सैकड़ों बोली-भाषाओँ वाले अपने इस अनोखे देश में भाषा हमारी भारतीयता को भी परिभाषित करती है। यह अनायास नहीं है कि भाषाओँ को ही आधार बनाकर राजनैतिक इकाईयों यानि राज्यों का पुनर्गठन हुआ। प्रत्येक भाषा के साथ एक विशेष संस्कृति भी जुड़ी हुयी है। उदाहरण के लिये केवल पंजाबी भाषा ही मराठी से भिन्न नहीं होगी बल्कि पंजाबी खान-पान और पहनावा एवं अन्य रीति-रिवाज भी मराठी रिवाजों से भिन्न हैं। इसीलिए इन सांस्कृतिक इकाईयों को ही राजनैतिक इकाई के रूप में स्वीकृति दी गयी। जहाँ ऐसा हुआ वहाँ भी ऐसी माँग होती रहती है। अलग उत्तराखण्ड राज्य की माँग एवं निर्माण भी इसी दिशा में एक कदम था। किन्तु अन्य राज्यों की तर्ज पर मध्य हिमालय की इस पौराणिक संस्कृति एवं यहाँ की मुख्य भाषाओं गढ़वाली-कुमाँऊनी के संरक्षण के प्रश्न पर सरकारों में इच्छाशक्ति का अभाव ही दिखा। अपनी भाषाओं को परिभाषित करने के बजाय संस्कृत को राजभाषा का दर्जा देने का कार्य हुआ। यह कार्य केंद्र सरकार करती तो देशभर मे संस्कृत-संरक्षण के कार्य होते क्योंकि उस का विस्तार देशव्यापी है। उत्तराखण्ड में संस्कृत एवं हिन्दी अकादमी तो बनाई गई परन्तु लोकभाषाओं की सुध लेनेवाला कोई नहीं है।
आश्चर्य तब होता है जब समय-समय प्रदेश का राजभवन भी इन लोक भाषाओं का उपहास करता हुआ दिखाई देता है। एक बार पूर्व स्वर्गीय महामहिम सुदर्शन अग्रवाल जी ने पंजाबी मूल के एक व्यक्ति द्वारा गढ़वाली की लिपि बनाने के सिरफिरे प्रयास को ईनाम दिया और बाद के राज्यपाल कहते रहे कि गढ़वाली- कुमाँऊनी मिलाकर नई भाषा बनानी पड़ेगी ताकि दोनों समाजों में एकता रहे। मेरी इच्छा है महामहिम से जाकर कहूँ...आप सबसे पहले हिन्दी और उर्दू को मिला दें, इस देश की सबसे कठिन एकता-समस्या का समाधान हो जायेगा क्योंकि हिंदी-उर्दू भाषाओं में तो लिपि की भिन्नता के अलावा सब एक जैसा है। भाषाओं की राजनीति करने वाले ऐसा वातावरण बनाते हैं मानो किसी लोकभाषा के संरक्षण की बात करने वाले हिन्दी विरोधी हों। परन्तु हम ये भूल जाते हैं कि हिन्दी का जन्म कब और कैसे हुआ? हिन्दी पढ़ते हुये जब हम पीछे जाते हैं तो क्या हम बृजभाषा, अवधी, खड़ी बोली और राजस्थानी नहीं पढ़ रहे होते हैं? लोक भाषाएँ हिन्दी कि टक्कर में नहीं हैं वरन उसके विस्तार एवं शब्दसामर्थ्य का भण्डार भरती हैं। इस देश की सारी लोक मान्यतायें, लोक परम्परायें, ऐतिहासिक घटनायें हमारी इन सैकड़ों बोलियों एवं भाषाओं के गर्भ में ही छुपी हैं। हजारों वर्षों की विकास यात्रा में मनुष्य अपने विशेष भूगोल और वातावरण के अनुसार नये-नये शब्द गढ़ता होगा, नए- नये मुहावरे बनाता होगा...किसी भाषा का अस्तित्व खत्म होने की बात सुनकर ऐसा लगता है जैसे अफगानिस्तान में तालिबान ने भगवान बुद्ध की सबसे ऊँची प्रतिमा तोड़ डालने पर लगा था...विश्व में एक-एक मरती हुई भाषा के साथ कितना कुछ खो जाता है। अब चमोली गढ़वाल की ठण्ड में कम्बल का वस्त्र 'लव्वा' होगा तभी तो भाषा में भी था...भाषा ही नहीं रहेगी तो 'लव्वा' भी कहाँ रहेगा...'बाऽड़ी' भाषा में रहेगा तभी तो खाया जायेगा। ये ऐसा संक्रमणकाल आया है जब सारी दुनियाँ एक ही तरह के कपड़े पहन रही हैं, एक ही प्रकार का खाना खा रही है। न्यूयॉर्क में, सिंगापुर, दिल्ली में या मेरे गाँव में जींस-टीशर्ट पहनना और पिज्जा, बर्गर, चाउमीन खाना, सब एक जैसा है। परिवर्तन तो जीवन का लक्षण है। मैं परिवर्तन का विरोध नहीं कर रही हूँ किन्तु यह परिवर्तन और विकास हमसे बहुत बड़ी कीमत वसूल रहा है। राजस्थान जायें और रंग न दिखें, गढ़वाल जायें और वहां पिज्जा खाना पड़े...विविधता में जो आनन्द है, वह हम भारतीयों से बेहतर कौन समझेगा..?
एक प्रश्न और पूछा जाता है...व्याकरण क्यों? वह भी गढ़वाली भाषा का? भाषा या बोली? इस युग में जब राष्ट्रभाषा हिंदी पर ही संकट आ गया हो...क्या ये क्षेत्रवाद का आग्रह है? दकियानूसी सोच है? ऐसे अनेक प्रश्न पाठकों के मन में उठते होंगे...खासकर नयी पीढ़ी खुद को इन सरोकारों से जोड़ ही नहीं पाती। नीति-निर्धारकों ने स्वतंत्रता के पश्चात् विकास के हर पहलू पर जैसे आत्मघाती निर्णय लिये उससे उनकी नीयत पर हमेशा संदेह होता है। भौतिक विकास को फिलहाल मुद्दे से अलग भी रखें तो अपनी भाषाओं, अपनी बहुरंगी संस्कृतियों, रीति-रिवाजों और अपने वैभव एवं गौरवशाली इतिहास के पृष्ठों को जिस प्रकार हमारी भावी पीढ़ी की पहुँच से साजिशन दूर किया जा रहा है, उधर हमारा ध्यान ही नहीं है। पहले संस्कृत को वैकल्पिक विषय बनाया गया,तब हिन्दी अनिवार्य थी और अब वह भी अनिवार्यता सूची से गायब हो गयी है। बच्चों को हिंदी में गिनती नहीं आती। चाह कर भी हमारी वर्तमान या भावी पीढ़ी हमारा देशज साहित्य नहीं पढ़ पाएंगी।
वैश्वीकरण के बाद यूँ भी आँचलिक जीवन की बारीकियाँ उसी एक रंगी संस्कृति में समाती जा रही है। इस बहुरंगी लोकजीवन वाले देश के लोकरंगो को भावी पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए हर लोक भाषा को संरक्षित करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। सूचना क्रान्ति की इस आंधी की रफ्तार जैसे ही कम होगी हमारा भविष्य अपने भूत को टटोलेगा। इसीलिये...इन छोटी-छोटी लोक संस्कृतियों को सिमटने से पहले संजोना पडेगा।
भविष्य की आशा है भाषा