हिन्दी साहित्याकाश के दधिची!
20 अगस्त 1919 से 20 अगस्त 2019 तक एक सदी की समयावधि! इसी समयावधि के शुरूवाती मात्र 28 वर्ष (14 सितम्बर 1947) तक ही चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने यह दुनिया देखी। शेष 72 वर्षों की कालावधि में चन्द्र कुंवर बर्त्वाल के निमित्त उनके अभिन्न मित्र शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी द्वारा चन्द्रकुंवर की रचनाओं का संकलन/प्रकाशन, डा. उमाशंकर सतीश जी द्वारा पुनप्र्रकाशन, डा. योगम्बर बर्त्वाल जी द्वारा कुछेक महत्वपूर्ण पत्रों-चित्रों का पृथक संकलन एंव दिवंगत चित्रकार बी. मोहन नेगी द्वारा उनकी कविताओं का चित्रांकन ही मुख्य उपलब्धियां रही। अन्यथा, क्षमा करें यह लिखने में लेश मात्र भी संकोच नहीं कि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल के अवसान के बाद सदी के शेष 72 वर्षों की अधिकांश अवधि हमनें यूं ही खाली बीत जाने के लिए छोड़ दी। यह चद्र कुंवर के वृहद कैनवास से जुड़ा प्रश्न ही नहीं अपितु हिंदी एंव आचंलिक साहित्य जगत का भी कटु सत्य है!
आश्चर्य तब होता है जब कई बार कुंवर जी का नामोल्लेख होने पर प्रति प्रश्न सुनाई देता है- कौन चन्द्र कुंवर बर्त्वाल? या जो थोड़े बहुत जानकार हैं उनके श्रीमुख से चर्चा के दौरान सुनाई देता है कि दूर पाश्चात्य जगत में अंग्रेजी के मशहूर कवि पी.बी.शैली और जाॅन कीट्स भी चन्द्र कुंवर बत्र्वाल की भांति लगभग एक ही वय में इस संसार से विदा हुये। पी.बी.शैली की जलधारा में डूबने से तथा जाॅन कीट्स भी ठीक चन्द्र कुंवर की भांति ही क्षय रोग से काल कवलित हुये। ठीक है किसी साहित्यकार के समग्र व्यक्तित्व को समझने के लिए ऐसी सामान्य जानकारियों का होना भी जरूरी है। किंतु अफसोस तब होता है जब उत्कृष्ट रचनाओं के बाद भी चन्द्रकुंवर की रचनाएं शोध प्रबन्धन में पी.बी. शैली और जाॅन कीट्स तथा अन्य साहित्यकारों से कोशों दूर नजर आती हैं। क्या कारण हो सकते हैं इसके पीछे? अपने शूक्ष्म विवेक से कुछेक बिंदुओं पर दृष्टि पड़ी है आइए तनिक आप भी इन पंक्तियों पर विचार करें!
अंग्रेजी के एक नामचीन अमेरिकन कवि हुये हैं- राॅबर्ट फ्राॅस्ट! आपकी एक कविता है- Stopping by woods on a snowy evening । इसी कविता की अंतिम चार पंक्तियां कुछ यूं हैं-
The woods are lovely dark and deep/ but I have promises to keep
And miles to go before I sleep/And miles to go before I sleep.
