डागदर


अभी कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में संयोग से एक सुखद समाचार पढ़ने को मिला, कर्णप्रयाग के एक चिकित्सक को स्थानीय लोगों ने दूसरी बार ट्रांसफर होने पर भी अपने शहर से जाने नहीं दिया...ऐसे समाचार, खासतौर पर चिकित्सकों के बारे में पहाड़ों से आते रहे हैं। एक तो कोई भी डाॅक्टर पहाड़ों में जाने को तैयार नहीं होता, पहाड़ी तो बिल्कुल भी नहीं, जबकि पृथक पहाड़ी राज्य मांगने वालों का यह पहल दायित्व बनता है...पर पढ़ता हूं कि कर्णप्रयाग के उक्त डाॅक्टर शर्मा, मेरठ के रहने वाले हैं जिनके लिये पहाड़ों में रहना न सिर्फ कष्टकारी रहा होगा बल्कि स्थानीय बोली में उपचार करना और भी कठिन...कि कहीं भाषा के चलते कुछ उपचार गलत न हो जाये...पर इस सर्जन ने सपत्नीक न सिर्फ स्थानीय लोगों के बीच रहकर उनकी सेवा की बल्कि आसपास के पूरे गांवों में सरकारी चिकित्सा सेवा का भी मानक स्थापित किया, लोगों में भरोसा पैदा किया। इस स्वतंत्रता दिवस पर एक सलाम तो इस चिकित्सक के लिये बनता है।
चिकित्सा, भारत में सेवा का सबसे बड़ा प्रकल्प था। आज चिकित्सा बाजार में बैठ गई है...बल्कि बाजार का आज सर्वाधिक निर्मम और आक्रामक यदि कोई ब्राण्ड है तो वह चिकित्सा है। अस्पताल, बाजार के ऐसे भयावह और चमकीले ब्राण्ड बना दिये गये हैं कि मरीज और उसकी चिकित्सा के बीच लाखों के बिल होते हैं। डिजाईनर नर्सें, फाइव स्टारी बेड, चकाचक रिसेप्शन...आदि आदि...आॅक्सीजन का सिलेण्डर प्राण देने नहीं मरणासन्न मरीजों के बिल बढ़ाने के लिये प्रयुक्त होता है। दवायें और पैथोलाॅजिकल टेस्ट जिन्हें विज्ञान की  सुविधा बनना था, वे बीमारों को चूसने के नये अविष्कार बना दिये गये हैं। जिन वैद्यों, डाॅक्टरों को देखकर कभी मरीज के चेहरे पर विश्वास और आत्मबल पैदा होता था, वही सफेद कोट आज आतंक का पर्याय बन चुका है। वह मरीज को उपभोक्ता बनाकर स्वयं दवा कंपनियों का दलाल बन चुका है। चिकित्सा के ब्राण्ड की मारक क्षमता बाजार में सर्वाधिक है क्योंकि इसमें उपभोक्ता बना दिये गये मरीज के पास कोई विकल्प नहीं है, विकल्प है तो केवल कसाई चुनने का है। देहरादून के एक प्रसि( कार्डियोलाॅजिस्ट को जानता हूं जो ब्लड प्रेशर के लिये एक मरीज को डेढ़ हजार रूपये प्रतिमाह की दवाईयां देता रहा, पर मरीज ठीक नहीं हुआ, घुणाक्षर न्याय, कि मरीज ने जब श्रीनगर के सरकारी अस्पताल में अपनी समस्या बताई, तो श्रीनगर के सरकारी डाॅक्टर ने चालीस पैसे की एक गोली प्रेसक्राइब की, मरीज को आज तक ब्लड प्रेशर नहीं हुआ। जो दवा संजाल के कुकर्माें को जानते हैं, वे समझ सकते हैं कि किस तरह हर साल दवा कंपनियां मरीजों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने वाले इन सफेद कोटों वाले दलालों को अपनी मंहगी दवाईयां लिखने के बदले सिंगापुर-दुबई का टूर करवाती हैं। इसमें पढ़ा-लिखा मरीज तक कुछ नहीं कर सकता। ऐसा भी नहीं हैं कि यह लूट मात्र बड़े अस्पतालों और छोटे शहरों तक सीमित है...लूट की गुणवत्ता और मात्रा में अंतर है, लूट अखिल भारतीय है। बल्कि कई छोटे गांवों-कस्बों में तो चिकित्सा का नारकीय रूप प्रकट होता है। मैंने स्वयं एक गांव में एक पशु-चिकित्सक को आदमियों का इलाज करते देखा है, जो पशुओं के अस्पताल में पशु-परागण की 'हर्र-हर्र' के बीच में बीमारों की भीड़ भी निपटा रहा था...मरीजों का तर्क था कि हम क्या करें, अब एक बुखार के लिये पांच सौ रूपये खर्च कर शहर जायें? जो बुखार उतार दे...उनके लिये वही चरक है।
चिकित्सा में वर्णित भारतीय सेवाभाव कहां गया? क्या यह आधुनिक चिकित्सा की सुविधा के साथ आया वायरस नहीं है? डाक्टरी पेशे का पहला भाव ही यही होना था कि आपके मन में एक स्वस्थ समाज की कल्पना हो और बीमार व्यक्ति की पीड़ा समझने का स्वभाव हो...पर जब मेडिकल के दाखिले ही करोड़ों के धन्धे बन चुके हैं, तो लाखों रूपये खर्च कर डाक्टर बना व्यक्ति धन्वन्तरि या जीवक तो बनेगा नहीं, वह अस्पताल में बैठते ही ऐसा आॅक्टोपस बनता है कि मरीज को साबुत ही चूस ले। यह सेवाभाव कैसे जागृत हो? क्या कर्णप्रयाग के डा0 शर्मा जैसे लोग उत्प्रेरक बन कर चिकित्सा का चेहरा-मोहरा ठीक करने में सहायक हो सकते हैं? मुझे लगता तो नहीं है। पर इतना अवश्य है कि ऐसे लोग आज भी समाज में हैं...वे चिकित्सा, प्रशासन, राजनीति, कला आदि अनेक फलकों पर समाज को चैंकाते रहे हैं...और समाज भी यदि उन्हें अपने कंधो पर उठाकर उनकी जयकार करता है तो यह शुभसंकेत है, यह दलाल बनती जा रही दुनिया के सामने रखा आईना है, कभी तो नजर पड़े..! पश्चिम के अनेक वैज्ञानिकों ने भारतीय )षियों की तरह अपने प्राण हथेली पर रखकर मानव स्वास्थ्य के लिये अनुसंधान किये, बिना भेदभाव समाज की सेवा की...उसी परंपरा को आज बाबा रामदेव समाज के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। दवा और खान-पान के सामान की गुणवत्ता का जो डंका आज पतंजलि ने बीच बाजार में बजाया है, उससे बेईमान बाजार सकते में है। एक साधु यदि बीच बाजार सशस्त्र खड़ा होकर चिकित्सादि के ब्राण्ड यु( को शुचिता पूर्ण और धार्मिक ढ़ंग से जय कर रहा है तो यह )षि परंपरा की ही विजय है।