साथ बड़े उद्योग समूहों के पास चले गये। आज भी इन विधाओं के जानकार मौजूद हैं। लोक स्वास्थ्य, चिकित्सा की अनेक पद्धतियाँ यहाँ विकसित थीं। आवश्यकता है उन्हें पुनर्जीवित करने की। किसी भी कीमत पर इन सम्पदाओं का संरक्षण आज आवश्यक है। इनके बचाव तथा विकास में ही ग्राम्य संस्कृति का संरक्षण अन्तर्निहित है। शिक्षा, संस्कार, देवस्थान की प्रतिष्ठा, प्रचलित परम्परायें, लोक मान्यतायें, तीर्थ, त्योहार ये सभी ग्राम्य संस्कृति के विविध अंग हैं। एक आदर्श गाँव की संकल्पना में ये सभी बिन्दु स्वाभाविक रूप से समाहित हैं। जहाँ एक ओर व्यवस्था को लिए सरकार की बड़ी जिम्मेदारी है, वहीं दूसरी ओर ग्रामस्तर पर इनके  सम्बन्ध में जागरूकता अपरिहार्य है। विकास के नाम पर जो प्रदूषण आ रहा है, उसको राकने के लिए गाँव के अस्तित्व के लिए लोक मान्यताओं, को चिरंजीवी रखना आवश्यक है। वर्ष 1965 से ग्राम विकास के विषय पर उत्तराखंण्ड के ग्रामीण जनों और विशेषकर युवाओं को प्रेरणा देने वाले वयोवृद्ध समाजसेवी, शिक्षाविद् स्व. डा0 नित्यानन्द ने पहाड़ का विकास ग्रामोन्मुखी हो इस विषय को सर्वदूर पर्वतीय क्षेत्रों में रखा। पृथकराज्य के आन्दोलन के समय उन्होंने उत्तराखण्ड के सभी विकासखण्डों का सधन प्रवास कर राज्य निर्माण के औचित्य तथा इसके विकास में ग्रामवासियों की भूमिका को समझाया। 
हम अपने गाँव के लिए क्या कर सकते हैं, यह विचार भी रखा कि हमारे पूर्वजों ने यहाँ के खेत खलिहान, मार्ग तथा भवन कितने परिश्रम से बनाये, रहने योग्य भूमि ढँूढी, सैकड़ों वर्षों से पहाड़ की विज्ञान सम्मत जीवन शैली विकसित की जिसके  आधार पर यहाँ का जीवन स्वाभिमानपूर्वक टिका हुआ है। जिसके प्रयास से विरासत के रूप में मिला यहाँ का सामाजिक जीवन दर्शन अक्षुण्ण रखना होगा। सीमान्त की सुरक्षा तथा हिमालय को बचाये रखने के लिए गाँव को बसाये रखना होगा इससे ग्राम इकाई के कारण भारत की संस्कृति का भी पोषण, संरक्षण होगा।