कहा जाता है कि इन पंक्तियों की कल्पना उस समय साकार हुई जब एक बर्फानी सांय राॅबर्ट फ्रास्ट घोड़े पर सवार होकर किसी घने जंगल से गुजर रहे थे। घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे ही वे जंगल की दृश्यावली देखकर अभिभूत हुए किंतु ठहर जाना उन्हें ठीक नहीं लगा। प्रण किया कि उन्हें चलते रहना चाहिए। क्योंकि उन्हें सोने से पूर्व मीलों लम्बी यात्रा तय करनी है।
कविता लिखे जाने के बाद दूसरे पड़ाव में राॅबर्ट फ्राॅस्ट की ये पंक्तियां व्याख्याकारों/शोधार्थियों की नजरों के सामने थी। व्याख्याकारों/शोधार्थियों ने कविता के deep शब्द को संघर्ष,keep अटल प्रण sleep को मृत्यु का पर्याय प्रतिपादित कर आम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। निष्कर्षतः आज राॅबर्ट फ्राॅस्ट की यह रचना उनकी उत्कृष्ट रचनाओं में गिनी जाती है। मैंने स्वयं इन पंक्तियों को कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों, विद्यालयों के प्रांगण की शोभा बने हुए देखा है। यह भी कहते सुना गया है कि पं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु से पूर्व उनके अध्ययन कक्ष की मेज में ये अन्तिम पंक्तियां लिखी हुई थी।
कहने का तात्पर्य यही है कि पाश्चात्य जगत का रचनाकार कभी भी अकेला नहीं रहा है। वहां लेखक, पाठक और शोधकर्ता तीनों सक्रिय रहकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यही पाश्चात्य जगत की साहित्यिक उन्नति की सबसे बड़ी विशेषता है।
पाश्चात्य जगत के सरोकारों के अंधभक्त यह दलील देते हैं कि अंग्रेजी के मुकाबले हमारी रचनाएं कम प्रभावशाली हैं। दरअसल यह पाश्चात्य दर्शन का वह प्रभाव है जिसमें हम स्वमूल्यांकन के स्थान पर पाश्चात्य दर्शन की पे्रत छाया में अपना अक्स देखते हैं। लेकिन यह वस्तुतः इन दर्शनशास्त्रियों का भ्रम है। हमारे साहित्य का एकमात्र दुर्भाग्य यही है कि उसे शोध प्रबन्धन के तौर पर सही बौद्धिक मंच नहीं मिल पाता है। तथा कर्तव्यों पर मात्र वक्तव्य हावी होने के कारण रचनाएं सदियों तक धूल फांकती रहती हैं।
उत्कृष्ठ रचनाओं के भावानुवाद के दौरान चन्द्र कुंवर की कविताओं को गहराई से समझने का सुअवसर मिला। कविताएं पढ़कर जो कुछ समझ सका उसके आधार पर निसंकोच कह सकता हूं कि वास्तव में चन्द्रकुंवर की रचनाओं के साथ आज तक न्याय नहीं हुआ। अन्यथा उनकी रचनाएं पाश्चात्य जगत के रचनाकारों की रचनाओं से बीस ही हैं उन्नीस नहीं। चन्द्रकुंवर की एक रचना देखिये-
मरण कितनी दूर है रे मरण कितनी दूर
ग्रीष्म की दारूण हंसी से सूख जीवन कह रहा
चरण मेरे थक गए, हाय जाना मुझे अभी कितनी दूर है
मरण कितनी दूर है रे मरण कितनी दूर।
सरसरी निगाह से देखें तो राॅबर्ट फ्राॅस्ट की कविता में आगे बढ़ने का जोश, जिम्मेदारी उठाने का भाव है। जबकि चन्द्र कुंवर की पंक्तियों में निराशा, हार प्रतीत होती है। लेकिन यदि गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो चन्द्र कुंवर बत्र्वाल की रचना में ज्यादा गाम्भीर्य समाहित है। एक सम्पन्न एंव स्वस्थ कलमकार घोड़े पर सवार होकर मंथन करंे या किसी पहाड़ या घाटी में बैठकर चिंतन कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करें निसंकोच कह सकते हैं उसके पास हाथ-पांव चलाने के लिए कई विकल्प खुले हैं। लेकिन मौत से जुझ रहा एक कलमकार जो चलने-फिरने में भी असमर्थ है वह भाव व्यक्त कर रहा है कि -'चरण मेरे थक गये, हाय जाना मुझे अभी कितनी दूर है।' कहिए उत्कृष्ठता की कसौठी पर कौन श्रेष्ठ है?
