देहवाद के कैरोल


विज्ञापन का सर्वाधिक घिनौना तरीका है...नग्नता / वैसे मानव की देह अश्लील नहीं बल्कि एक प्राकृतिक सत्य है, उसे हमारी दृष्टि श्लील या अश्लील बनाती है। दृष्टि और स्वार्थो की यही अश्लीलता सम्बन्धों को पुनः शरीर बना देती है। यह मानव की देह में पशु को पुनस्र्थापित करने का षड्यंत्र है। शरीरवाद ही वह अश्लील विचार है जिसके साथ भारतीय मनीषियों ने वर्षो युद्ध करके उसे समाज और साहित्य से बेदखल करने में विजय पायी थी। बाजार अनेक मनोवैज्ञानिक तरीकों से उपभोक्ता के दर्शन को विकृत करता है। नागा, दिगम्बरों को पूजने वाला, खुजराहो की गुफाओं को सुरक्षित रखने वाला, वात्सायन और कालीदास को अतिपुरूषों की पदवी देने वाला समाज क्या इन विज्ञापन के छुंछदरों से घबरा गया है? बाजार के इस दर्शन ेका उत्पादन भारत में भरपूर हो रहा है। राजनीति की गटर गंगा और काले धन के समुद्र में चार लोटे डुबाकर अचानक प्रकट हुयी इसी नव-धनाढ्य मारूति-संस्कृति का उत्पात समाज चार दशकों से झेल रहा है। नव-कुबेरों के कार-आरूढ़  कच्छेधारी बेटे बेटियां जो सार्वजनिक स्थानों में उधम मचाते देखे जा सकते हैं, इन्हीं से हमारे सामाजिक ढांचे को सबसे बड़ा खतरा है। अनाप-शनाप धन इकट्ठा कर यही लोग पिछले दरवाजों से राजनीति कला मीडिया प्रशासन जैसे संवेदनशील और निर्णायक पदों को हथिया रहे हैं, नवधनाढ्यों का यह गिरोह चिन्तन की पूरी धारा को ही अवरूद्ध कर निर्लज्ज हो हंस रहा है, बाजार संगीत दे रहा है।
जल जंगल जमीन और जननी को सबसे बड़ा खतरा व्यापारिक सभ्यता के इन्हीं भारतीय संस्करणों से है, नारी (ना$आरि) ही इनके आक्रमण का केन्द्र है। इसलिये इस युद्ध में सबसे बड़ी भागीदारी स्वयं स्त्री को करनी है। उसे बहुराष्ट्रीय अर्थदैत्यों के नकारात्मक अर्थ-दर्शन से भी लड़ना है एवम् सिनेमा से लेकर पत्र-पत्रिकाओं तक मादा बनी स्त्री को भी खबरदार करना है। स्त्री को गोश्त के विभिन्न पकवानों की तरह देखने परोसने वाली आज की इस नंगी व्यापारिक सभ्यता और उसके इन मानस पुत्रों के बारे में स्त्री को सख्त टिप्पणी के साथ कोई आन्दोलन खड़ा करना है। वरना चैनलों के प्रत्येक 'आफ्टर द ब्रेक' में आपको पूरे परिवार के साथ व्यापारियों का यह धतकर्म सुनना-सहना पड़ेगा।