The woods are lovely dark and deep/ but I have promises to keep/And miles to go before I sleep/And miles to go before I sleep. पंक्तियों में भी dark के साथ न मौत की छाया है और न ही deep में जंगल की नींव का घना अंधेरा। राॅबर्ट फ्रास्ट की रचना में मात्र एक ही शब्द थोड़ा भिन्न है- lovely कविता में lovely शब्द ही वह गुण सूत्र है जिससे की वह शूक्ति बनी। Love & Death में मृत्यु का आलिंगन भला कौन करेगा? जो मृत्यु से कई रूपों में साक्षात्कार करेगा वह चन्द्र कुंवर सदृश्य बिरला ही होगा। मृत्यु तो शास्वत सत्य है। उसमें Love जोड़ देने से क्या मृत्युु नहीं आयेगी। आयेगी? अवश्य आयेगी! लेकिन उसे समझने के लिए राॅबर्ट फ्रास्ट नहीं चन्द्र कुंवर की ओर लौटना होगा। चन्द्र कुंवर की पंक्तियां पढ़नी होंगी-
चरण मेरे थक गए, हाय जाना मुझे अभी कितनी दूर है
मरण कितनी दूर है रे मरण कितनी दूर।
'मरण कितनी दूर है रे मरण कितनी दूर।' लिखकर चन्द्रकुंवर अपनी आसन्न मृत्यु से भयभीत नहीं दिखे। आसन्न मृत्यु देखकर भी वे निडर रहे। और बेधड़क लिखते गये। उनकी पंक्तियों में निडरता का अक्स देखिए-
नीचे डुबाओ!/मुझ को मरण के चरण-तल तक डुबाओ
और नीचे डुबाओ।
अंधेरा इतना हृदय में हो कि रह जाए न आशा
सदा को मिट जाय सुख-दुःख हर्ष और निराश भाषा।
शुद्ध हो जावे हृदय जब शुभ्र हिम-सा
तब अतल उस शोक-सागर से मुझे ऊपर उठाओ
ज्योति से पूरित कमल-सा ज्योति में ऊपर उठाओ
और ऊपर ऊठाओ, ऊपर ऊठाओ।
किन्तु जब उठने की उम्मीद भी क्षीण हुई तो चन्द्र कुंवर ने शस्त्र रूपी कलम उठाकर किनारे नहीं रख दी। अभूतपूर्व जीवटता का परिचय देते हुए पंक्तियां लिखी-
अंधकार में बीत चुका है इतना जीवन/कुछ दिन और सही
सुख के ऊपर रूदन कर चुके इतना लोचन/कुछ पल और सही
इतने प्यारे पान कर चुके प्राण गरल के/कुछ फिर और सही
इतने दिन तक व्यर्थ प्रतीक्षा की/कुछ दिन और सही।
अंधकार, असहय पीड़ा, घोर उपेक्षा में भी चन्द्रकुंवर आत्महंता नहीं बने। क्षय रोग से पीड़ित एक अलग एकांत झोपड़ी में तमाम कष्टों के बाद भी भाग्य को नहीं कोसते बल्कि अपने हृदय से ही प्रति प्रश्न करते हैं-
'एक अकेला शून्य कमरा, यह अकेली चारपाई,
गरीबी, बीमारियों के हाथ, यह ऐसी तबाही,
किसी से मिलना न जुलना, ये घृणित बातें सभी,
भाग्य ने दी तुम्हें या तुम ने हृदय थी स्वयं चाही?
मौत किस प्रत्याशा में आना चाहती है? मौत आकर कुछ उलट-पलट करे उससे पूर्व ही स्थिति स्पष्ट बयान कर दी-
दीप की लौ इस हृदय में नहीं जलती/पवन, मेरा बुझाने को कुछ नहीं।
इस हृदय के बीच आशा नहीं पलती/बज्र, मेरा बचाने को कुछ नहीं।
पत्र मेरे कभी के ही झर चुके/पीतमय पतझड़ कहां से दूं तुम्हें।
रो चुका जी भर हृदय सब के लिए/हृदय, मेरा रूलाने को कुछ नहीं।
प्रेम ईश्वर की देन है। लेकिन इतनी लाचारी बेबसता में पे्रम की वह अनुभूति कहां रह जाती है। किंतु चन्द्र कुंवर पे्रमानुभूति के भावों को पकड़ लेते हैं। प्रेमानुभूति को भी उन्होंने अद्भुत शब्द दिये हैं। एक स्थान पर लिखते हैं-
आंखों में आंसू भर मेरे आगे बैठी वह मौन रही
मैं भी चुप रहा, न मैंने ही मुंह खोला, कोई बात कही।
आखिर आंखों को पोंछ शनैंः आगे से उठ वह चली गई।
तब मैंने कहा -किया उसने जो कुछ भी, वह था बहुत सही।
प्रेयसी के आंखों के सामने से आसूं पोंछते हुऐ चले जाने पर चन्द्र कुंवर निराश भी नहीं दिखे। संतुलित षब्द दिये हैं-
जीवन भर प्यार करोगी/तो मुझको बतलाना
कह न सको शब्दों-वाक्यों में/तो सपनों में आना।
लोग अक्सर अस्वस्थ व्यक्ति को ढाढस बंधाते हैं- 'चिंता न करें आप जल्दी ठीक हो जायेंगें!' चन्द्रकुंवर स्वयं ही दोनों भूूमिकाएं निभाते हुये अपने आप को तोल रहे हैं -'हो गया हूं ठीक पर यह लग रहा है/कहीं जैसे कुछ कमी रह ही गई है।'
महाकवि निराला और कथाकार यशपाल से आपके साहित्यिक संबन्ध रहे। निराला अस्वस्थ हुये तो आपने निराला जी स्वस्थता के लिए 'मुत्युंजय' नाम से ये निराला जी का मनोबनल बढ़ाने के लिए कविता की पंतियां भेजी। पंक्तियां हैं- 'सहो अमर कवि/अत्याचार सहो जीवन के।/सहो धरा के कंटक/निष्ठुर बज्र गगन के।' लेकिन विडम्बना देखिए चन्द्र कुंवर लम्बे समय तक अस्वस्थ रहे। असहय पीड़ा, दुख, उपेक्षा का हलाहल पीकर चले गये। लेकिन आज तक मेरी दृष्ठि में चन्द्र कुंवर की कुशल क्षेम के निमित्त कोई शब्द नहीं आये।
चन्द्र कुंवर ने करूणामयी माता का भी खाका खींचा है। क्योंकि अंत समय तब एक मां ही थी जो उनके आस-पास रह गई थी। वे मां को ईश्वर से उनके स्वस्थ होने की कामना करते हुए देखते थे। आसन्न मृत्यु का समाचार वह मां तक कुछ इस तरह पहुंचाते हैं-
जिस काल-कुसुम थाली में धर दीपक ज्योति जला कर
मेरी कुशल मनाने वाली होगी मंदिर पथ पर
यदि उस काल कुसुम गिर जावें दीपक यदि बुझ जावे
जननि समझ लेना मेरा भी, अस्त हुआ जीवन बुझ कर।
बुझना नियति का खेल है। सूर्य का यदि उदय है तो अस्तांचल भी निश्चित है। लेकिन एक गति ही है जो अमिट पदचात छोड़ जाती है। चन्द्र कुंवर के लेखन पर यदि और गौर करें तो वे विश्व के एक मात्र ऐसे निर्भीक कवि हैं जो जाग्रत अवस्था में भी अपनी मृत्यु और भस्म होती काया का दृश्य देख रहे हैं। और सजगता से शब्द देते हैं-
'मुझे उठाकर कौन, नदी-तट पर ले आया?/चारों ओर धुएं का सागर लहराता है।
हुई चेतना भ्रष्ट न अब कुछ दिखलाता है/जलती है या भस्म हो चुकी है यह काया?
चन्द्र कुंवर की काया भले ही भस्म हो चुकी हो किंतु उनकी रचनाएं महान तपस्वी दधिची की उन ब्रजतुल्य अस्थियों के समान हैं जो विपरीत समय में ढाल बनने का काम कर सकती हैं। उनके अवसान के बाद उनकी रचनाएं वर्षों तक यूं ही बिखरी पड़ी रही। जबकि पी.बी.शैली और जाॅन कीट्स अपने जीवन काल में ही अपनी रचनाओं को पुस्तकाकार रूप दे चुके थे। तथा तात्कालिक समय में जिस सम्मान के वे हकदार थे उसे पा चुके थे। लेकिन चन्द्र कुंवर के पास छपने के नहीं बस लिखने भर के साधन थे। उन्होंने न उपलब्धि के शिखर देखे न किसी से प्रशंसा के दो शब्द सुने। दुख, दर्द, अवहेलना में वे जो भोगते रहे बस उन्हें आंसुओं से भिगोकर शब्दों में ढालते रहे। लिखा भी है-
जब तक दीपक में है प्रकाश लिखलो
अपने मन की लिख लो।
मां सरस्वती कि उन पर ही नहीं हम पर भी कृपा रही कि उनकी रचनाएं विषम परिस्थितियों में भी सुरक्षित रही। लेकिन विडम्बना देखिए जन्म सदी के इस अवसर पर भी चन्द्र कुंवर की रचनाओं का एक भी संग्रह आम पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं है। निसंदेह यही वह सबसे बड़ी त्रृटि रही है जिससे की हम चन्द्र कुंवर बर्त्वाल के रचनाक्रम को आज उनकी जन्म सदी गुजर जाने पर भी चिंतन की मुख्य धारा में नहीं ला पाये। चन्द्र कुंवर की इस अनदेखी से न केवल हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि बल्कि चन्द्र कुंवर के द्वारा उकेरे गये पहाड़ के कई आंचलिक रंग भी धुंधले ही रह गये।
उम्मीद करते हैं कि भविष्य में चन्द्र कुंवर के नाम पर गठित तथा सक्रिय संस्थानों द्वारा इस दिशा में प्रयास कर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल के समग्र चिंतन को एक ही जिल्द में आम पाठकों को उपलब्ध कराया जायेगा। यही कुंवर जी के प्रति सच्ची एंव विनम्र मनोभावना होगी!